इतिहास

डॉ राजेंद्र प्रसाद के विचारों को आत्मसात किया जाए

देश के प्रथम राष्ट्रपति डा- राजेंद्र प्रसाद राष्ट  के सर्वांगीण विकास के लिए अच्छे नागरिकों को अत्यावश्यक मानते थे। उनकी सोच यही थी कि किसी भी राष्टरू के लिए सबसे महत्वपूर्ण है चरित्र। आज जब देश में हर तरफ भ्रष्टाचार और घोटाले का अनुनाद सुनाई पड़ रहा है। ऐसे में डा राजेंद्र प्रसाद के विचार और भी प्रासंगिक नजर आते हैं। सवाल यह कौंधता है कि क्या राजनीतिकों या अफसरशाही के शीर्ष स्तंभों और पैरोकारों ने कभी देशरत्न डा राजेंद्र प्रसाद को आत्मसात करने की कोशिश की. हालात से जो जवाब उभरता है वह नकारात्मक ही है। मौजूदा वक्त की जरूरत है कि डा राजेंद्र प्रसाद के विचारों को आत्मसात करने के लिए युवा पीढ़ी के मानस को तैयार किया जाए।

Dr. Rajendra prasad

डा राजेंद्र प्रसाद के विचारों को समझने के लिए उनके एक और उदबोधन का जिक्र करना चाहूंगा। १४ अगस्त १९५२ को एक कार्यक्रम में डा राजेंद्र प्रसाद ने कहा कि देश को विकसित बनाना है इसके लिए हमे एक ऐसे चरित्र की आवश्यकता है जो आसानी से उन प्रलोभनों से पराजित न हो जो हमें घेरे हुए हैं बल्कि जो त्याग करने के लिए तत्पर रहे, जो अपार कठिनाइयों के बावजूद सच्चाइयों में दृढ़ रहे और जो हमें यह सामर्थ्य प्रदान करे कि हम दूसरे लोगों के हृदय में पैठ सकें और उनके दुख और दर्द को अपना बना सकें। जो सर्वदा लेने की बजाय देने के लिए तत्पर रहे ऐसे चरित्रशील व्यक्तियों वाला स्वयंमेव राष्टरू सुखी व संपन्न होगा और दूसरों को भी सुखी व संपन्न करेगा। डाण् राजेंद्र प्रसाद ने चरित्र को सर्वोच्च माना और उसकी संरक्षा और विकास की पुरजोर पैरोकारी की। एक नवंबर १९५७ को उन्होंने कहा कि कोई भी काम मनुष्य चरित्र के बिना संपन्न नहीं कर सकताए चाहे वह निजी हो या राष्टरू का। चरित्र का निर्माण केवल पुस्तकों को पढ़ने अथवा अच्छे शब्दों के सुनने से नहीं होताए उसके लिए एक ही उपाय है। वह है. त्याग और निष्ठा के साथ छोटे से छोटे और बड़े से बड़े काम को अंजाम देना तथा सच्चाई के साथ उसे पूरा करना।

बाबू राजेंद्र प्रसाद का जन्म तीन दिसंबर १८८४ को उत्तरी बिहार के सारन जिले के सुदुरवर्ती गांव जीरादेई में महादेव सहाय और कमलेश्वरी देवी के घर में हुआ। इनके पिता महादेव सहाय तत्कालीन हथुवा राज्य में दीवान के पद पर कार्यरत थे। माता कमलेश्वरी धार्मिक विचारों की दृढ़ महिला थीं। उन्होंने प्रथम शिक्षिका के रूप में रामायण और अन्य धार्मिक विचारों का सार राजेंद्र प्रसाद के मानस पर प्रभावी ढंग से अंकित कर दिया। बचपन से ही राजेंद्र बाबू बड़े मेधावी थे। पांच साल की आयु में ही उन्होंने फारसी की शिक्षा ग्रहण करने का क्रम शुरू कर दिया। बाद में गणितए हिंदी और संस्कृत जैसे विषयों में भी सिद्धता हासिल की। बाद की पढ़ाई के लिए छपरा जिला स्कूल में प्रवेश लिया। आरके घोष पटना अकादमी में मिडिल की पढ़ाई की। हाई स्कूल की शिक्षा के लिए हथवा विद्यालय में प्रवेश लिया। कक्षा में सर्वोच्च रहे। मेधा की बदौलत दो दर्जा ऊपर कर दिए गए। सन १९०२ में कलकत्ता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में प्रथम स्थान हासिल किया। बाद में कलकत्ता प्रेसीडेंसी कालेज में दाखिला लिया।

छात्रों में लोकप्रियता की बदौलत सन १९०४ में कालेज यूनियन के मंत्री चुने गए। स्रातक के बाद विशिष्ट योग्यतासे एमए में प्रथम स्थान प्राप्त किया। अच्छे अंकों के साथ ला की डिग्री भी ली। सन १९०६ में जब कलकत्ता में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ तो उन्होंने स्वयंसेवक के रूप में उसमें हिस्सा लिया। पहली बार पंडित मदनमोहन मालवीय और सरोजनी नायडू सरीखे नेताओं के भाषण सुनने का मौका मिला। धीर.धीरे कांग्रेस की ओर आकर्षित होते चले गए। सन १९११ में कांग्रेस के विधिवत सदस्य बन गए। इसी वर्ष से कलकत्ता में वकालत शुरू की। सन १९१२ में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में सर आशुतोष मुखर्जी इनकी विद्वता और वाकपटुता से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने राजेंद्र बाबू को
प्रेसीडेंसी ला कालेज में प्रवक्ता का पद प्रदान किया।

संयोगवश डा गोपालकृष्ण गोखले की राजेंद्र बाबू से भेंट हो गई। गोखले ने उन्हें भारत सेवा मंडल में शामिल होने का परामर्श दिया लेकिन पारिवारिक जिम्मेदारियों की वजह से चाहकर भी राजेंद्र बाबू वैसा न कर सके। हालांकि उन्होंने अपने बड़े भाई को पत्र लिखकर सामाजिक सेवा के कार्यों में लगने की अनुमति मांगी लेकिन उन्हें मंजूरी न मिली। फिर वे पारिवारिक जिम्मेदारियां सम्हालने में जुटे। कुछ ही समय बीता कि सन १९१५ में महात्मा गांधी से एक सभा में राजेंद्र बाबू की मुलाकात हो गई। वहां गांधीजी ने उनसे भारत माता की मुक्ति के लिए राजनीति और सेवा धर्म को अपनाने का आह्वान कियाए जो उनके मन पर असर दिखाने लगा। दिसंबर १९१६ में लखनऊ में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में फिर महात्मा गांधीजी की भेंट उनसे हुई। इसी अधिवेशन में चंपारण की स्थिति के बारे में एक प्रस्ताव पास किया गया। इस प्रस्ताव ने  ही राजेंद्र बाबू के जीवन की दशा बदल दी। अगले साल जब कलकत्ता में अधिवेशन हुआ तो उनकी भेंट फिर महात्मा गांधी से हुई। सन १९१७ में जब महात्मा गांधी चंपारण गए तो राजेंद्र बाबू को उनके और निकट आने का मौका मिला। उन्हें महात्मा गांधी के निर्देशन में काम करने का मौका भी मिला। लंबे संघर्ष और अनेक मुश्किलों के साथ हुए इस आंदोलन में महात्मा गांधी की विजय हुई जिसका पूरे देश पर जबर्दस्त प्रभाव पड़ा।

बाद में सन १९१९ के जलियांवालाबाग कांड ने राजेंद्र बाबू को झकझोर कर रख दिया। सन १९२० में नागपुर में कांग्रेस के अधिवेशन में असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव पास हुआए जिसे देखते हुए राजेंद्र बाबू ने वकालत करना छोड़ दिया। पटना विश्वविद्यालय की सीनेट और सिंडिकेट की सदस्यता से भी त्यागपत्र दे दिया। घूम.घूमकर लोगों को असहयोग आंदोलन के प्रति जागरूक करने लगे। फलस्वरूप छोटा नागपुर और संथाल परगना में राजनीतिक चेतना जागृत हुई। सन १९२३ में जब झंडा सत्याग्रह शुरू हुआ तो लोगों में स्वाभिमान का भाव भरने का काम किया। सन १९२४ में पटना नगर पालिका के अध्यक्ष चुने गए। सन १९३० के नमक सत्याग्रह में कांग्रेस की प्रांतीय कमेटी के अध्यक्ष के रूप में हिस्सा लिया। जनजागरण अभियान से बौखलाए ब्रिटिश हुकूमत ने इन्हें गिरफ्तार करा लिया। सन ३२ में फिर गिरफ्तार किए गए। छह माह की कड़ी कैद हुई, जिसे उन्होंने हंसते हुए काट लिया। सन १९३४ में बिहार में जब भूकंप से भीषण तबाही हुई तो उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया। सरकारी अफसरों की सोच यह थी कि भूकंप पीड़ितों के लिए राहत कार्य ठीक से इन्हीं की अगुआई में चलाया जा सकेगा। राजेंद्र बाबू जनता और सरकार के बीच में अच्छी भूमिका निभा सकेंगे। उन्होंने भूकंप पीड़ितों की जबर्दस्त मदद की।

ईमानदारी, कर्मठता, कार्यकुशलता, प्रखर स्मरण शक्ति, विनम्रता की प्रतिमूर्ति डा राजेंद्र प्रसाद को सन १९३४ में कांग्रेस के बंबई अधिवेशन में अध्यक्ष बनाया गया। वे दूसरी बार तब अध्यक्ष बने जब १९३९ में  सुभाषचंद्र बोस ने इस पद से त्यागपत्र दे दिया। इस बार भी महात्मा गांधी के आग्रह पर उन्होंने यह पद ग्रहण किया। सन १९४२ के आंदोलन में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई। अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार करा लिया। करीब तीन वर्ष तक जेल में रहे। सन १९४७ में वे तीसरी बार कांग्रेस के अध्यक्ष बने। अनेक मौकों पर उन्होंने कार्यकर्ता से लेकर अध्यक्षता तक के दायित्व निभाए।

आजादी से ठीक पहले अंतरिम सरकार में वे खाद्य एवं कृषि मंत्री बनाए गए तो उन्होंने अधिक अन्न उपजाओ का नारा दियाए जिससे किसानों में जोश भर गया। सन १९४६ में संविधान सभा की स्थापना की गई तो सर्वसम्मति से इसके अध्यक्ष बनाए गए। इस सभा को ही स्वतंत्र भारत के लिए संविधान बनाना था। उनकी दूरदर्शिता से देश के संविधान को ठोस शक्ल मिली। सन १९४७ में आजादी मिलने के बाद जब पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में सरकार का गठन हुआ तो उन्हें फिर खाद्य और कृषि मंत्री का पद दे दिया गया। उन्होंने देखा कि अंगरेजों की नीतियों के कारण कुटीर उद्योग तितर.बितर हो गए हैं। ग्राम्य जीवन अस्त.व्यस्त हो गया है। वे चाहते थे कि महात्मा गांधी के
आदर्शों को ध्यान में रखकर ग्राम्य कुटीर उद्योग पुन स्थापित किए जाएं लेकिन इसके बाद भी तत्कालीन राजनीतिकों ने औद्योगीकरण की बात सोची, जो उन्हें अच्छी न लगी। तत्कालीन स्थितियों में गठित योजना आयोग की नीतियों से वे संतुष्ट नहीं थेए यही कारण था कि उन्होंने योजना आयोग की अध्यक्षता स्वीकार नहीं की। सन १९५० में जब देश गणतंत्र बना तो वे प्रथम राष्ट्रपति चुने गए। सन १९५७ में दोबारा राष्टरूपति निर्वाचित हुए। १२ वर्ष तक राष्ट्रपति रहे। सन १९६२ में राष्ट्रपति पद से कार्यमुक्त होने पर उन्हें भारत के शिखर सम्मान भारत रत्न से नवाजा गया।

राजेंद्र बाबू ने बीस पुस्तकों का सृजन किया। इनमें से अधिकांश महात्मा गांधी के ऊपर हैं। गांधीजी की देन, भारतीय शिक्षा, साहित्य शिक्षा और संस्कृति, बापू के चरणों में तथा आत्मकथा इनकी प्रमुख कृतियों में शुमार हैं। ताउम्र उन्होंने महात्मा गांधी के आदर्शों पर ही अमल किया। सादगी की बानगी उनके कृत्यों से ही मिल जाती है। उन्होंने जीवनभर जो उपहार प्राप्त किए उन्हें उन्होंने पटना संग्रहालय को बतौर दान दे दिया। करीब १२ हजार पुस्तकें उन्होंने उस बिहार विद्यापीठ को समर्पित कर दींए जिसकी स्थापना१९२१ में की थी। मानवता का यह सच्चा हिमायती २८ फरवरी १९६३ को सदा.सदा के लिए मौन हो गया, लेकिन उसकी कृतियां आज भी देश के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा देती हैं। जरूरत है उसे अपनाने की।

लेखक. उमेश शुक्ल

उमेश शुक्ल

उमेश शुक्ल पिछले 34 साल से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय रूप से काम कर रहे हैं। वे अमर उजाला, डीएलए और हरिभूूमि हिंदी दैनिक में भी अहम पदों पर काम कर चुके हैं। वर्तमान में बुंदेलखंड विश्वविद्यालय,झांसी के जनसंचार एवं पत्रकारिता संस्थान में बतौर शिक्षक कार्यरत हैं। वे नियमित रूप से ब्लाग लेखन का काम भी करते हैं।

One thought on “डॉ राजेंद्र प्रसाद के विचारों को आत्मसात किया जाए

  • विजय कुमार सिंघल

    डॉ राजेन्द्र प्रसाद का जीवन हर प्रकार से आदर्श भारतीय का प्रतिबिम्ब था. सादा जीवन उच्च विचार उनका मूल मन्त्र था. हम उनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं.

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