देह आभास
बिना देह आभास के
कैसे करूँ मैं तुम्हारी आराधना
निराकार की कठिन होती है साधना
साकार मिलने का इसलिए
प्रिये करो तुम वादा
तुम हो अमृतमयी धारा
तुम बिन महासागर होकर भी
हूँ मैं खारा
हज़ारों गोपियों में
हो तुम
भावनायुक्त एक बाला
तुम्हें ही पहनाना चाहता हूँ मैं
इसलिए प्रेम सुमनों से गूँथी हुई माला
तुम ही हो मेरी राधा
इसलिए कृष्ण सा क्यों न रिझू
मैं
तुम पर ही सबसे ज्यादा
सब कुछ इशारे से ही कह देती हो
तुम्हारे मौन से मुझे हुआ है फायदा
कहते हैं गुपचुप रहने का ही
प्रेम में हैं कायदा
वियोग में होता है
आवारगी का अहसास
मिलन में मन रहता है
प्रणय में तल्लीन
राग में मिला होता ही है
कुछ मीठा और कुछ नमकीन
तन नही है
दो रूहों के संयोग में बाधा
शरीर के पास है
रूह तक पहुँचाने का दरवाज़ा
इसलिए
प्यार के पथ में बिछा होता है
कहीं पर फूल तो कहीं पर काँटा
नहीं होता है वह
एकदम सीधा और सादा
सदियों का हो या
जन्मों का अंतर
मिल ही जाते हैं प्रेमी
हो यदि उनमे
अनुराग प्रगाढ़ और गाढ़ा
तुम ही हो मेरी राधा
इसलिए कृष्ण सा क्यों न रिझू
मैं
तुम पर ही सबसे ज्यादा
किशोर कुमार खोरेन्द्र
बहुत खूब .
बढ़िया !