आत्मकथा

आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 55)

1995 तक मेरे पास किसी प्रकाशक से कोई पुस्तक लिखने का आदेश नहीं था। बी.पी.बी. प्रकाशन वालों ने जो आदेश दिया था, वह भी वापस हो गया था। मैं अपनी पुस्तकों को छपवाने के लिए परेशान था। तभी मेरा विचार उ.प्र. हिन्दी संस्थान से एक पुस्तक छपवाने का हुआ। मैंने उनसे पत्र-व्यवहार किया, तो उन्होंने उसमें रुचि दिखाई। मैंने पुस्तक का सारांश उनको भेजा, तो उन्होंने आगे बातचीत करने लखनऊ आने का निमंत्रण दिया। तभी हमारे नये हिन्दी अधिकारी डाॅ. ओम कुमार मिश्र ने मुझे बताया कि सरकारी संस्थाओं से पुस्तक छपवाना बेकार है। ये संस्थान पुस्तकों की कब्रगाह हैं। इनमें कोई पुस्तक छपने में ही कई साल ले लेती है और बिकने में और भी अधिक समय लगता है। उनका दूसरा संस्करण तो 15-20 साल में ही आ पाता है। उनकी बातों में सच्चाई थी, इसलिए मैंने उ.प्र. हिन्दी संस्थान से किताब छपवाने का विचार एकदम छोड़ दिया। डाॅ. मिश्र की उचित और सामयिक सलाह के लिए मैं उनका बहुत आभारी हूँ।

अब मैंने सोचा कि पहले कोई ऐसी पुस्तक लिखी जाये, जो जल्दी बिक सके। उसको कोई भी प्रकाशक छापने को तैयार हो जाएगा। उन दिनों बैंक कर्मियों के लिए होने वाली परीक्षा सीएआईआईबी (CAIIB) के भाग 1 में कम्प्यूटर विषय का एक पेपर होता था। हिन्दी माध्यम से यह परीक्षा देने वाले लोग बहुत परेशान रहते थे और प्रायः फेल हो जाते थे। इस पेपर में मुश्किल से 7-8 प्रतिशत परीक्षार्थी ही हिन्दी माध्यम से उत्तीर्ण हो पाते थे। मेरे कार्यालय के कई लोग यह परीक्षा दे रहे थे। उनमें से कुछ ने मुझसे कहा कि मैं हिन्दी में इस पेपर के लिए पुस्तक लिख दूँ। मैंने इसे एक चुनौती के रूप में स्वीकार कर लिया।

इस विषय के कुछ अध्याय मेरे पास पहले से लिखे रखे थे और शेष अध्याय मैंने इधर-उधर की अंग्रेजी पुस्तकों की सहायता से लिख डाले। 2-3 माह में लगभग 200 पृष्ठों की पुस्तक की पांडुलिपि तैयार हो गयी। मेरे कार्यालय के दो टाइपिस्ट श्री संजीत शेखर और श्री सुशील कुमार वर्मा भी यह परीक्षा दे रहे थे। मैंने अपनी पांडुलिपि की एक-एक छायाप्रति उन दोनों को दी और उसे पढ़ने को कहा। उन्हें पुस्तक काफी पसन्द आयी और कुछ सुझाव भी दिये। उनके सुझावों के अनुसार मैंने पुस्तक में आवश्यक संशोधन कर दिये।

अब मैं उस पांडुलिपि को लेकर आगरा के ‘उपकार प्रकाशन’ के स्वामी से मिला। सौभाग्य से उन्हें पांडुलिपि पसन्द आ गयी और उसे छापने को तैयार हो गये। पारिश्रमिक प्रति पृष्ठ 40 रुपये तय हुआ, जो प्रारम्भ में मेरे लिए पर्याप्त था। उन्होंने पुस्तक छापने में 4-5 महीने लगा दिये, लेकिन जब छपकर आयी, तो मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। यह पुस्तक प्रारम्भ से ही सफल रही। मेरी पुस्तक या पांडुलिपि के आधार पर मेरे कार्यालय के श्री बिपिन कुमार श्रीवास्तव सहित जिन लोगों ने यह पेपर दिया था, वे सब एक बार में ही उसमें अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो गये। मेरी पुस्तक छपने के बाद सीएआईआईबी की जो पहली परीक्षा हुई उसमें हिन्दी माध्यम से इस पेपर में उत्तीर्ण होने वालों का प्रतिशत एकदम बढ़कर 30 हो गया था। निश्चित रूप से यह मेरी पुस्तक के कारण था। हालांकि इससे पहले भी इस पेपर के लिए मेरठ से हिन्दी में छपी एक-दो पुस्तकें बाजार में थीं, लेकिन वे लगभग बेकार थीं।

मेरी पहली पुस्तक की सफलता से मेरे प्रकाशक मै. उपकार प्रकाशन के स्वामी श्री महेन्द्र जैन बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने मुझे एक अन्य पुस्तक लिखने का आदेश दे दिया। यह वही पुस्तक थी, जिसको में मै. बीपीबी पब्लिकेशन के आदेश पर लिख रहा था और उनके बाद में पीछे हट जाने पर बीच में ही छोड़ दी थी। जब मैंने वह अधूरी पुस्तक उपकार प्रकाशन को दिखायी तो वे उसे तुरन्त छापने को तैयार हो गये और उसे जल्दी से जल्दी पूरा करने का आदेश दिया। अब मैं उस पुस्तक को पूरा करने में जुट गया।

यह सन् 1995 की बात है। उन्हीं दिनों मैं कम्प्यूटर पर एक प्रशिक्षण में शामिल होने कोलकाता गया। वह प्रशिक्षण भी लगभग उसी विषय पर थी, जिस पर मैं वह पुस्तक लिख रहा था। उस प्रशिक्षण से भी मुझे काफी सहायता मिली। वहाँ एक प्रशिक्षक थे- श्री उत्तम कुमार मौर्य। उनका ज्ञान इस विषय में बहुत अच्छा था और उनका हिन्दी का ज्ञान भी अच्छा था। मैंने उनसे अपनी पुस्तक का जिक्र किया और उनसे पूछा कि क्या वे मेरी पुस्तक की जाँच कर सकते हैं। वे तुरन्त तैयार हो गये। वाराणसी वापस आकर मैंने उस पुस्तक के अध्याय एक-एक करके उनके पास जाँच करने के लिए भेजे। उन्होंने उनमें कुछ गलतियाँ बतायीं और कुछ मैटर जोड़ने के लिए कहा। मैंने उनके सुझावों के अनुसार पुस्तक को सुधार दिया। अब वह छपने के लिए पूरी तरह तैयार थी। श्री उत्तम कुमार मौर्य ने जिस लगन से मेरी पुस्तक को जाँचा, वैसा करने वाले व्यक्ति बहुत दुर्लभ होते हैं। अब श्री उत्तम कुमार मौर्य हमारे बैंक को छोड़कर किसी अन्य बैंक (शायद ओरियंटल बैंक आॅफ काॅमर्स) में चले गये हैं। वैसे मेरी पुस्तक छपकर आने के बाद मैंने उनको उसकी दो प्रतियाँ भेंटस्वरूप भेजी थीं। अपनी पुस्तक के आमुख में भी मैंने उनका आभार व्यक्त किया है।

हमारे बैंक में उन दिनों कम्प्यूटरों की संख्या गिनी-चुनी ही थी। केवल कुछ कार्यालय ही आधे-अधूरे कम्प्यूटरीकृत थे। आगे सभी शाखाओं के कम्प्यूटरीकरण की योजनाएँ बनायी जा रही थीं और कर्मचारी संगठनों को उसके लिए राजी किया जा रहा था। इसी क्रम में अधिकारियों और लिपिकों के लिए 3-3 दिन के प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किये जाते थे, ताकि उन्हें कम्प्यूटर की प्रारम्भिक जानकारी दी जा सके और उन्हें कम्प्यूटरीकरण के लिए मानसिक रूप से तैयार किया जा सके। हमारे वाराणसी मंडल में ऐसे कार्यक्रम करने की जिम्मेदारी मुझे दी गयी।
उस समय हमारे पास ट्रेनिंग देने की कोई जगह नहीं थी, इसलिए आसपास के होटलों में पढ़ाने के लिए कमरे किराये पर लिये जाते थे और वहीं प्रशिक्षणार्थियों के लिए दो बार की चाय और दोपहर के भोजन का प्रबंध भी किया जाता था। इस कार्य के लिए जितना बजट बैंक की ओर से तय था, हम उसी बजट में और कई बार उससे भी कम खर्च में ये कार्यक्रम सफलतापूर्वक कर लेते थे।

हम सभी कम्प्यूटर अधिकारी इन कार्यक्रमों में पढ़ाते थे। मैं प्रायः सबसे पहला और सबसे आखिरी विषय पढ़ाता था। पहले मैं प्रोफेसर बनना चाहता था, वह तो नहीं बना, लेकिन इन कार्यक्रमों में पढ़ाकर मुझे बहुत संतुष्टि मिलती थी। कार्यक्रम के अन्त में हम सभी प्रशिक्षणार्थियों से लिखित में पूछते थे कि उनको कौन सा लैक्चर कैसा लगा। आश्चर्य है कि हर बार मेरे ही लैक्चर सबसे अच्छे बताये जाते थे। इन कार्यक्रमों के कारण वाराणसी मंडल की प्रायः सभी शाखाओं में मेरे पढ़ाये हुए अधिकारी और लिपिक पदस्थ हैं।

(जारी…)

 

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

4 thoughts on “आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 55)

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , आप तो पारस हैं , जो कोई आप को छूएगा सोना हो जाएगा . इतनी लगन और हिमत बहुत कम ही सुनने को मिली है . यह खाली पर्शंषा नहीं है , यह सब कुछ आप में है और धीरे धीरे आप के बारे में पड़ने और जान्ने को बहुत मिलेगा , ऐसी मुझे आशा है .

    • विजय कुमार सिंघल

      प्रणाम, भाई साहब! यह सब प्रभु की कृपा और गुरुजनों के आशीर्वाद का फल है।

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते एवं धन्यवाद आदरणीय श्री विजय जी। आज की क़िस्त से आपके व्यक्तित्व एवं प्रतिभा के एक नए स्वरुप के दर्शन किये। आप बैंक अधिकारी होने के साथ एक अच्छे लेखक एवं शिक्षक भी है, यह जानकार प्रसन्नता हुई। आने वाली किस्तों से आपकी अन्य प्रतिभाओं का भी ज्ञान होने की आशा है। आज की क़िस्त प्रभावशाली होने के साथ आपके एक सफल लेखक एवं लोकप्रिय शिक्षक होने का ज्ञान कराती है। धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      प्रणाम मान्यवर ! उद्गारों के लिए आभारी हूँ.

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