सम सामयिक कविता – “सोच के पार ”
हम भले ही पहुँच गये हों चाँद पर
बाहें लम्बी करके छू लिया हो मंगल की धरती
और नाप लिया हो सूर्य – तारों की दूरी
अपनी तपस्या और प्रताप से
किन्तु हमारी सोच अभी भी नहीं बढ़ पायी
बर्बर आदिम युग से आगे
तभी तो इतनी ऊँचाई से
हमें कीड़े – मकोड़े की तरह दिखते हैं
हमारी ही प्रजाति के मानव
हमारी ही धरती के जीव और वनस्पतियाँ
हम चुप हैं उनके बे-जा शोषण पर
अपने ही हाथों गला घोंट रहे हैं
अपनी ही जीवन दायिनी शक्ति का
हम भ्रूण हत्या से नहीं बढ़ पा रहे
एक शाश्वत जीवन की ओर
अपनी मातृशक्ति को भोग्या समझने लगे हैं
सहचर से स्वार्थी हो गये हम
क्या इक्कीसवी सदी की राह
कालिख पुते मुंह और गधे की सवारी पर ही तय होगी
ऐसा रूप और वाहन तो हमारी आदि माताओं नौ दुर्गाओ ने धारण किया था
हमारी इसी कुवृत्ति के वध के लिए
हम शायद भूल चुके हैं अपनी ही जड़ों और भविष्य को
फिर क्या याद रह गया हमको
आओ विचार करें …
बहुत अच्छी कविता.
अच्छी कविता .