आत्मकथा

आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 35)

डा. भाईसाहब की बीमारी

हमारे बड़े भाईसाहब डा. राममूर्ति सिंघल का स्वास्थ्य हम सभी भाइयों में सबसे अच्छा माना जाता था और वे कद में भी हम सबसे लम्बे हैं। वे एनेस्थीसिया (निश्चेतना विज्ञान) में एम.डी. हैं। वे कोई नौकरी नहीं करते, लेकिन आॅपरेशनों के समय मरीजों को बेहोश करने का कार्य स्वतंत्र रूप से करते हैं। इस हेतु उन्हें विभिन्न अस्पतालों और नर्सिंग होमों में जाना पड़ता है। उन्हें 24 घंटे में किसी भी समय बुला लिया जाता है और उन्हें बुलाये गये समय पर ही जाना पड़ता है। इससे उनकी आय तो अच्छी हो जाती है, लेकिन निरन्तर कार्य करने और समय-कुसमय खाने के कारण उनके स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ने लगा। व्यायाम वे करते नहीं थे, न टहलने जाते थे, जिसके लिए मैं अनेक बार आग्रह कर चुका था। किसी तरह अपनी बीमारी से जूझते हुए वे कार्य करते रहे और दवायें खाने के बावजूद (मेरे विचार से उन्हीं के कारण) उनकी बीमारी धीरे-धीरे बढ़ती रही। स्वयं बड़े डाक्टर होने के बाद भी वे बीमार हैं, यह बहुतों के लिए आश्चर्य की बात हो सकती है, परन्तु मेरे लिए नहीं है, क्योंकि मैं जानता हूँ कि ऐलोपैथिक डाक्टर ज्यादातर न केवल खुद बीमार रहते हैं, बल्कि उनके घरवाले, बीबी-बच्चे सभी किसी न किसी बीमारी से पीड़ित रहते हैं और लगातार दवायें खाते रहते हैं। वास्तव में उनको यह पढ़ाया ही नहीं जाता कि स्वस्थ कैसे रहा जा सकता है। उन्हें केवल यह पढ़ाया जाता है कि किसी बीमारी का इलाज कैसे किया जा सकता है।

भाईसाहब रीढ़ की हड्डी के असहनीय दर्द से पीड़ित हैं, जिसका पता नहीं क्या नाम बताते हैं। जब आगरा में उनका इलाज न हो सका, तो वे लखनऊ के स्नातकोत्तर चिकित्सा संस्थान (पीजीआई) में गये। वहाँ वे कई दिनों तक रहे। उस समय हम कानपुर में रहते थे। इसलिए मैं भी कई बार उनके पास रहा। कुछ सुधार होने पर वे आगरा आ गये और फिर कार्य में लग गये। लेकिन कुछ समय बाद उनकी बीमारी फिर उभर आयी। खास तौर से जाड़े के दिनों में वे बहुत कष्ट उठाते थे। तब तक हम पंचकूला आ चुके थे। पहले वे लखनऊ के उसी संस्थान में भर्ती हुए। वहाँ डाक्टर कई बार आपस में अंग्रेजी में चर्चा करते थे, ताकि भाभीजी न समझ लें। परन्तु उस बातचीत के बीच में ‘एड्स’ शब्द भाभीजी ने सुन लिया। यह सुनते ही वे घबड़ा गयीं। लेकिन सौभाग्य से जाँच में एड्स नहीं निकला।

लेकिन तबियत में सुधार न होने पर वे लखनऊ से आगरा आ गये और किसी विशेषज्ञ की सलाह पर नौएडा के मेट्रो हार्ट अस्पताल में भर्ती हो गये। यह अगस्त-सितम्बर 2006 की बात है। मेट्रो हार्ट अस्पताल अच्छा अस्पताल माना जाता है, हालांकि बहुत महँगा है। भाईसाहब की आमदनी का और कोई साधन नहीं है, क्योंकि बच्चे पढ़ रहे थे और उनका लड़का साहिल (सनी) तो पुणे में पढ़ रहा था, उसका भी काफी खर्च था। किसी तरह हम उनके इलाज के लिए खर्च की व्यवस्था कर रहे थे।

मेट्रो हार्ट अस्पताल में प्रारम्भ में उनको आई.सी.यू. में भर्ती किया गया था। यह हमारे लिए पहला अवसर था, जब हमारे घर का कोई व्यक्ति आई.सी.यू. में भर्ती हुआ हो। हम सब बुरी तरह घबड़ा गये थे। मैं जो सबको हिम्मत बँधाया करता हूँ, खुद हिम्मत हार बैठा था। मैं पंचकूला से छुट्टी लेकर नौएडा गया था और लगभग एक सप्ताह उनके साथ रहा था। फिर गोविन्द भाईसाहब के आ जाने पर मैं वापस पंचकूला गया।
वे मेट्रो हार्ट में आई.सी.यू. से तो तीन दिन बाद बाहर आ गये और एक प्राइवेट कमरे में रखे गये, लेकिन उनकी हालत में कोई सुधार नहीं हो रहा था। जब मैं पंचकूला में था, तभी उनको मेट्रो हार्ट से हटाकर दक्षिण दिल्ली के बत्रा अस्पताल में ले जाया गया। वहाँ उनको सही चिकित्सा और मार्गदर्शन मिला। वे स्वयं भी बड़ी इच्छाशक्ति के धनी हैं, इसलिए धीरे-धीरे सुधार होने लगा। एक बार श्रीमती वीनू उनके पास देखभाल के लिए आयी हुई थीं, तब उनको अस्पताल में ही बुखार आ गया। मुझे उन्होंने खबर भिजवायी कि आकर ले जाओ। मैं अपने संस्थान के ड्राइवर के साथ कार से बत्रा अस्पताल पहुँचा और अगले दिन श्रीमती जी को लेकर आया।

सौभाग्य से कुछ समय बाद भाईसाहब की हालत में बहुत सुधार हो गया और उन्हें अस्पताल से छुट्टी दे दी गयी। इलाज में काफी समय लग जाने और भारी खर्च के कारण उनकी आर्थिक स्थिति चरमरा गयी थी, जो धीरे-धीरे सामान्य हुई। अब वे काफी स्वस्थ हैं, किन्तु दवायें खानी पड़ती हैं। दवा की मात्रा जरा भी कम कर देने पर रोग फिर उभर आता है।

मुख्य प्रबंधक पद पर प्रोमोशन

मुझे वरिष्ठ प्रबंधक (आईटी) के रूप में सेवा करते हुए लगभग 11 साल हो गये थे। बीच में प्रोमोशन के दो अवसर मुझे मिले थे, जिनमें से एक बार तो मैं फेल हो गया और दूसरा अवसर मैंने छोड़ दिया था। लेकिन अपने मित्र श्री कुलवन्त सिंह गुरु के कहने पर मैं अगले अवसर का लाभ उठाने के लिए तैयार हो गया। नवम्बर 2006 में मुझे प्रोमोशन के इंटरव्यू के लिए कोलकाता बुलाया गया। वहाँ अपने मित्र श्री प्रवीण कुमार, जो स्वयं भी वही इंटरव्यू देने आये हुए थे, के साथ मैं एक ही कमरे में रुका। इंटरव्यू बोर्ड में कानपुर के मेरे पुराने साथी श्री श्रवण कुमार श्रीवास्तव, जो उस समय उप महा प्रबंधक हो गये थे, शामिल थे। उनके ही कारण मेरा प्रोमोशन हो गया।

3 दिसम्बर 2006 को दिन में प्रोमोशन का परिणाम गौड़ साहब को फोन पर बताया गया, तो वे तुरन्त ही मेरे पास आये और मुझे गले से लगा लिया। मैंने उन्हें और परमपिता को बहुत धन्यवाद दिया। प्रोमोशन पाने की मुझे तो प्रसन्नता थी ही, श्रीमती जी और बच्चों को मुझसे भी ज्यादा प्रसन्नता हुई, क्योंकि अब वे गर्व से कह सकते थे कि उनके पति या पिता मुख्य प्रबंधक (आईटी) हैं। वैसे प्रोमोशन पाने से मुझे वेतन में अधिक अन्तर नहीं पड़ा, क्योंकि मैं पहले ही स्केल 3 का अधिकतम वेतन पा रहा था, जो स्केल 4 के अधिकतम वेतन से कुछ ही कम होता है। इसलिए प्रोमोशन के साथ मेरे वेतन का निर्धारण होने के साथ-साथ यह भी लिखकर आ गया कि अब आगे इस स्केल में कोई वेतन वृद्धि नहीं मिलेगी। परन्तु वेतन के अलावा भी मुख्य प्रबंधकों को कई सुविधाएँ और अधिकार मिलते हैं, जो मुझे मिलने थे। इन सुविधाओं को लेने में भी मुझे बहुत खींचतान करनी पड़ी। इसका मुख्य कारण थे श्री दिनेश कुमार बांगिया और उनके सहायक थे श्री के.सी. चुघ, जिनका जिक्र मैं ऊपर नितिन राजुरकर के मामले के सन्दर्भ में कर चुका हूँ।

श्री दिनेश कुमार बांगिया हमारे बैंक में मेरे साथ ही आये थे, हालांकि उनकी पोस्टिंग कोलकाता में हुई थी। प्रोमोशन के जिस एक अवसर को मैंने छोड़ दिया था, उसी अवसर पर उनका प्रोमोशन हो गया था और वे मुख्य प्रबंधक के रूप में सतना मंडलीय कार्यालय में थे। उस समय तक हमारे संस्थान में केवल कम्प्यूटर विषयों के प्रशिक्षण चलते थे। तभी प्रधान कार्यालय ने तय किया कि यहाँ सामान्य विषयों के प्रशिक्षण कार्यक्रम भी चलेंगे। इस हेतु सबसे पहले श्री बांगिया को हमारे संस्थान में फैकल्टी के रूप में पदस्थापित किया गया। तब तक मेरा प्रोमोशन नहीं हुआ था।

उनके आने पर मुझे प्रसन्नता हुई। वे मेरे पूर्व परिचित थे और कई बार हम कोलकाता में मिल चुके थे। उनके आने पर मैंने उनके बैठने का प्रबंध एक केबिन में कर दिया, जो तब तक खाली पड़ा था। मैं उनको अपना हितचिन्तक समझता था। जब मेरा प्रोमोशन हुआ, तो हमने गौड़ साहब के साथ बांगिया जी को भी अगले दिन अपने घर रात्रि भोजन पर बुलाया था।

टेलीफोन सुविधा में खींचातानी

हमारे बैंक में मुख्य प्रबंधकों को वेतन सम्बंधी बढ़ोत्तरी के अलावा कार्यालय और घर पर अलग टेलीफोन तथा मोबाइल की सुविधा भी मिलती है। कार्यालय में मुझे टेलीफोन की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि मैं अपने कानों की खराबी के कारण बात नहीं कर सकता। लेकिन घर पर हमने अपना टेलीफोन लगवा रखा था, जो बहुत काम आता था। सबसे पहले तो मैंने उस टेलीफोन को बैंक की ओर से लगा हुआ मान लेने का प्रार्थनापत्र दिया, जो गौड़ साहब ने स्वीकार कर लिया। इसका फायदा यह था कि उस टेलीफोन का रु. 1000 प्रतिमाह तक का बिल बैंक द्वारा दिया जा सकता था।

दूसरा काम मैंने मोबाइल खरीदने का किया। मोबाइल के लिए बैंक से 5 हजार रुपये मिलते हैं और प्रतिमाह एक हजार रुपये तक के बिल का भुगतान भी बैंक से हो जाता है। बच्चों को रु. 5000 तक का कोई मोबाइल पसन्द नहीं आया, इसलिए रु. 7500 का मोबाइल खरीदा गया, जिसमें कैमरा भी था। इनमें से रु. 5000 का भुगतान बैंक ने कर दिया और शेष रु. 2500 मुझे अपनी जेब से देने पड़े।

इसके अगले दिन ही अचानक गौड़ साहब मुझसे टेलीफोन और मोबाइल दोनों सुविधायें वापस करने को कहने लगे। उनके अनुसार मैं इन सुविधाओं का स्वयं उपयोग नहीं कर सकता था, इसलिए ये मुझे नहीं दिये जायेंगे। कहने लगे कि लिखकर दो कि ये सुविधायें तुम्हें क्यों चाहिए। मैंने कहा कि प्र.का. के सर्कुलर के अनुसार मैं इनका पात्र हूँ। अगर आप लिखवाना चाहते हैं, तो मुझे पत्र दीजिए, मैं उसका उत्तर दे दूँगा। उन्होंने अगले दिन ही मुझे पत्र दे दिया और मेरे खाते से रु. 5000 भी काट लिये। मैंने पत्र का उत्तर दिया और लिखा कि ये सुविधायें वापस लेना अन्याय है। लेकिन इसके जबाब में उन्होंने फिर वे ही बातें दोहरा दीं। तब तक मुझे पता चल गया था कि यह सारी उल्टी पट्टी बांगिया जी और चुघ साहब ने उनको पढ़ायी थी।

अब मैंने प्रधान कार्यालय के प्रशासन विभाग को एक लम्बा पत्र लिखा और गौड़ साहब से कहा कि इसको प्र.का. अग्रसारित कर दीजिए, वहाँ से जैसा जबाब आयेगा, मैं मान लूँगा। उन्होंने कहा कि ठीक है, अग्रसारित कर देंगे। उन्होंने लगभग 10 दिन तक पत्र को अग्रसारित नहीं किया, जबकि मैं रोज याद दिला रहा था। जब मेरा धैर्य चुक गया, तो मैंने उनसे स्पष्ट कह दिया कि यदि दो दिन के अन्दर आपने मेरे पत्र को प्र.का. अग्रसारित नहीं किया, तो मैं इसे सीधे बिना अग्रसारित कराये ही स्पीड पोस्ट से भेज दूँगा।

यह सुनकर वे डर गये और प्रशासन विभाग को टेलीफोन करने लगे। वहाँ उन्होंने जाने किस सहायक महा प्रबंधक से बात की कि उसने मामला समझते ही फौरन कहा कि इनको दोनों सुविधाएँ तुरन्त दे दो। इस पर गौड़ साहब को दोनों सुविधायें देनी पड़ीं और जो 5 हजार रुपये मेरे खाते से काटे गये थे, वे भी लौटाने पड़े। उन्होंने मुझसे केवल यह लिखवाया कि संस्थान छोड़ते समय मोबाइल और टेलीफोन दोनों सुविधायें वापस कर दूँगा। मैंने उनकी संतुष्टि के लिए ऐसा लिख दिया, हालांकि इसकी भी कोई आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि ऐसा तो सबको करना ही पड़ता है।

इस सारे मामले से गौड़ साहब और बांगिया जी दोनों के प्रति मेरा मन बहुत खट्टा हो गया था। हालांकि मैंने अपना व्यवहार बहुत संयमित रखा था और कोई अप्रिय घटना नहीं होने दी। यदि मेरी जगह कोई दूसरा होता, तो बात किसी भी हद तक जाकर बिगड़ सकती थी। इसके बाद मैंने कम से कम बांगिया जी पर विश्वास करना एकदम बन्द कर दिया था। इसके साथ ही मैंने चुघ साहब से भी दूरी बना ली थी, क्योंकि उनकी भूमिका भी इस मामले में सही नहीं थी। वैसे इसके कुछ समय बाद ही चुघ साहब रिटायर हो गये थे। उनकी विदाई पार्टी में मैं भी शामिल हुआ था, लेकिन कुछ बोला नहीं था, केवल उनको शुभकामनायें दी थीं।

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

5 thoughts on “आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 35)

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते विजय जी। आज की किस्त आद्योपान्त पढ़ी। आपके जीवन में घटी तथा किस्त में वर्णित घटनाओं को जानने का अवसर मिला। आशा है कि आपके बड़े भाई साहब स्वस्थ होंगे और स्वास्थ्य के नियमों का पालन करते होंगे। आपकी पदोन्नति का सुखद समाचार पढ़कर भी प्रसन्नता हुई। टेलीफोन प्रकरण में आपके अधिकारियों का आपके प्रति अमैत्रीपूर्ण व्यवहार देखकर दुःख हुआ। मेरी बेटी बैंक में है। वह गुवाहटी से एकबार एक सप्ताह का अवकाश लेकर देहरादून आई थी। अवकाश के बाद ज्वाइनिंग की देय तिथि से एक दिन पूर्व ही उसे उनके शाखा प्रबन्धक ने फोन पर गुवाहटी पहुंचने का आदेश दिया। लड़की स्केल 2 व वह स्केल 3 था। लड़की के नाम के साथ आर्य शब्द का प्रयोेग होता है, वह सम्भवतः इसका विरोधी था। लड़की को अपने टिकट निरस्त कर नये टिकटों से वायु यात्रा से पहुंचना पड़ा। वहां जा कर पता चला कि कोई विशेष कार्य नहीं था। यात्रा व्यय का बिल भी स्वीकार नहीं किया। इस यात्रा बिल के कारण उसने उच्चाधिकारियों से बेसिरपैर की शिकायतें की। उस व्यक्ति से मैं एक बार मिला भी था परन्तु उसके इस व्यवहार ने मुझे व मेरी पुत्री को उसका विरोधी बना दिया। आपके साथ भी आपके दो अधिकारियों ने जो अमैत्री व पक्षपातपूर्ण व्यवहार किया, वह अनुचित था। आज की किस्त के लिये बधाई।

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार मान्यवर ! प्रभु कृपा से अब भाईसाहब स्वस्थ हैं और अपना कार्य ठीक प्रकार से कर रहे हैं। मैंने उनको साफ़ निर्देश दे रखा है कि भले ही आय कम हो लेकिन इतना कार्य न करें कि थकान हो जाये।
      बैंक ही नहीं लगभग सभी सरकारी और प्राइवेट कार्यालयों में एक दूसरे की टाँग खिचाई (केंकडावृत्ति) देखने में आती है। इसका कोई निश्चित समाधान नहीं है। इससे बचकर रहना ही सबसे अच्छा है।

      • Man Mohan Kumar Arya

        नमस्ते श्री विजय जी। आपके विचार और जानकरी पढ़कर प्रसन्नता हुई। हार्दिक धन्यवाद।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , आज के एपिसोड में आप के बड़े भाई का पड़ा जो बहुत दुर्भाग्य पूरण है किओंकि सिहत के साथ ही सब कुछ है , लेकिन क्या करें जब तकलीफ होती है तो इंसान जितनी मर्ज़ी दुआइआन हों खाने को तैयार हो जाता है ,लेकिन अगर सिहत का खियाल रखते हुए भी इंसान बीमार हो जाए तो किया करें ? मुझे ही लें ,जितना मैं अपने लिए करता हूँ ,लाखों में ही एक होगा जो करता है ,बीमारी ही ऐसी है कि शरीर में जान पड़ती ही नहीं,मेरा बैलेंस बिलकुल ख़तम हो चुका है ,खड़ा हो जाता हूँ लेकिन मेरे शरीर को कोई हाथ भी लगाए तो मैं गिर जाऊँगा .यह मेरा हठ ही मुझे लिए जा रहा है वर्ना डाक्टर इस मोटर निऊरोन डिसीज़ को तीन से पांच साल ही देते हैं , २००४ से धीरे धीरे बड रही है लेकिन मेरी यह सोच ही है कि मैं घर वालों को कोई ज़िआदा दुःख पौह्न्चाना नहीं चाहता .
    आप की परमोशन का पड़ा ,तो भारत का जो सिस्टम है ,उस में इमानदारी की बहुत कमी है .

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार भाईसाहब ! स्वास्थ्य ही हमारी सबसे बड़ी दौलत है।

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