कविता

लम्हों का सफ़र…

आसमान की विशालता
जब अधीरता से खींचती है
धरती की गूढ़ शिथिलता
जब कठोरता से रोकती है
सागर का हठीला मन
जब पर्वत से टकराता है
तब एक आँधी

मानो अट्टहास करते हुए गुज़रती है
कलेजे में नश्तर चुभता है
नस-नस में लहू उत्पात मचाता है
वक़्त का हर लम्हा
काँपता थरथराता
खुद को अपने बदन में नज़रबंद कर लेता है !
मन हैरान है
मन परेशान है
जीवन का अनवरत सफ़र
लम्हों का सफ़र
जाने कहाँ रुके
कब रुके
जीवन के झंझावत
अब मेरा बलिदान माँगते हैं
मन न आह कहता है
न वाह कहता
कहीं कुछ है
जो मन में घुटता है
पल-पल मन में टूटता है
मन को क्रूरता से चीरता है !
ठहरने की बेताबी
कहने की बेक़रारी
अपनाए न जाने की लाचारी
एक-एक कर
रास्ता बदलते हैं
हाथ की लकीर और माथे की लकीर
अपनी नाकामी पर
गलबहिया डाले
सिसकते हैं !
आकाश और धरती
अब भावविहीन हैं
सागर और पर्वत चेतनाशून्य हैं
हम सब हारे हुए मुसाफ़िर
न एक दूसरे को ढाढ़स देते हैं
न किसी की राह के काँटे बीनते हैं
सब के पाँव के छाले
आपस में मूक संवाद करते हैं !
अपने-अपने
लम्हों के सफ़र पर निकले हम
वक्त को हाज़िर नाज़िर मानकर
अपने हर लम्हे को यहाँ दफ़न करते हैं
चलो अब अपना सफ़र शुरू करते हैं !

जेन्नी शबनम (14. 2. 2015)

2 thoughts on “लम्हों का सफ़र…

  • बहुत सुन्दर कविता है जी .

    • डॉ. जेन्नी शबनम

      धन्यवाद!

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