लघुकथा

लछमी

लछमी अपने घर में बैठी सोच रही थी क़ि आखिर माँ ने उस का नाम लछमी किया सोच कर रख दिया था। सारी उमर विधवा की तरह और गरीबी में गुज़ार दी , उस की बेटी लता चार वर्ष की थी जब उस का पति संजीव मामूली झगडे के कारण उसे छोड़ कर पता नहीं कहाँ चला गिया था। अब तो बेटी लता भी अठाई वर्ष की हो गई थी। हर दिवाली के दिन वोह लोगों से सुना करती थी ” दिवाली के दिन लक्छमी की पूजा करो , दरवाजे खुले रखो , लक्ष्मी माँ आ कर धन दे जायेगी ” लेकिन लछमी यह सब सुन कर हंस देती थी। और कहती थी , अगर लक्ष्मी माँ ने कुछ देना है तो किया उस से एक दरवाजा नहीं खुलेगा ? इतनी कठनाईओं के बावजूद उस ने कभी भी कोई वहम नहीं किया था, कभी हार नहीं मानी थी और सारी ताकत अपनी बेटी लता को पढ़ाने के लिए लगा दी थी। लता पड़ने में बहुत हुशिआर थी , हर वर्ष इम्तिहान में अवल आती , हर गेम में अवल आती , उस की फोटो अखबारों में छपती। लछमी सोचती यही तो है लक्ष्मी ! यही तो है मेरा असली धन । एक मामूली सी क्लर्क की नौकरी से उस ने बेटी लता को पड़ा दिया था क़ि अब उसे मंज़िल नज़दीक दिख रही थी। उस ने अपने मकान को गिरवी रख कर और सारे गहने बेच कर लता को एम बी बी एस पास करा दिया था।
आज भी दिवाली का दिन था , चारों ओर पटाखों की आवाज़ें गूँज रही थी , हर तरफ से मठाईओं की भीनी भीनी खुशबू फैली हुई थी और उस की बेटी लता अपनी किसी सहेली से मिलने गई हुई थी और लछमी पकौड़े तल रही थी। तभी दरवाजे पर दस्तक हुई , लछमी ने उठ कर दरवाज़ा खोला। देखते ही जैसे बुत्त बन गई हो , इतने वर्षों बाद उस का पति संजीव सामने खड़ा था। संजीव बोला , लक्ष्मी ! अगर आप मुझे मुआफ कर देंगी तो मैं सारी दास्ताँ सुना सकूंगा। लक्ष्मी बोली नहीं और एक बैग पकड़ कर अंदर आने लगी , उस का पती भी सूटकेस लिए भीतर आ गिया। पति देव बातें बता रहे थे लेकिन लक्ष्मी को जैसे कोई बात सुनाई नहीं दे रही थी। इतनी देर में लता भी आ गई और एक मर्द को देख कर हैरान सी हो गई। कुछ देर बाद लक्ष्मी बोली , बेटी ! यह तेरे डैडी हैं। कुछ देर की खामोशी के बाद लता अपने डैडी के गले लग गई। लता ने सारा माहौल ही बदल दिया और बोली , माँ ! तू लक्ष्मी माँ की पूजा नहीं करती थी लेकिन आज लक्ष्मी माँ ने तेरे आगे हाथ खड़े कर दिए और बिन बुलाए ही चली आई।

One thought on “लछमी

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी लघु कथा, भाई साहब.

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