कविता

दीप हूँ मैं

दीप हूँ मैं
मैं मनुज के खोज की पहली कहानी
जगत के उत्थान की मैं हूँ निशानी
बिखर जाऊँ तो प्रलय&अंगार हूँ मैं
लोक में आलोक का सिंगार हूँ मैं
विफल मन में सफलता का गीत हूँ मैं
दीप हूँ मैं।

तम के सीने पर चढूँ नर्तन करूँ मैं
पवन संग भी झूमकर नर्तन करूँ मैं
साधना योगी-सी कर प्रभु को रिझाऊँ
जल के पल-पल स्वयं को अर्पण करूँ मैं
रंक या राजा सभी का मीत हूँ मैं,
दीप हूँ मैं।

धर्म-जाति के ना बंधन जानता मैं
भूमि की सीमा भी ना पहचानता मैं
बस लुटा कर मैं सदा अस्तित्व अपना
कर्म और कर्तव्य को इस मानता मैं
दंभ जग का देखकर भयभीत हूँ मैं
दीप हूँ मैं।

सूर्य से चमको यही सद्भावना है
हो प्रकाशित दिग दिगंतर  भावना है
स्वप्न में भी न छुए अंधियार कोई
पथ दिखाओ जगत को यह भावना है
गहन निराशा में खुशी का गीत हूँ मैं
दीप हूँ मैं।