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आजकल की शादियाँ

आज कल शादियों का दौर चल रहा है, शादी…हम भारतीय सामाजिक मानवियों के लिए एक बड़ा कार्य है, दूर दूर के रिश्तेदार, दोस्त, चाचे भतीजे सब प्रकार के लोग शामिल होकर इसकी पूर्णाहुति देते हैं, शादी जहाँ दो शरीर एक जान बन जाते हैं और जीवन भर साथ रहने की तमाम कसमे वादे करके एक दुसरे के हो जाते हैं, शादी आज सिर्फ शादी नहीं है शादी में अब जुड़ गयी है भौंडी फूहड़ता, शादी अब पवित्र कार्य होने के बजाये, खाने, नाचने और हुडदंग लीलाओं का खुला मंच बन चुकी हैं!

मैंने पिछले दिनों दो प्रकार की शादियाँ देखीं, एक गाँव के परिवेश में और दूजी शहरी शादी! अंत में मैं इसी निष्कर्ष पर निकला कि शाश्वत जोडियाँ बनाने की इस रस्म को अब दिखावटी और मिलावटी बनाकर हमने पंगु क्रिया बना दिया है, दारु पीकर नाचना, प्रायः लड़कियों को छेड़ना और यहाँ तक बदतमीजी की सारी हदें पार करना जिस संस्कृति में “फैशन” बन जाए वहां आप ज्यादा अपेक्षा रख भी क्या सकते हैं, आतिशबाजियां, नाचना कूदना, और आजकल तो अंग प्रदर्शन आदि भी फिल्मो से लिए गए “सो कॉल्ड स्टाइल” का अच्छा ख़ासा नमूना पेश करते हैं, घोड़ी पर चढ़े दुल्हे को भले शादी का बेसब्री से इन्तजार हो ना हो उसके दोस्तों को उसकी शादी में दारु पीने का इन्तजार अधिक बेसबर किये रहता है, ये बड़ी कडवी सच्चाई है हम राम जानकी के विवाह से आजकल के विवाह तक नजर डालें तो समझ में आता है कि हम किस अर्श से फर्श तक शादी के मामले में ओंधे मुंह गिरे हैं, शादियों का उत्साह तभी मर जाता है जब फूहड़ता और असामाजिकता जैसे तत्व उसमे जुड़ जाते हैं, पवित्र बंधन के नाम पर हो रहे इन तमाम आयोजनों को ‘शुद्धि आन्दोलन’ की सख्त जरुरत है, हम मुद्दे पर आते हैं छोटा सा उदाहरण देता हूँ..

जयमाले का चलन भारतीय संस्कृति में प्रभु श्री राम और माता जानकी के विवाह से प्रारंभ हुआ था, आज के फूहड़ जयमाले देखिये साहेब दुल्हे राजा को जयमाला पहनाने का समय आते ही उसके दोस्त उसे गोद में उठा लेते हैं और फिर दुल्हन को इतनी मशक्कत करनी पड़ती है कि जैसे जीवन की सबसे बड़ी चुनौती दुल्हे को जयमाला पहनाना ही हो, इधर दुल्हन वालों ने भी कच्ची गोटियाँ नहीं खेली हैं जी दुल्हन के रिश्तेदार में से एक तगड़ा निकलकर आता है और दुल्हन को गोद में उठाकर दुल्हे के करीब पहुचा देता है, बस दुल्हन झट से माला डाल देती है, और झटपट कैमरों में उनकी तसवीरें कैद हो जाती हैं, इधर कुर्सियों में बैठे दर्शक जो इन कैमरा धारकों के कारण कुछ नहीं देख पाते वो भी जोरदार तालियों से दुल्हन का उत्साहवर्धन कर देते हैं बस हो गयी शादी संपन्न…अब दुल्हे की बारी दूल्हा जैसे ही माला दुल्हन को पहनाता है मंत्रोत्चार कम और हनी सिंह के भजन पहले सुनाई देने लगते हैं, खाकर हाथ पोंछकर बैठे लोग फिर तालियों की गडगडाहट कर देते हैं और उक्त दर्शकों के लिए शादी संपन्न हो जाती है, इस तरह जयमाला रुपी एक परम्परा में फूहड़ हास परिहास को जोड़कर शादी के नएपन की झलकियाँ हमारे सामने होती हैं.

तो ये तो हुयी शहर की बात, गाँव की शादियों में जयमाले का चलन अभी अभी शुरू हुआ है, वहां ये कार्य बड़े सुंदर तरीके से होता है, दूल्हा शर्माता सा दुल्हन के सामने खड़ा है, दुल्हन का घूँघट उसके चेहरे को भले छिपाता हो लेकिन शायद यही उसकी वास्तविक सुन्दरता नजर आती है, मंत्रोत्चार होते हैं दुल्हन दुल्हे के गले में माला डालती भी है तो इतने सहज और सुंदर तरीके से कि दुल्हन के पिता की आँखों में आंसू आ जाते हैं, यही क्रम दूल्हा जब दोहराता है तो सियापति रामचंद्र की जय जैसे जयकारों से मंडप गूँज उठता है, कभी कभी सोचता हूँ वास्तव में जयमाले की परंपरा को सही अर्थों में तो गाँव स्वीकार कर रहे हैं और शायद ये शाश्वत क्रम बना रहे क्यूंकि गाँव के लोगों में सरलता है उनमे  अपनी सभ्यता के लिए जो सम्मान बचा है वही हमारे देश की आस है, यही मुझे शादी के शहरीकरण में समझ में नहीं आता!

इसी प्रकार प्रीतिभोज भी कोई परंपरा नहीं है ये तो परोसने के झंझट से आजादी है, शहरों में इसका चलन भयंकर है, शादी के बाद दुल्हे के परिवार वाले भी आशीर्वाद और प्रीतिभोज समारोह का आयोजन करते हैं, लेकिन वो किसी आशीर्वाद का प्रीती भोज नहीं होता बल्कि वो होता है लिफ़ाफ़े और उपहार बटोरने का एक जरिया, सच तो यही है आज शहर में जिसकी माली हालत खराब भी है वो भी प्रीतिभोज करवाता है और रईसों के तो कहने ही क्या हैं, शादियों की ऐसी दुर्दशा देखकर सोचता हूँ कि कितना भयंकर होता चला जा रहा है भारतीय समाज, सच तो ये है कि ये किसी रुढ़िवादी सोच से जन्मी मेरी परिकल्पना नहीं है अपितु सामाजिक नीतियों के होते ह्रास से उपजे मेरे क्षोभ का कारण है कि इस पवित्र संगम की फूहड़ता जो मुझ जैसे नासमझ को दिख रही है, आप बुद्धिजीवियों से साझा कर रहा हूँ…

सौरभ कुमार दुबे

सह सम्पादक- जय विजय!!! मैं, स्वयं का परिचय कैसे दूँ? संसार में स्वयं को जान लेना ही जीवन की सबसे बड़ी क्रांति है, किन्तु भौतिक जगत में मुझे सौरभ कुमार दुबे के नाम से जाना जाता है, कवितायें लिखता हूँ, बचपन की खट्टी मीठी यादों के साथ शब्दों का सफ़र शुरू हुआ जो अबतक निरंतर जारी है, भावना के आँचल में संवेदना की ठंडी हवाओं के बीच शब्दों के पंखों को समेटे से कविता के घोसले में रहना मेरे लिए स्वार्गिक आनंद है, जय विजय पत्रिका वह घरौंदा है जिसने मुझ जैसे चूजे को एक आयाम दिया, लोगों से जुड़ने का, जीवन को और गहराई से समझने का, न केवल साहित्य बल्कि जीवन के हर पहलु पर अपार कोष है जय विजय पत्रिका! मैं एल एल बी का छात्र हूँ, वक्ता हूँ, वाद विवाद प्रतियोगिताओं में स्वयम को परख चुका हूँ, राजनीति विज्ञान की भी पढाई कर रहा हूँ, इसके अतिरिक्त योग पर शोध कर एक "सरल योग दिनचर्या" ई बुक का विमोचन करवा चुका हूँ, साथ ही साथ मेरा ई बुक कविता संग्रह "कांपते अक्षर" भी वर्ष २०१३ में आ चुका है! इसके अतिरिक्त एक शून्य हूँ, शून्य के ही ध्यान में लगा हुआ, रमा हुआ और जीवन के अनुभवों को शब्दों में समेटने का साहस करता मैं... सौरभ कुमार!

3 thoughts on “आजकल की शादियाँ

  • राज किशोर मिश्र 'राज'

    तेज़ी से बदलते हुए समाज मे मान्यता एवम् परम्पराएँ सतत जर्जर होती जा रही है अर्श से फर्श तक बदलाव की प्रवृत्ति प्रखर हुई है , आज आडंबर का युग है लोग झूठी शान मे परेशान हैं / हमारे पड़ोसी शादी मे २५ बुलेरो ले गये फिर दूसरा पड़ोसी भी प्रतिस्पर्धा की दौड़ मे शामिल हो गया ,,,,

    धीरे -धीरे यह क्षीण मानसिकता परम्परा बनती जा रही है आज हम अपने दुख से कम दुखी है पड़ोसी के सुख से दुखी हैं/ सबसे पहले हमे अपने सोच का नज़रिया बदलना होगा // आज बारात मे ख़ान-पान मे मिर्च मसाले , मैगी ,चाउमीन जैसे चायनीज एवम् तैलीय पदार्थ प्रमुखता से अपनी उपस्थित दर्ज कराए हुए हैं जो सेहत की दृष्टिकोण से पैमाने पर खरा नही उतरता//, आधुनिक बारातीय तामझाम सामाजिक विसंगतियाँ अपने चरमोत्कर्ष पर हैं , जन जागरूकता लाना अति आवश्यक होता जा रहा है ,,,, हम बदलेंगे युग बदलेगा ////

  • जी सर, गाँव की शादियाँ भी मिलीजुली ही होती हैं! लेकिन कुछ हद तक शहर से सही!

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छा लेख. यह सही है कि शहरी शादियों में बहुत फूहड़ता होने लगी है.
    मैंने लम्बे समय से गाँव की किसी शादी में भाग नहीं लिया है. इसलिए उनके बारे में कुछ नहीं कह सकता.

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