सामाजिक

स्वामी दयानंद के पुरुषार्थ पर विचार 

पुरुषार्थ की परिभाषा 
जो अप्राप्त वस्तु की इच्छा करनी, प्राप्त का अच्छे प्रकार रक्षण करना, रक्षित को बढ़ाना और बढ़े हुए पदार्थों का सत्यविद्या की उन्नति में तथा सब के हित करने में खर्च करना है इन चार प्रकार के कर्मों को ‘पुरुषार्थ’ कहते है।- आर्यउद्देश्यरत्नमाला
पुरुषार्थ के फल
चार प्रकार के पुरुषार्थ से धन धान्य आदि को बढ़ा के सुख को सदा बढ़ाते जाओ।- ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका वेदोक्त धर्म विषय
पुरुषार्थ बड़ा या प्रारब्ध(भाग्य)?
पुरुषार्थ प्रारब्ध से बड़ा इसलिए है कि जिससे संचित प्रारब्ध बनते, जिसके सुधरने से सब सुधरते और जिसके बिगड़ने से सब बिगड़ते है, इसी से प्रारब्ध की अपेक्षा ‘पुरुषार्थ’ बड़ा है।- स्वमन्तव्यामंतव्य
ईश्वर पुरुषार्थ करने वाले का सहायक है आलसी का नहीं है 
मनुष्य को यह करना उचित है कि ईश्वर ने मनुष्यों में जितना सामर्थ्य रखा है, उतना पुरुषार्थ अवश्य करें। उसके उपरांत ईश्वर के सहाय की इच्छा करनी चाहिए। क्यूंकि मनुष्यों में सामर्थ्य रखने का ईश्वर का यही प्रयोजन है कि मनुष्यों को अपने पुरुषार्थ से ही सत्य का आचरण अवश्य करना चाहिए। जैसे कोई मनुष्य आँख वाले पुरुष को ही किसी चीज को दिखला सकता है, अंधे को नहीं, इसी रीती से जो मनुष्य सत्यभाव, पुरुषार्थ से धर्म को किया चाहता है उस पर ईश्वर भी कृपा करता है, अन्य पर नहीं। क्यूंकि ईश्वर ने धर्म करने के लिए बुद्धि आदि बढ़ने के साधन जीव के साथ रखे हैं। जब जीव उनसे पूर्ण पुरुषार्थ करता हैं, तब परमेश्वर भी अपने सब सामर्थ्य से उस पर कृपा करता है, अन्य पर नहीं।
सन्दर्भ- दयानंद सिद्धांत भास्कर, लेखक- कृष्णचन्द्र विरमानी, प्रकाशक- घुडमल ट्रस्ट

One thought on “स्वामी दयानंद के पुरुषार्थ पर विचार 

  • Man Mohan Kumar Arya

    प्रशंसनीय एवं सराहनीय। लेखक को हार्दिक बधाई।

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