आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 14)
एच.ए.एल. में एक उच्च अधिकारी भी स्वयंसेवक थे। उनका नाम था श्री अरुणाकर मिश्र। वे बहुत योग्य थे और कम उम्र में ही मुख्य प्रबंधक जैसे ऊँचे पद पर पहुँच गये थे। जब मैं एच.ए.एल. में आया था तब वे वरिष्ठ प्रबंधक थे। वे प्रारम्भ से ही स्वयंसेवक थे और एक शाखा के मुख्य शिक्षक भी रहे थे। वे गीत बहुत अच्छा गाते थे और प्रायः गुरुदक्षिणा कार्यक्रम में एकल गीत सुनाया करते थे। उनके एक पुत्र था, जो बहुत होशियार था। एक या दो बार मैं उनके घर भी गया था। उनके साथ मेरी बहुत घनिष्टता तो नहीं थी (क्योंकि वे मुझसे काफी ऊँचे पद पर थे), फिर भी संघ के स्वयंसेवकों में जैसे आत्मीय सम्बंध होने चाहिए थे, हमारे सम्बंध वैसे ही थे। लेकिन एक बार जब उन्होंने अपने पुत्र का जन्म दिन मनाया था, तो संघ के सभी लोगों को बुलाया था, एच.ए.एल. के अन्य बहुत से लोगों को भी बुलाया था, लेकिन मुझे भूल गये। जो लोग उस कार्यक्रम में शामिल हुए थे और मुझे जानते थे, उन्हें भी आश्चर्य हुआ था कि मुझे क्यों नहीं बुलाया गया। मुझे भी काफी बुरा लगा था। इसलिए कुछ समय बाद जब उनका स्थानांतरण लखनऊ से बंगलौर हुआ, तो मैं उनसे मिलने भी नहीं गया। लगभग एक साल बाद जब वे लखनऊ किसी काम से आये थे और हमारे कम्प्यूटर सेक्शन में पधारे थे, तो मेरी उनसे औपचारिक नमस्ते मात्र हुई थी। बाद में सुना गया कि उन्होंने बंगलौर में एच.ए.एल. छोड़कर अपनी कम्पनी खोल ली। उनके भाई संगीतकार थे और उस समय शेखर सेन- कल्याण सेन के साथ रहकर उनके कार्यक्रमों में तानपूरा या सितार बजाया करते थे।
एच.ए.एल. में संघ के लोगों ने अपना काफी प्रभाव बना रखा था। हमारे कार्यक्रमों में एच.ए.एल. के काफी लोग आ जाया करते थे। वहाँ हर साल हिन्दी दिवस पर हिन्दी की प्रतियोगिताएँ भी होती थीं, जैसे भाषण प्रतियोगिता, निबंध प्रतियोगिता आदि। ऐसी प्रतियोगिताओं में मैंने कई बार पुरस्कार जीते थे। एक बार तो ऐसा हुआ कि एक भाषण प्रतियोगिता में श्री गोविन्द राम अग्रवाल को प्रथम, मुझे द्वितीय और एक अन्य स्वयंसेवक श्री हेमन्त देशपांडे को तृतीय पुरस्कार मिला। निर्णायकों में से एक थे श्री अरुणाकर मिश्र। इस पर एक अधिकारी ने टिप्पणी की थी कि इसमें तो आरएसएस वालों का बोलबाला रहा। तब मैंने कहा- ‘यह हमारे लिए गर्व की नहीं शर्म की बात है, क्योंकि दूसरे लोग प्रतियोगिताओं में आये ही नहीं।’ यह सुनकर वे चुप हो गये।
एच.ए.एल. में रहते हुए जिन अधिकारी स्वयंसेवकों के साथ मेरे सबसे अधिक घनिष्ट और पारिवारिक सम्बंध बने, उनमें श्री विष्णु कुमार गुप्त के बाद दूसरा नाम है श्री गोविन्द राम अग्रवाल का। वे बहुत कर्मठ और निष्ठावान् स्वयंसेवक हैं। अपने विवाह से पहले वे तीन साल तक संघ के प्रचारक भी रह चुके हैं। वे कई बार हमारे नगर, जिसका नाम दयानन्द नगर है, के नगर कार्यवाह रहे थे। संघ के अतिरिक्त भी वे कई संगठनों से जुड़े हुए हैं और उनमें भी प्रमुख है- महामना मालवीय मिशन। यह मिशन मुख्य रूप से काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के भूतपूर्व छात्रों द्वारा बनाया गया है, जिसका प्रमुख और घोषित उद्देश्य है महामना मदनमोहन मालवीय जी की स्मृति को चिरस्थायी रखना और उनके विचारों का प्रसार करना। यों तो इस मिशन में मुख्य रूप से काशी हिन्दू वि.वि. में पढ़े हुए और बिजली विभाग में कार्य करने वाले इंजीनियर शामिल हैं, लेकिन यह कोई शर्त नहीं है। महामना मालवीय जी के विचारों में निष्ठा रखने वाला कोई भी व्यक्ति इसका सदस्य बन सकता है। इसलिए मुझे भी आग्रहपूर्वक इसका सदस्य बनाया गया और मैं इसमें काफी सक्रिय भी रहा।
उत्तर प्रदेश में महामना मालवीय मिशन वास्तव में तीन प्रमुख कार्यकर्ताओं के परिश्रम का फल था। इस त्रिमूर्ति में विष्णुजी और गोविन्दजी के अलावा तीसरा नाम है श्री प्रभु नारायण श्रीवास्तव का, जिन्हें सभी प्यार और सम्मान से ‘प्रभुजी’ कहा करते हैं। ये तीनों काशी हिन्दू वि.वि. में साथ-साथ पढ़े थे और वहाँ के छात्र संघ में भी साथ-साथ काम करते हुए अपना अच्छा प्रभाव बना लिया था। इसी तारतम्य में वे लखनऊ में भी साथ-साथ थे और मिशन के कर्ताधर्ता थे। अपने परिश्रम से इन्होंने मिशन से बड़े-बड़े प्रभावशाली लोगों को जोड़कर इसे काफी सम्मानित बना दिया था। मिशन के कार्यक्रमों में वे बड़े-बड़े नेताओं और उच्चाधिकारियों को ससम्मान बुलाया करते थे और काफी सफल कार्यक्रम किया करते थे।
(पादटीप : श्री प्रभु जी इस समय लखनऊ में अवध प्रान्त संघ चालक हैं, श्री गोविन्द जी महामना मालवीय मिशन के महासचिव हैं, और श्री विष्णु जी मिशन के कोषाध्यक्ष हैं. तीनों अपनी-अपनी सेवाओं से अवकाश प्राप्त कर चुके हैं और सामाजिक कार्यों में निरंतर सक्रिय हैं.)
एक बार ऐसा हुआ कि लखनऊ के पास मोहनलालगंज नामक कस्बे में एक ईसाई कुष्ठ आश्रम से कुछ कुष्ठ रोगियों को परिवार सहित निकाल दिया गया, क्योंकि उन्होंने आश्रम के संचालकों की इच्छा के अनुसार ईसाई बनने से इंकार कर दिया था अथवा हिन्दू त्यौहार न मनाने का आदेश मानने से इंकार कर दिया था। वास्तव में हमारे देश में ईसाई मिशनरियों के सभी तथाकथित सेवा कार्य केवल एक प्रमुख उद्देश्य से प्रेरित होते हैं- हिन्दुओं को ईसाई बनाना। इसमें वे हिन्दुओं की गरीबी और अशिक्षा का पूरा फायदा उठाते हैं। वे अनेक प्रलोभन देकर उन्हें अपने सेवाकार्यों से जोड़ लेते हैं और धीरे-धीरे उनका धर्मपरिवर्तन करने की कोशिश करते हैं। जो लोग उनके इस उद्देश्य की पूर्ति में बाधक होते हैं और अपना धर्म छोड़ने को तैयार नहीं होते, उन्हें वे तत्काल निर्दयतापूर्वक लात मारकर बाहर निकाल देते हैं। मुझे यह लिखते हुए अत्यन्त खेद हो रहा है कि मदर टेरेसा जैसी विभूतियाँ भी सेवा कार्यों की ओट में मतांतरण करने के लिए कुख्यात थीं। एक बार जब जनता पार्टी की सरकार ने धर्मांतरण विरोधी विधेयक लोकसभा में प्रस्तुत किया था, तो मदर टेरेसा ने ही उस पर सबसे ज्यादा हायतौबा मचाई थी। इसी कारण वह विधेयक अन्त तक पारित नहीं हो सका था।
अस्तु, जब ईसाई मिशनरियों ने उन कुष्ठ रोगियों को बाहर निकाल दिया था, तो वे सपरिवार खुले में पेड़ों के नीचे रह रहे थे। वे घोर जाड़े के दिन थे, शायद दिसम्बर 1985 का महीना था। जब उन कुष्ठ रोगियों की दुर्दशा का समाचार स्थानीय अखबारों में छपा, तो महामना मालवीय मिशन के कुछ लोग उनको देखने गये। उनकी दशा देखकर वे बहुत दुःखी हुए। वे कुष्ठ रोगियों को तो रख नहीं सकते थे, लेकिन मौके पर ही यह निर्णय लिया गया कि उनके स्वस्थ बच्चों के पालन-पोषण और शिक्षा आदि का दायित्व मिशन उठाएगा।
तत्काल ही इन्दिरा नगर के पास लक्ष्मणपुरी में एक मकान किराये पर लिया गया और उसमें कुष्ठ रोगियों के 7-8 बच्चों को रखकर उसे छात्रावास का रूप दे दिया गया। उसका नाम रखा गया- महामना बाल निकेतन। उन बच्चों का प्रवेश इन्दिरा नगर के सरस्वती शिशु मंदिर में करा दिया गया, जहाँ उन्हें निःशुल्क शिक्षा प्रदान की जाने लगी। वनवासी कल्याण आश्रम से जुड़े हुए एक सेवाभावी संगठन ‘सेवा समर्पण संस्थान’ ने इस छात्रावास हेतु अपने कार्यकर्ता उपलब्ध कराने का दायित्व लिया। प्रारम्भ में आये श्री श्यामता प्रसाद जी। बाद में उनकी जगह श्री नन्दलाल जी छात्रावास प्रमुख बनकर आये। उनके साथ एक वेतन भोगी कर्मचारी और एक दाई भी रखी गयी। दाई मुख्य रूप से भोजन बनाती थी और कपड़े धोती थी। कर्मचारी बच्चों को विद्यालय ले जाने, वापस लाने और छात्रावास के अन्य छोटे-मोटे कार्य करता था। इस हेतु उसे एक रिक्शा भी दिया गया था।
धीरे-धीरे बच्चों का विकास होने लगा और उनकी संख्या भी बढ़ने लगी। एक समय तो छोटे रमेश से लेकर बड़े रमेश तक कुल 14 बच्चे बाल निकेतन में रह रहे थे। उन्हें प्रातः जागरण से लेकर रात्रि शयन तक विभिन्न कार्यक्रमों में व्यस्त रखा जाता था और खेलने-कूदने का भी पर्याप्त समय दिया जाता था। सेवा के इस स्वर्णिम अवसर को मैं छोड़ नहीं सकता था, इसलिए अपने कार्यालय से बचे समय में कम से कम एक बार मैं अवश्य बाल निकेतन जाता था और बच्चों की पढ़ाई तथा भोजन व्यवस्था पर नजर रखता था।
ऐसे श्रेष्ठ कार्य को समाज का समर्थन मिलना ही था। अतः जैसे ही सहायता की अपील हुई, तो सब ओर से सहायता आने लगी। नकद राशियाँ तो मिलती ही थीं, वस्तुओं के रूप में भी काफी सहायता मिल जाती थी। अनेक सज्जन अपने बच्चों के जन्मदिन तथा ऐसे ही अन्य अवसरों पर बाल निकेतन के बच्चों के लिए भोजन सामग्री के साथ ही अन्य छोटी-मोटी वस्तुएँ भी भेंट में दिया करते थे। समाज से आवश्यक सहायता नियमित मिलती रहे और बाल निकेतन की समुचित व्यवस्था बनी रहे, इस हेतु एक समिति बनायी गयी। इस समिति में 10 सदस्य थे, जिसके संयोजक थे श्री विष्णु कुमार गुप्त और सचिव थे श्री संजय शंकर मेहता। बाद में मुझे भी इसका ग्यारहवाँ सदस्य बनाया गया। धन एकत्र करने के लिए छोटी-छोटी राशियों के कूपन छपवाये गये और प्रत्येक दानदाता से कम से कम एक कूपन प्रतिमाह लेने की अपील की गई। कूपन की राशि मात्र 10 रुपये रखी गयी थी, हालांकि यदि कोई दानदाता चाहता तो इससे अधिक राशि बिना कूपन के भी दे सकता था, जिसकी उन्हें बाकायदा रसीद भी दी जाती थी।
धन संग्रह करने और उसका हिसाब रखने का दायित्व मुख्य रूप से श्री संजय शंकर मेहता को सोंपा गया था। इस दायित्व को उन्होंने बड़े परिश्रम और निष्ठा से निभाया। कई लोग कूपनों के चक्कर में पड़े बिना अपने बैंक खाते से एक निश्चित राशि प्रतिमाह सीधे बाल निकेतन के बैंक खाते में डाल दिया करते थे, जिसके लिए उन्होंने बैंक को स्थायी आदेश (Standing Order) दे रखे थे। हम सभी कार्यकर्ता स्वयं भी बाल निकेतन की आर्थिक सहायता नियमित किया करते थे। इस प्रकार बाल निकेतन का कार्य सुचारु रूप से चलने लगा।
(जारी…)
विजय भाई , बाल निकेतन की कहानी पड़ कर बहुत परभावित हुआ कि आप इतनी सेवा कर रहे हैं . सब से ज़िआदा दुःख मुझे इस बात का हुआ कि मैं आज तक इसाई लोगों की असल भावना को समझ नहीं पाया कि उन का लोगों की मदद करना एक ढोंग है , सिर्फ इसाई धर्म को फैलाना ही उन का मकसद है और साथ ही मुझे इस बात का भी दुःख है कि हिन्दू धर्म ने हिन्दू धर्म को बचाने के लिए कुछ नहीं किया . यही काम जो मदर ट्रीसा ने किया हिन्दुओं को करना चाहिए था , शूद्रों दलितों को ऊपर उठा कर उन को ऊंची शिक्षा दे कर धर्म परिवर्तन को ब्रेक लगानी थी . अरबों रूपए बड़े बड़े मंदिर बनाने की वजाए मदर ट्रीसा का काम करना चाहिए था जिस से हिन्दू धर्म का फैला हो सके .
धन्यवाद, भाई साहब ! आपका कहना बिल्कुल सत्य है. हिन्दू समाज ने अपने कई बड़े वर्गों का ध्यान नहीं रखा, जिससे ऐसी हालत हुई. लेकिन अब इस पर बहुत काम हुआ है. ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ एक संघ परिवार का बड़ा संगठन है, जो वनवासियों’ दलितों और दूर दराज के क्षेत्रों में बहुत काम कर रहा है. उसके हजारों स्कूल, सैकड़ों छात्रावास, चिकित्सालय तथा अन्य सेवा प्रकल्प लगातार चल रहे हैं. इससे अब हिन्दुओं के ईसाई बनने की घटनाओं में बहुत कमी आई है. बहुत से लोग वापस हिन्दू धर्म में भी आ रहे हैं. इसी से ईसाई बौखला रहे हैं.
इन्दिरा नगर के पास लक्ष्मणपुरी में एक मकान किराये पर लिया गया और उसमें
कुष्ठ रोगियों के 7-8 बच्चों को रखकर उसे छात्रावास का रूप दे दिया गया।
उसका नाम रखा गया- महामना बाल निकेतन।
ऐसे बच्चे जिनको बिना किसी गलती के समाज से अलग थलग कर दिया जाता है ,आपने इन बच्चों के विकास कार्य में आपका और आपके साथियों का अथक प्रयास देखकर आश्चर्य चकित हूँ ,इस प्रेरणादायक एवं प्रसंशनीय कार्य के लिए समाज का समर्थन मिलना तय ही था …आज जब हर व्यक्ति सिर्फ़ अपने बारे में सोचता है आपके इस सार्थक प्रयास की जितनी सराहना की जाए कम है …
बहुत बहुत धन्यवाद, सरिता जी. मेरा मानना है कि जब तक यह शरीर चल रहा है, तब तक इससे जो सेवा हो जाये, वह हमारा सौभाग्य है.
आज की कड़ी में आपके महामना बाल निकेतन से जुड़े संस्मरणों को पढ़कर आप पर गर्व हो रहा है। आपने और आपके साथियों ने इन बच्चो को ईसाई होने से बचाने में योगदान किया है, यह प्रेरणादायक एवं प्रसंशनीय है। आज की किश्त के लिए हार्दिक धन्यवाद।
आभार, मान्यवर !