उपन्यास अंश

आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 21)

अध्याय-8: मेरे हमदम मेरे दोस्त

दिल अभी पूरी तरह टूटा नहीं।
दोस्तों की मेहरबानी चाहिए।।

मैं उन लोगों को अत्यधिक सौभाग्यशाली मानता हूँ, जिन्हें सच्चे मित्र प्राप्त होते हैं। यद्यपि मैं भाग्य वगैरह में विश्वास नहीं करता। मेरा यह मानना है कि आज का पुरुषार्थ ही कल का प्रारब्ध है। फिर भी कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं जिनकी कोई संतोषजनक व्याख्या हम नहीं कर सकते। सच्चे मित्र का मिलना या न मिलना भी इसी तरह की एक घटना है। इसका अर्थ यह नहीं कि सच्चे मित्र की प्राप्ति में अपना कोई हाथ नहीं होता। अवश्य ही हम उसमें एक महत्वपूर्ण भाग अदा करते हैं, क्योंकि बहुत से लोग यह मानते हैं कि मित्र बनाना भी एक कला है और जो लोग इस कला में निपुण होते हैं, उन्हें सच्चे मित्र मिल भी जाते हैं।

लेकिन मैं यह नहीं मानता। मेरा विचार यह है कि यदि हम मित्र बनाने की कला अर्थात् दूसरों को प्रभावित करने की कला में पारंगत हैं तो हमें भले ही तात्कालिक मित्र बड़ी मात्रा में मिल जायें, लेकिन सच्चे मित्र मिलना फिर भी मुश्किल है। सच्चे मित्र मिलना केवल संयोग की बात नहीं बल्कि इसमें दैवीय हाथ भी होता है। इसे आप भाग्य कह सकते हैं। कई बार ऐसा देखा गया है कि कोई व्यक्ति भले ही दूसरों को प्रभावित करने की कला में कच्चा हो लेकिन उसके भी कुछ सच्चे मित्र होते हैं, वरना ज्यादातर लोग (दोस्त) मित्र स्वार्थी होते हैं। उनकी मित्रता केवल तभी तक रहती है जब तक उनका कोई उद्देश्य सिद्ध होता हो। यदि उनका मतलब पूरा हो गया है, तो उनकी मित्रता की अवधि भी पूर्ण हो जाती है। ऐसे मित्र संकट के समय अवश्य साथ छोड़ जाते हैं। किसी ने कहा है-

बन जाते हैं सैकड़ों दोस्त जो जर पास होता है।
टूट जाता है गरीबी में जो रिश्ता खास होता है।।

आदमी एक सामाजिक जानवर है। समाज में होने वाली घटनाओं का व्यक्ति के ऊपर प्रभाव पड़ना अनिवार्य है। इसलिए किसी भी व्यक्ति की जिन्दगी में सुख और दुःख आते ही रहते हैं। सुख के समय सैकड़ों लोग परिचित-अपरिचित खुशियाँ बाँटने के लिए आ जाते हैं। लेकिन सच्चे दोस्त वही होते हैं जो सुख या दुःख दोनों अवस्थाओं में साथ बने रहते हैं। संकट का समय ही वह समय होता है जब हम स्वयं को और अपने मित्रों को भी परख सकते हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है-

धीरज, धर्म, मित्र अरु नारी। आपत काल परखिये चारी ।।

कविवर रहीमदास जी ने यही बात और सुन्दर शब्दों में कही है-

रहिमन विपदा हू भली जो थोरे दिन होय ।
हित-अनहित या जगत में जान परत सब कोय।।

मैं इस मामले में स्वयं को सौभाग्यशाली मानता हूँ। मुझसे यद्यपि तथाकथित मित्र ईर्ष्या के कारण दुश्मनी सी मानते थे, लेकिन मेरे दोस्तों में अधिकतम संख्या उन लोगों की है, जिन्होंने मुझे भरपूर प्यार दिया, सुख में मुझे घमंडी न होने दिया, दुःख में मेरे साथ सहानुभूति जताई और संकट के समय यथाशक्ति सहायता दी और हौसला बढ़ाया। आज मैं जो कुछ हूँ उसमें एक बड़ा हाथ मेरे दोस्तों का भी है, जिन्होंने कभी मुझे यह महसूस नहीं करने दिया कि मैं इस दुनिया में अभिशप्त जिन्दगी जी रहा हूँ या अकेला हूँ। आज जब मैं अपने सभी मित्रों को स्मरण करने बैठा हूँ तो सैकड़ों नाम मेरी स्मृति में आ-जा रहे हैं। मगर अफसोस, उनमें से अधिकतर आज मुझसे दूर हैं और ज्यादातर के बारे में मुझे यह भी पता नहीं कि आजकल वे कहाँ हैं। हो सकता है कि बहुतों के मैं नाम भी भूल गया होऊँ।

शुरू से ही शुरू करूँ, तो मेरी स्मृति में ऐसे कई चेहरे आते हैं, जिनके साथ मैं प्राइमरी स्कूल में पढ़ा करता था। उनमें ज्यादातर के नाम भी मैं भूल गया हूँ। सिर्फ एक नाम मुझे याद है – राम प्रसाद। वह हमारे गाँव का ही जाटव जाति का लड़का था। यह जाति हरिजनों में गिनी जाती है। लेकिन हमारी मित्रता पर जातिभेद का कोई प्रभाव नहीं था। यद्यपि हम एक दूसरे के घर नहीं आते जाते थे, परन्तु कक्षा में हम सदा साथ रहते थे। मैं पढ़ने में तेज था, लेकिन अन्य मामलों में बहुत लापरवाह था। बहुत बार मैं कलम, स्याही या खड़िया भूल जाता था। ऐसे समय में रामप्रसाद ही मेरे काम आता था। उसका हस्तलेख कक्षा में सबसे अच्छा था, जबकि मेरा हस्तलेख इसके ठीक विपरीत था। उसका स्वभाव भी बहुत अच्छा था। हमारी मित्रता कक्षा 5 तक चली। वह यद्यपि पढ़ने में बहुत होशियार नहीं था, फिर भी पास होने लायक अंक ले आता था। कक्षा 5 पास करने के बाद वह पढ़ने से बैठ गया था, जैसा कि प्रायः सभी गरीब छात्रों को करना पड़ता है। बाद में वह गाँव में ही मजदूरी करने लगा था और आजकल भी यही कार्य करता है। गाँव जाने पर कभी-कभी उससे मुलाकात होती है। लेकिन हम उस तरह मिलजुल नहीं पाते, जिसे अंग्रेजी में थ्तंदा कहा जाता है। हमारी सामाजिक स्थितियों का अन्तर ही इसका कारण है।

प्राइमरी में मेरे तीन मित्र और थे- निहाल सिंह, देवेन्द्र सिंह और रमेश चन्द्र। निहाल सिंह और रमेश चन्द्र किसानों के लड़के थे और देवेन्द्र सिंह एक वैद्य जी का। हम चारों तथा एक दो अन्य लड़कों को मिला कर कक्षा का वह समूह बनता था, जिसे अंग्रेजी में Front Benchers अर्थात् आगे की सीटों पर बैठने वाले कहा जाता है। हमारा समूह पढ़ने में तथा सांस्कृतिक गतिविधियों में सबसे आगे रहता था। हम प्रायः स्कूल से एक साथ ही खेतों की तरफ घूमने जाया करते थे, जब कक्षा में कोई खास काम नहीं होता था। मेरी तरह देवेन्द्र सिंह भी पढ़ने में काफी तेज था और हम दोनों प्रायः बराबर कद काठी के थे। हमारी मित्रता आदर्श मानी जाती थी। केवल एक बार हम दोनों में गंभीर रूप से झगड़ा हुआ। बात शायद मामूली थी। लेकिन तीन-चार दिन तक हम एक दूसरे से खिंचे खिंचे रहे। फिर हमारे सम्बन्ध शीघ्र ही पहले जैसे हो गये। मगर मुझे दुःख है कि जूनियर हाईस्कूल में पहुँचने पर कुछ अन्य व्यक्तियों के कारण इन तीनों और मेरे बीच में कुछ गलतफहमी हो गयी और हमारे संबन्ध उस श्रेणी के नहीं रह गये। यद्यपि व्यक्तिगत रूप में हमारे बीच में कोई समस्या नहीं थी।

जूनियर हाईस्कूल में पहुँचने पर मेरे कुछ अन्य नये मित्र बने जो दूसरे गाँवों के थे, क्योंकि उस स्कूल में तीन गाँवों के छात्र पढ़ने आया करते थे। मुझे कुछ के नाम याद है – महेश चन्द्र अग्रवाल, राजेन्द्र प्रसाद गुप्ता, धर्मवीर सिंह, निन्नू राम आदि। इनमें से पहले दो पास के गाँव गोठा के सेठों के लड़के थे, तीसरे धर्मवीर सिंह उसी गाँव के एक जमींदार श्री हुब्ब लाल के सुपुत्र थे और निन्नूराम नगला विधी के एक जाटव परिवार के होनहार उत्तराधिकारी थे। निन्नूराम पढ़ने में बहुत तेज था और मेरे साथ उसकी नियमित होड़ चलती रहती थी, जिसमें प्रायः मैं जीत जाता था। लेकिन उसका स्वभाव बहुत अच्छा था, जबकि मेरा स्वभाव बस ऐसा ही था। स्वाभाविक रूप से सारे अध्यापक उसे बहुत पसंद करते थे। पहले हम काफी अच्छे दोस्त थे। आगे भी हमारे बीच कोई झगड़ा नहीं हुआ, लेकिन कुछ ईष्र्यालु लोगों द्वारा पैदा की गयी गलतफहमी से वह भी मुझसे कटा-कटा रहने लगा था। फिर भी मुझे खुशी है कि हम दोनों ही कक्षा 8 की बोर्ड की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुये थे। मेरे अंक उससे दो-चार ही ज्यादा थे। लेकिन गरीबी उसके भविष्य में बाधक बन गयी। उसने शायद पाॅलीटेक्निक में डिप्लोमा किया था और आजकल कहीं नौकरी पर है।

महेश चन्द्र अग्रवाल और राजेन्द्र सिंह सदा मेरे अच्छे दोस्त रहे वे दोनों पास के गाँव गोठा के रहने वाले थे। दोनों पढ़ने में औसत ही थे, लेकिन पास हो जाते थे। मैं पढ़ाई में उनकी मदद किया करता था और बदले में वे भी तरह-तरह से मेरी मदद किया करते थे। उनकी वजह से कक्षा में मुझे कभी अकेलापन महसूस नहीं होता था। आजकल वे अपने गाँव में ही शायद व्यापार किया करते हैं। वे कक्षा 8 से आगे शायद नहीं पढ़ सके।

उसी गाँव के धर्मवीर सिंह के साथ मेरे सम्बन्ध विचित्र प्रकार के थे। कभी तो हमारे सम्बन्ध इतने मधुर रहते थे कि दूसरों की ईर्ष्या के पात्र बनते थे और कभी इतने कटु हो जाते थे कि मारपीट तक की नौबत आ जाती थी। इसका कारण हम दोनों का ही अपना-अपना स्वभाव था वह एक बहुत ही धनी किसान के दो लड़कों और आठ लड़कियों में सबसे छोटा था और मैं अपेक्षाकृत एक मामूली दुकानदार का चार लड़कों और दो लड़कियों में सबसे छोटा लड़का था। वह पढ़ने में उतना तेज नहीं था, परन्तु अपनी सम्पन्नता और कुलीनता पर गर्व करता था। मैं उतना सम्पन्न न होते हुए भी अपनी प्रतिभा पर गर्वित था और काफी स्वाभिमानी था। दो परस्पर विरोधी व्यक्तित्वों के टकराव ने ही हमारे सम्बन्ध विचित्र प्रकार के बना दिये थे।

मारपीट में प्रायः मैं ही हार जाता था फिर भी मैं मन से कभी नहीं हारता था। मेरे दूसरे दोस्त और उसके भी दोस्त मिलकर बार-बार हमारा मेल करा देते थे। लेकिन शीघ्र ही कोई न कोई ऐसी घटना हो जाती थी कि हमारा फिर झगड़ा हो जाता था और बोलचाल तक बन्द हो जाती थी।

लेकिन यह भी सत्य है कि हम दोनों मन से एक दूसरे को काफी चाहते थे। वह काफी सुन्दर लगता था जबकि मैं अपने बाहर निकले दाँतों की बजह से अच्छा दिखायी नहीं पड़ता था। फिर भी मैं अपनी प्रतिभा के बल पर अध्यापकों और छात्रों में समानरूप से लोकप्रिय था। इसी बात पर वह मुझसे ईर्ष्या रखता था जो कि स्वाभाविक भी है। इसका एक कारण और था। मैं उस स्कूल में पढ़ने वाली सभी लड़कियों में भी, जो मुझे भाई की तरह मानती थीं, काफी लोकप्रिय था। इनमें धर्मवीर की एक बड़ी बहन भी थी।

उसका नाम था ‘सत्यवती’। वह मुझसे एक कक्षा आगे पढ़ती थी, लेकिन मुझे बहुत प्यार करती थी। गाँव के नाते से उसके पिताजी मेरे बाबा लगते थे, इसलिए मैं उससे ‘बुआ’ कहकर बोलता था, इस हिसाब से मुझे धर्मवीर को ‘चाचा’ कहना चाहिए था, परन्तु नहीं कहता था। इस बात पर वह मुझसे बहुत नाराज होता था। शुरू के एक-दो वर्ष हमारे सम्बन्ध कटु रहे लेकिन कक्षा-8 में जाकर काफी सुधर गये थे। प्रायः हम एक दूसरे के घर भी जाने लगे थे और मुझे याद है कि एक दिन मैंने उसके घर खाना भी खाया था।

गाँव की पढ़ाई समाप्त करने के बाद हमारी मुलाकातें बहुत कम हो गयी थीं। सत्यवती बुआ हमें प्रायः आते-जाते गाँव के कुएँ पर मिल जाती थी, लेकिन शीघ्र ही उसकी शादी हो गयी थी। उसके बाद उसे देखना मेरे लिए सम्भव नहीं हुआ। लेकिन धर्मवीर एक-दो बार और भी दिखायी पड़ा। अब उसकी शादी भी हो चुकी है शायद दो-तीन बच्चे भी हैं।

हाईस्कूल और इण्टर में पढ़ने आगरा आने के बाद गाँव के दोस्त पीछे छूट गये थे। लेकिन आगरा में भी नये दोस्त ज्यादा नहीं मिले। हम प्रारम्भ में जिस मुहल्ले में रहते थे – नयाबाँस, लोहामण्डी, आगरा – वहाँ मेरी दृष्टि में एक भी लड़का ऐसा नहीं था, जिससे मित्रता की जा सके। ज्यादातर लड़के आवारा घूमने, कंचा-गोली खेलने, गाली-गलौज करने तथा मारपीट करने वाले थे, जिनसे मेरी पटरी बैठना मुश्किल था। यों कंचा-गोली मैं भी खेलता था, मगर ज्यादा सम्बन्ध मेरा उनके साथ कभी नहीं रहा।

(जारी…)

 

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

7 thoughts on “आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 21)

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , सकूल के वोह दिन कितने अछे होते हैं , कभी भूल नहीं सकते . आप जैसे लेखक ने तो सब कुछ वर्णन कर दिया लेकिन बहुत लोगों को यह सुभाग्य प्राप्त नहीं होता . रही बात दोस्तों की तो यही कहूँगा कि इस में किस्मत का ही हाथ होता है . बहुत दफा ऐसा होता है कि सारी जिंदगी दोस्त दोस्ती निभाते हैं , आखिर में छोटी सी गलत फैमि के कारण बोल चाल बंद हो जाती है , मन को बहुत दुःख होता है लेकिन इस गलत फैह्मी की मुरम्त नहीं हो पाती . कुछ ऐसे भी होते हैं जो आख़री दम तक साथ देते हैं . कुछ दोस्त तो अभी तक ऐसे हैं कि उन्हें जब चाहूँ बुला लूँ , वोह दौड़े आएँगे , कुछ जो जिंदगी भर साथ देते रहे लेकिन उनकी अर्धन्ग्निओन ने ऐसा किया कि सब कुछ फीका हो गिया . जिंदगी एक जुआ ही है . आप की कहानी बहुत धियान से पड़ रहा हूँ .

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद भाईसाहब, आपने सही कहा है ग़लतफ़हमियों के कारण ही दोस्ती में दरार आती है वरना दोस्ती टूटने का कोई उचित कारण नहीं होता।

    • Man Mohan Kumar Arya

      जिंदगी एक जुआ है , यह किन्ही के लिए सत्य हो सकता है। परन्तु वेद , उपनिषद व दर्शन आदि ग्रंथों के अध्यन के आधार पर यही कहना होगा कि मनुष्य की जिंदगी कोई जुआ नहीं अपितु मोक्ष अर्थात सभी प्रकार के दुखों से छूटने का द्वार या रास्ता है। आप शायद सहमत न हो, अतः छमा प्रार्थी हूँ।

      • विजय कुमार सिंघल

        मैं जिंदगी को जुआ नहीं मानता बल्कि ईश्वर की बनायी हुई स्रष्टि की सेवा का एक अवसर मानता हूँ.

        • Man Mohan Kumar Arya

          जीवन का उद्देश्य ईश्वर की सृष्टि की सेवा एवं जीवन मोक्ष का द्वार है, यह दोनों परस्पर पूरक हैं। बिना सेवा के पुण्य अर्जित नहीं होते और मोक्ष का आधार भी मनुष्य के पुण्य कर्म ही हैं। आपका हार्दिक धन्यवाद।

  • मनमोहन कुमार आर्य

    जीवन मे अच्छे मित्रो का मिलना जीवन का एक प्रकार से श्रृंगार होना है। जिसके जीवन मे अच्छे मित्र व आचार्य न हों उनका जीवन श्रृंगार व विशेषताओं से रहित या न्यून होता है। वेदो मे ईश्वर को प्रत्येक जीवात्मा का अच्छा, सच्चा, श्रेष्ठ व आदर्श मित्र कहा गया है। यह भी कहा गया है कि हम सभी प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखें। इससे मनुष्य सबका प्रिय बन सकता है। ऐसा व्यक्ति अजातशत्रु बन जाता है। आपके मित्रों का वर्णन पढ़ते हुए अपने मित्रों वा उनके उपकारों की स्मृति भी अनायास हो आयी। जीवन वृतांत रोचक एवं उपयोगी है जो आपके जीवन की स्मृतियों के साथ हमें अपने अतीत की सैर भी कराता जा रहा है।

    • विजय कुमार सिंघल

      बहुत बहुत आभार, मनमोहन जी.
      आपका कहना सत्य है. ईश्वर का एक नाम ‘मित्र’ भी है. हमें स्वयं इस गुण को धारण करके उसकी पूजा करनी चाहिए. “शिवो भूत्वा शिवम् यजेत”

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