उपन्यास अंश

आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 17)

बी.एससी. में मेरे अंक लगभग 64 प्रतिशत थे और मैं काफी संतुष्ट था। मुझे याद आता है कि एक बार प्रधानाचार्य जी ने अर्द्धवार्षिक परीक्षाओं के बाद सभी छात्रों के प्रदर्शन की व्यक्तिगत रूप से समीक्षा करना तय किया था। अर्द्धवार्षिक परीक्षा में मेरे अंक 60 प्रतिशत से कुछ अधिक ही थे, जब मुझे समीक्षा के लिए बुलाया गया, तो वे अध्यापक लोग यह देखकर बहुत खुश हुए कि मेरे अंक 60 प्रतिशत से अधिक हैं। उन्होंने मुझसे अंग्रेजी में लिखकर कहा था- ‘बधाई, आगे सुधार करो।’ मैंने कहा था- ‘जी श्रीमान्’। मैंने सुधार करके दिखाया भी। उन्होंने उस समय मेरे चरित्र की भी परीक्षा ली थी। वह इस तरह कि उनमें से एक ने जिनके पास मैं खड़ा था जानबूझकर अपनी माचिस जमीन पर गिरा दी, लेकिन इस तरह जैसे वह असावधानीवश गिर पड़ी हो। वे यह देखना चाहते थे कि मैं कितना चैकन्ना रहता हूँ और मेरा चरित्र कैसा है। सौभाग्य से मैंने तुरन्त झुककर माचिस उठाकर दे दी थी। किसी योजनावश नहीं बल्कि स्वाभाविक रूप से ही। शायद इस बात का प्रभाव भी उनपर पड़ा था और वे बहुत प्रसन्न हुए थे।

बी.एससी. अन्तिम वर्ष में आने तक हमारी जो थोड़ी बहुत झिझक थी वह दूर हो चुकी थी। और हम अपनी सहपाठिनियों से भी निस्संकोच होकर बातें कर सकते थे। इस बार मैं एसोसियेशन में भी सक्रिय था। मेरे अंक बी.एससी. प्रथम वर्ष के अर्थशास्त्र के सभी छात्रों में सर्वाधिक थे, अतः मैं एसोसियेशन का कोषाध्यक्ष बन सकता था, लेकिन अंसारी साहब के कहने पर मैंने अपना दावा छोड़ दिया था तथा अपने सहपाठी श्री प्रशान्त कुमार सिंह को वह पद दिला दिया था। प्रशान्त कुमार सिंह मेरे अच्छे दोस्त थे और बहुत सज्जन थे, आजकल वे कहाँ पर हैं मुझे पता नहीं।

एसोसियेशन के अध्यक्ष थे मेरे सहपाठी श्री वत्सराज सिंह जो पढ़ने लिखने में भी सबसे आगे थे। देखने में काफी अच्छे लगते थे और काफी चरित्रवान भी थे। उनकी सज्जनता और विनयशीलता काफी प्रसिद्ध थी। उनके पिता जी उस समय मथुरा रेलवे स्टेशन के स्टेशन मास्टर थे। बी.एससी. के बाद वे घर बैठ कर आई.सी.डब्लू.ए. करने लगे थे। उसके बाद कहाँ गये, इसका पता नहीं चल सका।

हमारी महासचिव थीं कु. नीलम खन्ना, जो एक अन्य छात्र द्वारा अपना दावा छोड़ देने पर महासचिव बनी थीं। संरक्षक श्री अंसारी थे ही और वरिष्ठ अध्यक्ष थे श्री मुकेश चन्द्र सक्सेना।

एसोसियेशन में किसी कार्यकारी पद पर न होते हुए भी मैं उसकी गतिविधियों में सबसे ज्यादा सक्रिय था। एसोसियेशन के अधिकतर पत्र, प्रतिवेदन आदि मैंने ही तैयार (ड्राफ्ट) किये थे। एक बार एसोसियेशन ने एक सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता आयोजित की थी, जिसमें मैं प्रथम रहा था। पुरस्कार में यहाँ भी वही प्रमाण-पत्र मात्र मिला।

एक बार एसोसियेशन की तरफ से बुद्धि परीक्षण प्रतियोगिता भी आयोजित की गयी थी, जिसमें भी मैं प्रथम रहा और मेरा बुद्धि मापांक (प्ण्फण्) था 135.5 मेरी इस सफलता और प्ण्फण् के लिए मुझे बहुत प्रशंसा और प्रसिद्धि मिली थी। श्री अंसारी जी ने इसके पुरस्कार स्वरूप मुझे अपने हाथ से लिखकर एक प्रमाणपत्र दिया था, जिसे मैं आज भी अपने जीवन की अमूल्य निधि मानता हूँ।

एक बार हम एसोसियेशन की तरफ से एक पिकनिक टूर ‘घना पक्षी विहार, भरतपुर’ ले गये थे। यात्रा हालांकि एक ही दिन की थी। लेकिन हमने इसे बहुत पसन्द किया था। पक्षी विहार जैसी प्राकृतिक सौन्दर्य की जगह पर जाकर मैं बहुत खुश हुआ था। हजारों तरह के रंगबिरंगे पक्षियों को देखना एक विलक्षण अनुभव था।

हमारी चारों सहपाठिनियाँ भी हमारे साथ यात्रा पर गयीं थीं। वहाँ कल्पना और सुनीता ने एक-एक गीत सुनाया था और मैंने अच्छी लय न होने पर भी दो गजलें सुनायी थीं। समय कम होने के कारण हम वहाँ ज्यादा नहीं घूम सके, लेकिन जितना भी देखा उसी से मन बहुत उल्लसित हो गया था। मुझे याद है कि वहाँ सड़क के दोनों तरफ बेर के काफी पेड़ थे। मैं बार-बार बेर इकट्ठे करके अपने सहपाठियों में बाँट रहा था। अपनी चारों सहपाठिनियों तथा एक कनिष्ठ छात्रा, जिसे मैं गुड़िया कह रहा था, को भी मैंने लाल-लाल बेर इकट्ठे करके दिये थे। स्वयं भी मैंने काफी बेर खाये थे। वह दिन मेरी जिन्दगी के सबसे अच्छे दिनों में से एक हैं, जब मुझे बेइन्तिहा खुशी प्राप्त हुई। किसी शायर ने कहा है- ‘पिलाने में पीने से ज्यादा खुशी है। मेरे हाथ से आज साकी ने पी है।।

इस यात्रा में हमारे साथ अंसारी साहब और सक्सेना साहब भी थे, अतः हम बहुत ज्यादा आजादी नहीं ले सके थे। अगली बार हमने स्वयं ही फतेहपुर सीकरी जाने की योजना बनायी। इस यात्रा में हमारे साथ कोई लड़की भी नहीं थी। अतः हम पूर्ण स्वच्छन्द होकर मनचाही जगह पर घूम फिर सके। हमने काफी चित्र भी खींचे थे। फतेहपुर सीकरी जाने का मेरा यह प्रथम (और अभी तक अन्तिम) अवसर था। वहाँ की इमारतों की बनावट और सौन्दर्य देखकर मैं बहुत प्रभावित हुआ था।

उस वर्ष का वार्षिक समारोह हमारी एक और सफलता थी। मैंने उस समारोह के लिए श्यामपट पर रंगीन चाॅक से अपनी एसोसियेशन का नाम बहुत सुन्दर अक्षरों में कलात्मक ढंग से लिखा था तथा अपनी चित्रकला का नमूना भी दिखाया था। साथ ही मैंने दो कविताएं भी सुनायी थीं। उस समय समारोह पर मैं ही मैं छाया हुआ था। श्री अंसारी साहब ने मेरी प्रशंसा करते हुए टिप्पणी की थी- ‘मल्टी टेलेन्टेड बाॅय है’ अर्थात् बहुमुखी प्रतिभाशाली लड़का है। अपनी इस प्रशंसा को मैं सैकड़ों प्रमाणपत्रों से भी अधिक मूल्यवान मानता हूँ।

बी.एससी. अन्तिम वर्ष में सांख्यिकी की प्रयोगात्मक परीक्षा मेरी एक और स्वर्णिम सफलता थी। मैंने अपने दोनों प्रयोग सफलतापूर्वक किये थे। लेकिन यह इतना महत्वपूर्ण नहीं था। महत्वपूर्ण थी मेरी मौखिक परीक्षा। परीक्षक ने मुझसे जो भी प्रश्न पूछे थे, मैंने उनका जबाव काफी सही-सही दिया था। उसने मुझे ऋतुज परिवर्तनों (Seasonal variations) का एक उदाहरण पूछा था। सामान्यतः दिये जाने वाले उदाहरणों के विपरीत मैंने उदाहरण दिया था- ‘किसी सड़क पर एक दिन में होने वाले यातायात’ का। इस उदाहरण से वह इतने खुश हुए कि प्रयोगात्मक परीक्षा में मुझे 50 में से पूरे 50 अंक दे दिये।

सांख्यिकी में इस बार 150 में से 136 अंक लेकर मैं प्रथम स्थान पर था। लेकिन अर्थशास्त्र के कम अंकों के कारण मेरे कुल अंक थे केवल 64 प्रतिशत। फिर भी मैं बहुत प्रसन्न था कि मैंने प्रथम श्रेणी प्राप्त कर ली थी। मेरी इस सफलता का एक बड़ा श्रेय सांख्यिकी के अध्यापकों, खास तौर से श्री अंसारी साहब, को जाता है। अगर गणित में मुझे अंसारी साहब जैसा एक भी अध्यापक मिला हेाता तो मैं उसमें भी 65 के बजाय 85 से 90 प्रतिशत अंक लाकर दिखा सकता था।

उसी वर्ष मेरे सबसे बड़े भाई साहब श्री महावीर प्रसाद का शुभ विवाह सम्पन्न हुआ। हमारी भाभी जी श्रीमती सरला अग्रवाल, अलीगढ़ की हैं और काफी सुन्दर, सुशील एवं हँसमुख हैं। भाई साहब की शादी में मैं बहुत खुश था और देर तक नाचता रहा था। नाचते हुए मैंने अपने फोटू भी खिंचाये थे जो आज भी सुरक्षित हैं।

यहाँ एक मजेदार घटना का उल्लेख करना आवश्यक समझता हूँ। जिस दिन हमारी भाभी जी पहली बार विदा होकर हमारे घर आयी थीं, उसी दिन की बात है। उन्हें आये हुए मुश्किल से दो घंटे हुए होंगे कि भाभीजी ने रोना शुरू कर दिया। पता चलते ही सब लोग घबरा गये कि जाने क्या बात हो गयी। सारी औरतें उन्हें चुप कराने में जुट गयीं और बार-बार पूछने लगीं ‘क्या बात है? क्यों रो रही हो?’ करीब घंटे भर रोने के बाद भाभीजी ने बताया कि ‘मम्मी की याद आ रही है।’ यह सुनते ही सब जोर से हँस पड़े। मेरा ठहाका सबसे ऊँचा था। मैंने मजाक में कहा- ‘भाभी जी, मम्मी को अपने साथ ही ले आतीं। यह सुनकर सब लोग तो हँसने लगे और भाभी जी मुझसे कुछ नाराज हो गयीं। करीब दो तीन दिन बाद उनकी नाराजी दूर हुई।

(पादटीप : अब हमारी इन भाभीजी का देहांत हो चुका है और भाई साहब अवकाश प्राप्त करके आगरा में ही रह रहे हैं.)

उन दिनों हम नयाबाँस लोहामण्डी में ही मकान नम्बर 25/199 में रहा करते थे। यह घर हमारे पहले के घरों से कुछ अच्छा था और कई अन्य किरायेदार भी रहते थे। जिनके साथ हमारी पर्याप्त घनिष्टता थी। उनमें से प्रमुख थे श्री श्रीनिवास जी गोयल, जो हमारे दूर के रिश्ते से मामा जी लगते हैं। वे बीड़ी-सिगरेट के थोक व्यापारी हैं। हम सब उन्हें बीड़ी वाले मामाजी ही कहते हैं। हम दोनों के बीच प्रायः ताश और अठारह गोटी की बाजियाँ हुआ करती थी। ताश के खेल में कभी कभी मैं बुरी तरह हार जाता था, लेकिन ज्यादातर उन्हें हरा दिया करता था। परन्तु अठारह गोटी के खेल में मैं उनसे पूरी जिन्दगी में केवल एक बार हारा था। वह भी तब जब मैं सोकर उठा था और शुरू में कई चालें लापरवाही से चल गया था। लेकिन उसी दिन मैंने उन्हें दो बार हराकर अपनी एक मात्र हार का बदला ले लिया था। आज भी जब कभी मैं बीड़ी वाले मामा जी से मिलता हूँ तो पुराने दिनों की याद हरी हो जाती है। मामा जी प्रायः मुझे ‘अपनी भाभी का चमचा’ कहकर मजाक किया करते थे।

बी.एससी. उत्तीर्ण करने के बाद मैंने श्री सक्सेना साहब की प्रेरणा से एम.स्टेट में प्रवेश लेना तय किया। यह बड़े साहस की बात थी, क्योंकि उस समय छात्रों पर एम.स्टेट का आतंक सा छाया हुआ था और सामान्यतया लड़के एम.स्टेट. की बजाय आगरा कालेज से सांख्यिकी में एम.एससी. करना पसन्द करते थे और ज्यादातर सांख्यिकी के बजाय गणित में एम.एससी. कर लिया करते थे। मेरे बी.एससी. के समस्त सहपाठियों में केवल कु. कल्पना कपूर और अरुण पाल दानी ने मेरे साथ एम.स्टेट. में एडमीशन लिया था और बाकी सब इधर-उधर बिखर गये थे। आजकल वे सब लोग कहाँ है, मुझे कुछ भी पता नहीं है। कभी-कभी भूले भटके कोई मिल जाता है, तो सबके बारे में जानकारी लेने की कोशिश करता हूँ, लेकिन वह स्वयं भी उसी अंधकार में भटक रहा होता है, जिसमें मैं भटक रहा हूँ।

यह दुनिया एक ऐसा महासागर है जिसमें असंख्य बूँदे अपना अस्तित्व खो देती हैं। उनमें से बहुत कम ही हैं जो ‘मोती’ के रूप में अपनी पहचान बना पाती हैं। अन्यथा बूँद का स्वयं का कोई अलग अस्तित्व नहीं होता। इस जिन्दगी की उपमा विद्वानों एक यात्रा की तरह दी है, जिसमें असंख्य सहयात्री अलग-अलग स्थानों पर मिला करते हैं और कुछ दूर तक साथ देकर पुनः दुनिया की भीड़ में गुम हो जाते हैं। किसी ने कहा है –
जीवन के सफर में राही मिलते हैं बिछुड़ जाने को।
और दे जाते हैं यादें तन्हाई में तड़पाने को।।

जब कभी मैं अपने उन भूले बिसरे साथियों को याद करने बैठता हूँ तो दिल में एक गहरी उदासी छा जाती है। कितनी इच्छा होती है कि काश मेरे वे क्षण कुछ समय के लिए फिर मिल जायें, लेकिन क्या यह सम्भव है? शायद कभी नहीं।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

8 thoughts on “आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 17)

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , बहुत आनंद आ रहा है लेकिन अब आप किओंकि आगे जा रहे हैं इस लिए कथा और भी धियान से पडूंगा . आप को बताना चाहूँगा कि ऐक्नौमिक्स मैं भी पडी थी . हमारे ऐक्नौमिक्स के प्रोफैसर थे मिस्टर कुमार और वोह बहुत हंसाते थे . अब तो सब कुछ भूल गिया है लेकिन कुछ चैप्टर मुझे अभी भी याद हैं जैसे पापूलेशन थिऊरी जिस में कुमार साहब के वोह लफ्ज़ अभी तक याद हैं जिस में दुनीआं की पापुलेशन के बारे में बताया था , this table of nature is for limited numbers of guests and those who come uninvited will starve . वोह अक्सर कहा करते थे कि हमें बैन्हैम की ऐक्नौमिक्स की किताब पड़नी चाहिए . या producer and consumar

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, भाई साहब ! इकोनोमिक्स यानि अर्थशास्त्र एक रोचक विषय है.

  • अंशु प्रधान

    “बूँद का स्वयं का कोई अलग अस्तित्व नहीं होता !”

    वाकई गहरी बात है सर, बूँद का तो अस्तित्व, शायद विलीन हो जाने में ही है।

    • विजय कुमार सिंघल

      सही कहा अंशू जी. बूँद की सार्थकता समुद्र में समाने में ही है. इसी तरह आत्मा को परमात्मा में विलीन हो जाना चाहिए. इसी को मोक्ष कहा जाता है.

  • Man Mohan Kumar Arya

    लेख एक मनोरंजक चलचित्र की भांति पढ़ गया। पढ़कर आनंद का अनुभव किया। लेख मैं जीवन की दिलचस्प घटनाओं के विवरण देने के लिए बधाई।

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार, मन मोहन जी.

  • यह दुनिया एक ऐसा महासागर है जिसमें असंख्य बूँदे अपना अस्तित्व खो देती हैं। उनमें से बहुत कम ही हैं जो ‘मोती’ के रूप में अपनी पहचान बना पाती हैं। अन्यथा बूँद का स्वयं का कोई अलग अस्तित्व नहीं होता।…………..very nice line …………padh rahaa hun …………..

    • विजय कुमार सिंघल

      बहुत बहुत धन्यवाद, किशोर जी.

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