उपन्यास अंश

आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 22)

आगरा में अपनी कक्षा के ज्यादातर लड़कों से भी मेरे सम्बन्ध नाम मात्र के थे। उनकी निगाह में मैं गाँव का गँवार, जिसे नेकर तक बाँधना नहीं आता था, जबकि वे तथाकथित बड़े आदमियों की औलादें थीं। उस पर तुर्रा यह कि मैं जरूरत से ज्यादा स्वाभिमानी था और उनका बड़प्पन भी स्वीकार नहीं करता था। वे मेरी सादगी और सरलता से घृणा करते थे। जबकि मैं उनकी फैशनपरस्ती और हीरोपन का मजाक बनाता था। मुझे याद है कि कई लड़कों के बैल-बाॅटम (एक तरह की पतलून) को मैं ‘सलवार’ कहा करता था और उनकी टी-शर्ट को ‘कुर्ती’। ऐसी हालात में जो हो सकता था वही हुआ, यानी मैं उनमें से ज्यादातर से कटा-कटा ही रहा। यद्यपि गणित आदि विषयों में मैं सबसे आगे रहता था और उनकी ईर्ष्या का पात्र बनता था।

फिर भी कई ऐसे लड़के भी थे, जो काफी सहृदय थे और मेरे साथ मित्रता का बर्ताव करते थे। बहुत बार वे मेरी सहायता भी करते थे। उनमें से कई के नाम मुझे याद हैं- राघवेन्द्र सक्सेना, अशोक कुमार शर्मा, मुन्ना लाल, भीम सिंह, विनय मेहरा, प्रणवीर सिंह, राजेन्द्र गौतम, संजय, राकेश चतुर्वेदी, अनुपम कुमार आदि। बहुतों के नाम भी मैं भूल गया हूँ। इनमें से कई लोग बहुत विलक्षण थे।

विनय मेहरा परीक्षा में सदा अव्वल रहने वाला छात्र था। यों कक्षा में वह भौंदुओं की तरह बैठा रहता था। एक बार जब वह सबसे ज्यादा अंक लाकर कक्षा में प्रथम रहा तो, श्री के.डी. माहेश्वरी ने टिप्पणी की थी- ‘मैं तो समझता था कोई गधा बैठा है।’ यद्यपि वह परीक्षाओं में सबसे ज्यादा अंक ले आता था, लेकिन यह सिर्फ उसकी रटने की क्षमता का प्रमाण होता था। गणित की नयी समस्यायें हल करना उसके बूते के बाहर की बात थी। उसकी स्मरण शक्ति परीक्षा के दिनों में तेज हो जाती थी, लेकिन उसके बाद सब कुछ भूल जाता था। क्रिकेट खेलने में वह बहुत अच्छा था, और बाकी मामलों में सिफर अर्थात् शून्य। एक बार हमारी कक्षा 7 के लड़कों से अन्त्याक्षरी प्रतियोगिता हो गई, तो हमारी कक्षा के कई लड़के बोल रहे थे, मैं खुद 4-5 बार बोला, लेकिन वह उल्लुओं की तरह चुपचाप बैठा रहा।

लेकिन वह बहुत सीधा था और केवल इसी वजह से सब लोग उसे पसंद करते थे। मेरा वह बहुत अच्छा साथी था और हम प्रायः साथ-साथ बैठा करते थे। हाईस्कूल में वह 75 प्रतिशत से ज्यादा अंक लाकर सम्मान सहित उत्तीर्ण हुआ तथा इण्टर में भी ऐसा ही हुआ। उसके बाद वह शायद इंजीनियरिंग का कोर्स करने चला गया। आजकल कहीं इंजीनियर बन गया होगा।

मुन्ना लाल पढ़ने-लिखने में मामूली ही था, लेकिन खेलकूद विशेष कर दौड़ में पूरे काॅलेज में सबसे आगे रहता था। कई बार वह पुरस्कार जीत कर लाता था। वह हमारी कबड्डी टीम का कप्तान भी था और कई बार केवल अपने बल पर टीम को जिता लाता था। इण्टर करने के बाद वह भी मेरे साथ सेंट जाॅह्न्स काॅलेज में बी.एससी. करने आया, लेकिन बीच में ही कृषि में डिप्लोमा करने बिचपुरी चला गया था। उसके बाद उससे मुलाकात नहीं हुई। आजकल कहीं नौकरी से लगा होगा।

राजेन्द्र गौतम मेरे विज्ञान के प्रयोगों का साथी था। फक्कड़पन में कक्षा में सबसे आगे था अपने बालों में कभी कंघा नहीं करता था। वह मुझे बहुत प्यार करता था और काफी बातें भी करता था। लड़के प्रायः उसे ‘सूरदास’ कहकर चिढ़ाया करते थे।

इण्टर में भी हमारी कक्षा में ज्यादातर हाईस्कूल के ही साथी थे, लेकिन कई नये दोस्त भी मिले। उनमें से कई पिछली साल फेल होने वाले लड़के थे, उनमें से दो के नाम मुझे याद हैं – सादुल कुद्दूस और कृष्ण कुमार (राजेश) वशिष्ठ। सादुल कुद्दूस शहर के मुफ्ती का लड़का था अपने आप में मुस्लिम युवक का एक नमूना था। उसका उर्दू साहित्य का ज्ञान काफी अच्छा था। इन्टर में तो हमारे सम्बन्ध औपचारिक ही रहे, लेकिन वह हमारे साथ बी.एससी. में भी पढ़ने आया था, तब हम बहुत नजदीक आ गये थे। उसके माध्यम से मेरा उर्दू सम्बन्धी ज्ञान काफी विकसित हुआ। कई बार मेरी उससे बहस भी हो जाती थी, जो कटुता तक नहीं पहुंचती थी। आजकल वह शायद कुवैत में है।

वशिष्ठ का पूरा नाम मैं शायद भूल गया हूँ लेकिन वह ‘राजेश’ उपनाम से कहानियाँ लिखा करता था। शायद एकाध छप भी गयी थी। मेरी साहित्यिक रुचि उसे ज्ञात थी, क्योंकि मैं ऐसे मामलों में कक्षा में सबसे अव्वल माना जाता था। इसलिए वह अपनी लिखी हुई कहानियाँ केवल मुझे पढ़ने को दिया करता था। वह काफी अच्छी कहानियाँ लिखता था, मगर पढ़ने-लिखने में फिसड्डी था। वह बहुत अच्छा साहित्यकार बन सकता था (शायद बन भी गया हो) लेकिन गरीबी की मार ने उसे तोड़ कर रख दिया था। मुझे याद है कि एक बार वह तीन महीने तक अपनी फीस नहीं दे पाया था, जिसके कारण उसका नाम काट दिया गया था। तब कक्षा के लड़कों ने चन्दा करके उसकी छः महीने की फीस जमा की थी। आजकल वह कहाँ पर है मुझे ज्ञात नहीं।

इन दोनों के अलावा फेल होने वालों में तीसरा और था, उसका नाम भी मुझे याद नहीं। लेकिन वह गाना गाने में बहुत अच्छा था। नयी से नयी और पुरानी से पुरानी फिल्मों के प्रसिद्ध गाने उसे कंठस्थ थे और प्रायः कक्षा में सुनाया करता था। इन्टर पास करने के बाद मेरा इन सबसे सम्बन्ध बिल्कुल टूट गया था। केवल कुछ लड़के जो सेंट जाॅह्न्स काॅलेज में पढ़ने लगे थे मेरे साथ रहे। ज्यादातर आगरा कालेज में चले गये थे।

सेंट जाॅह्न्स काॅलेज में पूरा माहौल ही बदला हुआ था। बी.एससी. आदि कक्षाओं में आकर लड़के काफी परिपक्व हो जाते हैं। व्यक्तिगत झगड़े प्रायः समाप्त हो जाते हैं। यहाँ आकर मुझे काफी नये और अच्छे दोस्त मिले जिन्होंने न केवल मेरे स्वाभिमान को पहचाना बल्कि मेरी प्रतिभा को भी सम्मान दिया। उनमें से ज्यादातर के नाम मुझे अभी भी अच्छी तरह याद हैं- वत्सराज सिंह, रामेश्वर सिंह सोलंकी, श्यामबाबू उपाध्याय, राकेश गुप्ता, प्रशान्त कुमार सिंह, राजेन्द्र मदान (उर्फ छैलाबाबू), सोहराब साबिर, कृष्ण कुमार अग्रवाल, क्षेम वैभव शर्मा, अनिल कुमार जैन आदि। इनमें से कई सहपाठियों तथा सभी सहपाठिनियों का जिक्र मैं अध्याय छः में कर चुका हूँ यहाँ अन्य सहपाठियों को स्मरण करूँगा।

राकेश गुप्ता, राजेन्द्र मदान, सोहराब साबिर, कक्कड़, अलीम खाँ, अजमल अली शाह, सन्देह सिंह त्रिपाठी, क्षेम वैभव शर्मा, के.के. अग्रवाल ये सब मेरे अर्थशास्त्र विषय के सहपाठी थे। इनमें से तीन बी.ए. के थे और बाकी मेरे साथ ही बी.एससी. के। हम बी.एससी. में अर्थशास्त्र वालों ने मिलकर एक समूह बना लिया था और आपस में काफी अच्छी अण्डरस्टैन्डिंग (understanding) थी। मुझे याद नहीं आता, यदि हममें आपस में कभी किसी किस्म का झगड़ा हुआ हो। यों हममें बहस बहुत होती थी, लेकिन उसका स्वरूप हंसी मजाक तक ही सीमित रहता था। खाली समय में हम प्रायः पास के होटलों में जाकर चाय पिया करते थे और गप्पें हांका करते थे। एक दूसरे के घर भी आना-जाना लगा रहता था। मगर मुझे अफसोस है कि इनमें से अधिकतर के बारे में मुझे आज कोई जानकारी नहीं है कि ये कहाँ पर हैं। लेकिन एक बार मुझे संयोग से राजेन्द्र प्रसाद मदान मिला था, उससे ज्ञात हुआ कि वह इलाहाबाद बैंक, सतना में कैशियर है।

(पादटीप : श्री राजेंद्र प्रसाद मदान मेरी अंतिम जानकारी तक आगरा में इलाहाबाद बैंक में ही अधिकारी हो गए थे. मेरी उनसे कई बार भेंट हुई थी.)

केवल सोहराब साबिर के साथ मेरे घनिष्ट सम्बन्ध आगे भी चलते रहे। वह मेरा बहुत अच्छा मित्र साबित हुआ। उसके पिताजी काफी पहले ही गुजर गये थे, अतः माताजी ने ही उसका पालन पोषण किया था। उसकी एक विवाहित बहिन है, जो आगरा में रहती है। दुःख सिर्फ इस बात का है कि उसमें ज्यादा प्रतिभा नहीं थी और वह कई वर्षों के प्रयत्नों के बाद ही बी.एससी. कर सका। मेरी मदद की सारी कोशिशें बेकार हो गयीं। जहाँ तक मुझे जानकारी है अभी भी वह अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो सका है।

(पादटीप : श्री सोहराब साबिर आजकल रेलवे में स्टेशन मास्टर हैं. उनसे बहुत दिनों बाद मेरी भेंट हुई थी. आजकल आगरा में ही हैं.)

अलीम खाँ और अजमल अली शाह मेरे बी.ए. के अर्थशास्त्र के सहपाठियों में से थे। उनके साथ मेरी बहुत घनिष्टता हो गयी थी। मैं उर्दू शायरी का शौकीन रहा हूँ। ये दोनों, विशेष कर अजमल अली शाह, मुझे उर्दू के शेर बताया करते थे जिन्हें मैं काफी पसन्द करता था और अपनी डायरी में लिख लेता था। अलीम खाँ के साथ प्यार की एक बहुत बड़ी दुर्घटना हो गयी थी। एक लड़की ने उसे धोखा दे दिया था। उस सदमे से वह 3-4 माह बीमार रहा था, लेकिन बाद में समय ने सारे घावों को भर दिया। मैं उसके इस प्यार का राजदार था। उसने एक-एक बात मुझे बतायी भी और प्रायः मैं अपनी समझ के अनुसार उसे सलाह दिया करता था। मैं दिल से चाहता था कि उसकी शादी उसकी महबूबा से हो जाय, लेकिन ‘मेरे मन कछु और है, कर्ता के कछु और’। आज इन दोनों के बारे में ही मुझे कुछ पता नहीं है।

जिन दिनों मैं इन्टर में पढ़ने लगा था, उन्हीं दिनों मेरी रुचि पत्र-मित्रता की तरफ हो गयी थी। मेरा विचार था कि आमने सामने के बजाय पत्रों के माध्यम से हम एक दूसरे को ज्यादा अच्छी तरह समझ सकते हैं और आपस में झगड़ा होने का भी खतरा नहीं है। अतः मैं स्वाभाविकतः ही पत्र-मित्रता की तरफ झुक गया। मैंने लखनऊ से प्रकाशित होने वाले अंग्रेजी दैनिक ‘नेशनल हैराल्ड’ के पत्र-मित्र स्तम्भ में अपना पता तीन बार छपवाया था जिसमें से एक बार वह गलत छपा था। इसके जबाव में मुझे बीसों पत्र मिले। कई गुमनाम पत्र भी मिलते थे जिन्हें मैं तुरन्त फाड़ कर फेंक दिया करता था। लेकिन मैंने यह नियम बना लिया था कि अपने पास अपने वाले पत्रों का जबाब मैं अवश्य दूँगा। इस प्रण को मैंने पूरी तरह निभाया और आज भी निभाने की कोशिश करता हूँ।

अपने समय का एक बड़ा हिस्सा मैं पत्र लिखने पर खर्च किया करता था। उसके कारण मुझे घर वालों के कोप का पात्र भी बनना पड़ता था। उन तंगी के दिनों में डाक खर्च के लिए पैसों की मुश्किल तो थी ही, फिर भी मैं किसी तरह उसका प्रबन्ध कर लेता था, ज्यादातर जेब खर्च काटकर। मुझे बाजार में खाने पीने पर पैसा उड़ाने की आदत कभी रही नहीं, अतः जो सीमित जेब खर्च मिलता था, उसमें से अन्तर्देशीय या लिफाफों के लिए पैसे बचाने में मुझे कोई कठिनाई नहीं होती थी।

(जारी…)

 

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

3 thoughts on “आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 22)

  • Man Mohan Kumar Arya

    आपका जीवन प्रवाह एक नदी की भांति आगे बढ़ता हुआ दीख रहा है। अंतर केवल इतना है कि नदी का प्रवाह ऊपर से नीचे की ओर बहता है और आपका जीवन प्रवाह नीचे से ऊपर की ओर प्रवाहित हो रहा है। आत्मकथा पढ़कर आपके बारे में ज्ञानवृद्धि हो रही है। आगामी किश्त का रहस्य बना हुआ है।

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार, मनमोहन जी. आत्म कथा में अभी बहुत कुछ है. पढ़ते जाइये.

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