उपन्यास अंश

आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 39)

अध्याय-12 : बदलते रास्ते

जो था मेरा हाले दिल वो बयां हुआ जुबां से।
जो कहेंगे अश्के-रंगी वो अलग है दास्तां।।

गाड़ी प्रातः 9 बजे लखनऊ के प्लेटफार्म पर आकर खड़ी हो गयी। उस दिन 26 मई थी। रास्ते भर मैं एक मिनट भी लेटा नहीं था। बैठा ही रहा था। नींद मुझे बुरी तरह सता रही थी। लेकिन इसके बारे में चिन्ता करने का समय नहीं था। मुझे जल्दी से जल्दी जाकर एच.ए.एल. में उपस्थित होना था। सबसे पहले मैं अपने एक मित्र श्री दिवाकर खरे के भाई श्री प्रभाकर खरे के घर गया। वे उस समय लखनऊ में एक बैंक में नौकरी करते थे और राजेन्द्र नगर में रहते थे। उनके घर का पता मैंने आगरा में ही ले लिया था। घर ढूँढने में कोई मुश्किल नहीं हुई और मैं उनके पास आराम से पहुँच गया।

उनसे मिलकर ही मेरी आधी थकावट खत्म हो गयी। वहाँ पहले मैं नहाया, फिर कुछ नाश्ता किया और ठीक 11 बजे एच.ए.एल. के लिए चल पड़ा। वहाँ मैं लगभग 12 बजे पहुँचा। वहाँ मुझे जिन सज्जन से मिलाया गया वे थे श्री अशोक कुमार त्रिपाठी। वे बहुत सहृदय और हँसमुख हैं। उनसे मिलकर मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने सोचा भी नहीं था कि एच.ए.एल. जैसी एकदम अनजानी जगह पर मुझे श्री त्रिपाठी जैसे सज्जन व्यक्ति का सहयोग मिल जायेगा। उन्होंने मुझे पूरी सहायता करने का आश्वासन दिया और उसे पूरा भी किया। उस दिन उन्होंने मुझे अपने साथ कैंटीन में ले जाकर खाना भी खिलाया। मैं वास्तव में भूखा था। खाना खाकर मैं तृप्त हुआ और औपचारिकताएं पूरी करने के लिए तैयार हो गया।

सबसे पहले मुझे एक बहुत बड़ी बाधा पार करनी थी, उसका नाम था – मेडिकल सेंटर। वहाँ जिन ‘सज्जन’ के पास मुझे भेजा गया, वे बहुत कर्तव्यनिष्ठ थे। उनका कर्तव्य था – नये आने वालों को अधिक से अधिक परेशान करना। अपने इस कर्तव्य का उन्होंने बखूबी निर्वाह किया। सबसे पहले मुझे विवेकानन्द पाॅलीक्लीनिक जाकर अपना एक्सरे तथा खून जाँच कराना था। उसी दिन मैं वहाँ गया और कुछ भाग दौड़ के बाद दोनों कार्य कराये। उनकी रिपोर्ट अगले दिन आनी थी।

दूसरे दिन रिपोर्ट लेने के लिए भी मुझे भाग दौड़ करनी पड़ी। सबसे पहले मेडीकल जाकर एक पत्र लाया कि रिपोर्ट इसे दी जा सकती है। यह एक अजीब बात थी क्योंकि एक्सरे मेरा था, पैसे मेरे थे, लेकिन रिपोर्ट लेने की अनुमति मुझे एच.ए.एल. से लेनी पड़ी। खैर शाम को तीन बजे तक मुझे दोनों रिपोर्ट मिल गयीं। इस बीच मुझे जो और जितना इन्तजार करना पड़ा, उसका हिसाब लगाना असंभव है, क्योंकि वास्तविक काम केवल दो मिनट का था।

दोनों रिपोर्ट लेकर मैं तुरन्त एच.ए.एल. के मेडीकल सेंटर पहुँचा। उस समय 4 बजे हुए थे। मेरा विचार था कि मेडीकल जाँच की औपचारिकतायें 10-15 मिनट से ज्यादा समय नहीं लगेगा और आज यह काम पूरा कराके मैं सोमवार को एच.ए.एल. ज्वाइन कर लूँगा। मैं कितना मूर्ख था, यह मुझे तुरन्त मालूम हो गया। मेडीकल में मुझसे कहा गया कि ‘आज तो समय गया, मंडे (अर्थात सोमवार) को आइयेगा।’ निराश होकर मैं चल पड़ा।

उस दिन मैं घर जाकर खूब आराम से सोया और अमीनाबाद आदि में घूमा फिरा। सोमवार को मुझे 8 बजे आने को कहा गया था, जिसका उनकी भाषा में अर्थ था 10 बजे। लेकिन मैं इतना समझदार नहीं था, अतः पौने आठ बजे ही दर पर हाजिर हो गया। उन्होंने पहले तो मेरी मूर्खता पर तरस खाया फिर बैठने को कह दिया। पहली बार उन्हें मेरी याद आयी 10 बजे। यद्यपि इससे पहले मैं दो-तीन बार याद दिलाने की नाकाम कोशिश कर चुका था। 10 बजे मुझे जिन सज्जन के हाथ सौंपा गया, उन्होंने मेरी ऊँचाई नापी और वजन लिया। इस सब में लगे केवल दो मिनट। अब मुझे फिर इन्तजार करना था। मेरे एक टीका भी लगाया गया, जाने किस बात का।

अगली बार उन्होंने साढ़े ग्यारह बजे मेरी सुध ली। खींचकर मुझे एक तख्ते से दूर खड़ा कर दिया गया। तख्ते पर कुछ अक्षर लिखे हुए थे। मेरी दोनों आँखें बारी-बारी से बन्द करके एक ही आँख से वे अक्षर पढ़वाये गये। मैंने इसकी कल्पना नहीं की थी और मेरी आंखें भी कुछ कमजोर हो गयी थी। अतः मैं सारे अक्षर नहीं पढ़ पाया। तुरन्त ही उन्होंने मुझसे चश्मा लगवाने के लिए कह दिया।

अब चश्मा तो लगवाना ही था। खाना खाकर सबसे पहले मैं प्रभाकर भाई साहब के पास बैंक गया और उनसे कहा कि चश्मा लगवाना है। उन्होंने मुझे केसरबाग का रास्ता बताकर एक रिक्शे में बैठा दिया। वहाँ कई चश्मों की दुकानें थीं। वहीं एक दुकानदार मैंने अपना चश्मा बनवाने का निश्चय किया। उन्होंने मेरी आँखांे जांच की और चश्मे का नम्बर निर्धारित किया। इस सब में मेरे पचास रुपये खर्च होने थे। तीस रुपये मैंने एडवांस दे दिये और शाम को चश्मा लेने आते समय बाकी रुपये देने का वायदा किया। शाम को मुझे करीब आधा घंटा उस दुकान पर बैठना पड़ा। वहीं दो तीन आदमियों से भी मेरा परिचय हुआ, जो यह जानकर बहुत आश्चर्यचकित हुए कि यह छोटे कद का दुबला-पतला सा छोकरा एच.ए.एल. में अफसर बन रहा है।

अगले दिन 31 तारीख, मंगलवार था, मैं चश्मा लेकर फिर हाजिर हो गया। अब मुझे विश्वास था कि मेडिकल मात्र औपचारिकता होगा और मैं आज नहीं तो कल पहली तारीख को ज्वाइन कर लूँगा। लेकिन मैं गलती पर था। सारी औपचारिकताएं पूरी होने के बाद भी वे मुझे क्लीयर नहीं कर रहे थे, क्योंकि उनका कर्तव्य अभी पूरा नहीं हुआ था। मुझे बताया गया कि डा. आनन्द, जो मुख्य चिकित्सा अधिकारी थे, मेरे केस का अध्ययन कर रहे हैं। ये शब्द सरकारी भाषा में केस लटकाये रखने के पर्यायवाची होते हैं। उन्होंने मुझसे दो दिन बाद आने को कहा।

अब मुझे क्रोध आना स्वाभाविक था। मैं अभी तक डा. आनन्द से मिला नहीं था। सारी बातें उनके पी.ए. के माध्यम से हो रही थीं, जिनके पास मुझे भेजा गया था। मैंने उनसे कहा कि मैं स्वयं डा. आनन्द से बात करूँगा। यह सुनकर उनका पी.ए. एक बार तो स्तब्ध रह गया। उसने शायद यह कल्पना नहीं की होगी कि इस दुबले, पतले, मरियल और पागल से दिखने वाले लड़के में इतनी हिम्मत हो सकती है। उसने मजबूरीवश कह दिया ‘कर लो।’ तत्काल ही मैं डा. आनन्द के कमरे में घुस गया। उन्हें अपना परिचय दिया और बताया कि मेरा मेडीकल रुका हुआ है। उन्होंने मुझसे कहा कि आप दो दिन बाद अर्थात् 2 तारीख को आयें। मैंने कहा- ठीक है, लेकिन क्या मैं जान सकता हूँ कि मेरे केस में क्या समस्या है। उन्होंने कहा- कुछ नहीं। केवल हम उसका अध्ययन कर रहे हैं। तब मैंने कहा- ‘ठीक है’ और धन्यवाद देकर मैं बाहर आ गया। हमारी सारी बातें अंग्रेजी में हुई थी।

वहाँ से मैं उस डिपार्टमेन्ट (कम्प्यूटर विभाग) में गया, जहाँ मेरी नियुक्ति होने वाली थी। वहाँ के मैनेजर श्री शैलेश्वर आचार्य और सीनियर मैनेजर श्री आर.के. तायल उस समय वहीं थे। उन्होंने गर्मजोशी से मेरा स्वागत किया और पूछा कि क्या मैंने ज्वाइन कर लिया है। मैं उन्हें नहीं पहचान पाया था, लेकिन उन्होंने मुझे तुरन्त पहचान लिया था और मुझे ‘मिस्टर सिंघल’ कहकर सम्बोधित किया था। मैंने उन्हें बताया कि मेरा मेडीकल रुका हुआ है। उन्होंने कहा कि चिन्ता मत करिये। डा. आनन्द ज्यादा से ज्यादा दो-चार दिन की देरी कर सकते हैं, लेकिन उन्हें क्लीयरेन्स देना पड़ेगा।

उन्होंने मुझसे प्रतिदिन विभाग में आने को कहा और कई अधिकारियों से परिचय भी कराया। मैं वहाँ रोज जाने लगा। 2 तारीख को मैं निश्चित समय पर डा. आनन्द से मिला। उन्होंने बड़े प्यार से मुझे बैठाया और थोड़ी देर मेरी फाइल देखने के बाद मुझसे कहा कि मैं डा. सुरंगे से मिल लूँ। मैं समझ गया कि मामला क्लीयर हो गया है। मैंने उन्हें धन्यवाद दिया और डा. सुरंगे के पास चला गया। उनके पास मेरी फाइल पहुंच चुकी थी। मैं अभी भी कुछ आशंकित था। लेकिन डा. सुरंगे ने मुझे बताया कि हमने तुम्हारा मेडीकल क्लीयर कर दिया है। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। मैंने उन्हें धन्यवाद दिया।

तब उन्होंने मेरा पूरा परिचय और शैक्षिक योग्यताओं के बारे में पूछा। मैंने बताया, तो वे बहुत खुश हुए। उन्होंने तुरन्त सारी औपचारिकताएं पूरी कीं और मुझसे कहा कि हम तुम्हारी मेडीकल रिपोर्ट पर्सनल विभाग को भेज देंगे। तब मैं एक बार फिर उनको धन्यवाद देकर बाहर आ गया। फिर सीधे अपने विभाग में जाकर मैंने श्री आचार्य को यह शुभ समाचार सुनाया। उन्होंने मुझे बधाई दी और कहा कि औपचारिक रूप से कब ज्वाइन करूँगा। मैंने कहा- ‘आज शाम को ही’।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

8 thoughts on “आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 39)

  • जिन्दगी हर क़दम एक नई जंग है ,, पर बुलंद हौसले वाले कब हारे हैं .. आपकी जीवन की पन्ने दर पन्ने खुलती यह हिम्मत लगन मेहनत .. आने वाली पीढ़ियों की प्रेरणा श्रोत बनेगी

    • विजय कुमार सिंघल

      बहुत बहुत धन्यवाद, आशा जी. लोग मेरे अनुभवों से कुछ सीख सकें, इसी कारण यह आत्मकथा लिखने का साहस किया है. आप सबको अच्छी लगी तो मेरा परिश्रम सफल हुआ.

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई, एक बात की तो ख़ुशी हुई कि आप की तपस्य रंग लाइ , दुसरी ओर जब मैं वक्त की बेकद्री और खामखाह लोगों को छोटे छोटे काम के लिए परेशान करना , ऐसी बातें देखता हूँ तो मुझे भारत की कारज पर्नाली पर बहुत गुस्सा आता है. मेरे तो आप जैसे काम नहीं थे , मगर और इतने कामों में मैंने परेशानी उठाई है कि बता नहीं सकता . सिर्फ एक मिनट के काम के लिए दस दस दिन मुझे खुबार होना पड़ा . आप तो बिदेश से भली भाँती परिचत हैं, यहाँ तो कुछ मिनट देरी होने से क्लर्क मुआफी मांगते हैं. हम यहाँ रहने से इस कदर आदि हो चुक्के हैं कि जब इंडिया आने पर छोटे छोटे कामों के लिए छोटे छोटे मुलाज्मों की मिनतें करनी पड़ती है तो बहुत गुस्सा आता है. कभी कभी सोचता हूँ कि अगर भारत में जो काम दस दिन में होता है अगर वोह पांच मिनट में हो जाए तो देश कितना आगे बड़ेगा?

    • विजय कुमार सिंघल

      सही कहा, भाई साहब आपने. भारत में कार्य संस्कृति का अभाव है. बस किसी तरह काम चल रहा है. मोदी जी इसमें परिवर्तन लाने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन सैकड़ों हज़ारों वर्षों की हालत को सुधारने में भी बहुत समय लगेगा.

  • मोहन सेठी 'इंतज़ार', सिडनी

    विजय जी बधाई नौकरी लग गई …..मेडिकल पास हो गये ….हर कदम पर इम्तेहान ही तो लेती है जिन्दगी

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, बंधु. सही कहा आपने. जिंदगी में हर कदम पर परीक्षाएं होती हैं. उनसे ही मनुष्य के धैर्य और गुणों का पता चलता है.

  • Man Mohan Kumar Arya

    एच ए एल में कार्यभार ग्रहण करना एक प्रकार से विद्यार्थी जीवन में किये गए तप का सुखद फल है। इसे जीवन का एक क्रांतिकारी मोड़ भी कह सकते हैं। आजीविका वा व्यवसाय पर ही हमारा वा परिवार के सदस्यों का भावी जीवन निर्भर करता है। आपके जीवन के इस संवाद को पढ़कर प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है। धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      बहुत बहुत आभार, मान्यवर !

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