आत्मकथा

आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 56)

अब जरा लखनऊ के अपने मकान की बात कर ली जाये। मैं लिख चुका हूँ कि सन् 1986 में मैंने उ.प्र. आवास एवं विकास परिषद से इन्दिरा नगर की स्ववित्तपोषित योजना में एक मकान खरीदा था। उसका कब्जा मुझे फरवरी 1989 में तब मिला था, जब मैं एच.ए.एल. की नौकरी छोड़कर लखनऊ में ही इलाहाबाद बैंक की नौकरी पर आ गया था। हमें उस मकान को सुरक्षित बनाने के लिए बाउंडरी आदि बनवानी पड़ी थीं। सौभाग्य से मेरे माताजी-पिताजी उस समय मेरे साथ लखनऊ में ही थे। इसलिए मकान का कब्जा लेने और बाउंडरी आदि बनाने का कार्य उनकी देखरेख में चल रहा था। मैंने योजना बनायी थी कि जून 1989 में हम किराये का मकान छोड़कर अपने ही मकान में रहने चले जायेंगे।
लेकिन हमारे सहायक महाप्रबंधक महोदय श्री आर.आर.शर्मा की कृपा से मेरा स्थानांतरण मई माह के अन्तिम सप्ताह में ही वाराणसी कर दिया गया। इसलिए अपने मकान में रहने का मेरा अरमान अधूरा ही रह गया (और अभी तक अधूरा ही है।) अब उस मकान को किराये पर उठाने की समस्या थी। सौभाग्य से तभी श्री गोविन्द जी की सहायता से एक किरायेदार मिल गया। किराया बहुत कम था मात्र 600 रु प्रति माह। लेकिन वह आदमी अच्छा था, इसलिए हम संतुष्ट थे। लगभग 3 साल तक वे सज्जन उसमें रहे। अब हमें उम्मीद थी कि वे किराया बढ़ा देंगे, क्योंकि सामान्यतया 3 साल बाद किराया बढ़ा दिया जाता है, परन्तु उन्होंने बहाने करके किराया बढ़ाने में असमर्थता जतायी। दूसरी बात, हमने उनसे कहा था कि आप मकान की पुताई करा लो, क्योंकि उसे कई साल हो गये थे। परन्तु वे ऐसा कष्ट करना नहीं चाहते थे, इसलिए हमने यही ठीक समझा कि मकान खाली करा लिया जाये। वे सज्जन आदमी थे। उन्होंने अपने वायदे के अनुसार मकान खाली कर दिया।

अब हमें नया किरायेदार देखना था। हम तो वाराणसी में रहते थे। मेरे लिए यह सम्भव नहीं था कि लखनऊ में रहते हुए किरायेदार खोजूँ। इसलिए मैंने अपने मित्रों से कह रखा था कि कोई अच्छा आदमी मिल जाये, तो उनको किराये पर दे सकता हूँ। मेरे एक पत्र-मित्र श्री रंजीत सिंह, जो फौज में नौकरी करते थे और गोरखपुर के निवासी थे, उन्होंने अपने एक परिचित सज्जन को मकान किराये पर देने के लिए कहा। किराया वे केवल 800 रु दे रहे थे। हमने कह दिया कि आप जो ठीक समझें कर लें।

वे किरायेदार एक वकील साहब थे, जो वास्तव में कुछ नहीं करते थे और मुलायम सिंह वाली समाजवादी पार्टी के एक नेता के चमचे थे। वैसे उन्होंने पहले तीन महीने का किराया मेरे मित्र रंजीत सिंह के छोटे भाई श्री मानसिंह को दे दिया था, परन्तु उन्होंने वह किराया हमें नहीं पहुँचाया। इसके बाद वकील साहब ने भी कोई किराया नहीं दिया और बहाने बनाने लगे। मैंने अपने मित्र रंजीत जी को कई बार इस बारे में लिखा, तो वे अपने भाई को पत्र लिखते रहे कि इनका किराया इन्हें दिलवा दो। लेकिन वे दोनों ही किराया देना नहीं चाहते थे। तभी मुझे पता चला कि उन वकील साहब और रंजीत जी के भाई मानसिंह उन दोनों के ही सम्बंध अपराधी किस्म के लोगों से थे। अब हम घबराये कि इस तरह तो हमें किराया तो मिलेगा ही नहीं और डर है कि मकान पर भी वे लोग कब्जा न कर लें। अगर ऐसा होता, तो मैं किस-किससे लड़ता फिरता? इसलिए मैंने वकील साहब से मिलकर उनको मकान खाली करने के लिए राजी कर लिया। सौभाग्य से 2-3 महीने बाद ही उन्होंने मकान खाली कर दिया। इसमें मुझे लगभग 15-20 हजार का घाटा पड़ा और पानी-बिजली का बकाया बिल भी मुझे ही भरना पड़ा। लेकिन सन्तोष था कि मकान बच गया। इसके बाद हमने अपने मकान को लम्बे समय तक बिना किरायेदार के खाली ही रहने दिया।

इसके साथ ही मैंने रंजीत जी से अपनी मित्रता का सम्बंध तोड़ दिया। मैंने सोचा कि जो आदमी अपने सगे भाई से भी मेरा रुपया नहीं दिलवा सका, उसके ऊपर कितना विश्वास किया जाये। हालांकि उनका अपना कोई दोष नहीं था। उन्होंने तो मेरी सहायता की ही कोशिश की थी, परन्तु उनके भाई के कारण मुझे उनसे अपना सम्बंध तोड़ना पड़ा। वैसे वे बहुत सज्जन हैं। एक बार उन्होंने मुझे अपनी एक भांजी की शादी में बुलाया था और मैं वाराणसी से गोरखपुर जिले के कौड़ीराम कस्बे में जाकर उस विवाह में सम्मिलित हुआ था। मुझे देखकर सब बहुत प्रसन्न हुए थे। एक-दो बार वे वाराणसी भी आये थे और एक बार फौज में अपनी यूनिट के मंदिर के लिए राधा-कृष्ण की मूर्तियाँ भी वाराणसी से खरीदकर ले गये थे। मेरे द्वारा सम्बंध तोड़ लेने के बाद भी उनके कई पत्र मेरे पास आये थे, परन्तु मैंने जानबूझकर उनका उत्तर नहीं दिया। अपने इतने प्यारे मित्र से सम्बंध तोड़ते हुए मुझे बहुत दुःख हुआ, परन्तु मजबूरी में मुझे ऐसा करना पड़ा। इसके लिए मैं उनसे क्षमा चाहता हूँ और उनके कल्याण के लिए परमपिता से प्रार्थना करता हूँ।

वाराणसी में अनन्ता कालोनी के जिस फ्लैट में हम रहते थे, उसी के नीचे ग्राउंड फ्लोर पर एक सम्पन्न परिवार रहता था श्री राय साहब का। उनको मैं बाबूजी कहता था। वे मेरा बहुत आदर करते थे। उनके दो पुत्र थे। एक विवाहित पुत्री भी थी। बड़े पुत्र मैरीन इंजीनियर थे और साल में 10 महीने शिप में ड्यूटी पर रहते थे। वे केवल 2 माह के लिए घर आते थे। वे विवाहित थे और दो पुत्रों के पिता थे। उनकी पत्नी श्रीमती किरण बहुत सुन्दर और हँसमुख थीं। लेकिन उस घर में एक समस्या थी। राय साहब का छोटा पुत्र सर्वेश बी.काॅम. और एम.काॅम. भी कर चुका था, परन्तु बेरोजगार था। वैसे वह काफी प्रतिभाशाली था, परन्तु बेरोजगारी ने उसे कुंठित कर दिया था। इससे भी बुरी बात यह थी कि घर वाले उसे अपमानित करते थे, जिससे उनके घर में प्रायः रोज ही कलह हुआ करती थी। एक बार तो नौबत यहाँ तक आ गयी थी कि उसका घर में घुसना बन्द कर दिया गया था और वह नीचे गोदाम में रहता था। घर के गेट पर हर समय ताला लगा रहता था, ताकि वह अन्दर न आये। एक दो बार मैंने बाबूजी और सर्वेश में बाकायदा मारपीट होते भी देखी थी। यह देखकर मुझे बहुत दुःख होता था। इस समस्या का कारण और उसका समाधान भी मुझे मालूम था, परन्तु सोचता था कि उनके घरेलू मामले में मेरा बोलना ठीक रहेगा भी या नहीं।

जब मुझसे और अधिक न देखा गया, तो एक दिन हिम्मत करके मैं उनके घर में गया। मैंने बाबूजी और उनकी पत्नी आंटीजी को पास में बैठाकर उनसे कहा- ‘बाबूजी, मैं आपसे बहुत छोटा हूँ और आपको उपदेश देने के योग्य नहीं हूँ। फिर भी मैं एक बात कहना चाहता हूँ।’ उन्होंने कहा- ‘कहो।’ मैंने कहा- ‘बाबूजी, सर्वेश जी के साथ जो समस्या है, उसके कारण आप हैं।’ यह सुनते ही वे सन्नाटे में आ गये- ‘कैसे?’ मैंने कहा- ‘समस्या का कारण यह है कि आप सर्वेश जी को बाहर वालों के सामने डाँटते और अपमानित करते हैं। उनकी उम्र ऐसी है कि वे बाहर वालों के सामने अपना अपमान बिल्कुल सहन नहीं कर सकते। हताशा में वे गलत-से-गलत कार्य कर सकते हैं। घर से भाग सकते हैं, चोरी कर सकते हैं, यहाँ तक कि आत्महत्या और हत्या तक कर सकते हैं।’

मेरी ये बातें सुनकर वे स्तब्ध रह गये। उन्होंने कभी ऐसे परिणामों की कल्पना भी नहीं की थी। मैंने आगे कहा- ‘बाबूजी, समस्या अभी भी हल हो सकती है। इसका समाधान यह है कि आप इनको किसी भी बाहर वाले के सामने डाँटना एकदम बन्द कर दीजिए। अगर कभी कुछ कहना भी हो, तो घर के अन्दर कहें और इस तरह कि बाहर वालों को पता भी न चले कि क्या बात हुई है। यह आज से ही नहीं इसी क्षण से तय कर लीजिए। अगर आपने ऐसा निश्चय कर लिया तो आपकी आधी समस्या हल हो गयी। बाकी आधी मैं सर्वेश जी से बात करके हल कर दूँगा।’ बाबूजी मुँह से कुछ नहीं बोले, लेकिन उनके हावभाव से लग रहा था कि वे मेरी बात से पूरी तरह सहमत थे। फिर मैं नमस्कार करके चला आया।

इसके दो-तीन दिन बाद मैंने सर्वेश को अपने फ्लैट पर बुलाया। पहले मैंने उन्हें शर्बत पिलाया और इधर-उधर की बातें कीं। फिर मैंने पूछा कि क्या समस्या है? उन्होंने बताया- ‘समस्या कुछ नहीं है। मेरी नौकरी नहीं लगी है, इसी से घर वाले नाराज रहते हैं।’ मैंने कहा- ‘मैंने बाबूजी को समझा दिया है। अब वे आपका अपमान नहीं करेंगे। कोई काम ढूँढ़ने की कोशिश करो। काम लग जायेगा, तो घरवालों को भी शिकायत नहीं रहेगी।’ उन्होंने स्वीकार किया। मैंने आगे कहा- ‘अभी जो काम मिल जाये, उसी को पकड़ लो। बाद में और अच्छा काम खोजते रहना। मैं भी इसमें सहायता करूँगा।’ उन्होंने यह भी स्वीकार कर लिया।

उसके बाद ईश्वर की कृपा ऐसी हुई कि शीघ्र ही उन्हें एक काॅल सेंटर में काम मिल गया। फिर उनके घर का वातावरण भी सुधर गया। धीरे-धीरे उनकी सारी खुशियाँ लौट आयीं। उनके घर के दरवाजे पर हमेशा लगा रहने वाला ताला गायब हो गया। दो-तीन महीने में ही किरण भाभीजी का चेहरा चमकने लगा, जो पहले चिन्ता और डर के कारण कुम्हलाया रहता था। इसके साथ ही उनका वजन भी थोड़ा बढ़ गया। एक दिन मैंने मजाक में कहा- ‘भाभीजी, अब आपकी हैल्थ बहुत सुधर गयी है।’ तो वे शरमाकर हँस पड़ीं। उन्होंने मुँह से भले ही कुछ न कहा हो, लेकिन उनका चेहरा बता रहा था कि वे मेरी कितनी आभारी थीं। मुझे प्रसन्नता है कि मेरे कुछ वाक्यों ने एक अच्छे परिवार की खुशियाँ लौटा दीं।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

5 thoughts on “आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 56)

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , यह कड़ी पड़ने से जिंदगी के कौड़े मीठे तजुर्बे पता चले . हम यहाँ बाहिर रहते हैं , बहुत लोगों ने सोच रखा था कि जब वोह रीटाएर होंगे वहां जा कर आराम से जिंदगी बिताएंगे .इसी लिए बहुत लोगों ने अपने मकान इंडिया में बना लिए थे लेकिन बहुत लोगों के मकान या तो उन के रिश्तेदारों ने अपने कब्ज़े में ले लिए या किराएदार निकले ही नहीं और उन के मुकदमें कोर्टों में पड़े हैं . अब बहुत लोग अपनी ज़मीने और मकान बेच कर अपने पैसे यहाँ ला रहे हैं और यह सब भारत के बुरे कानून की वजह से हो रहा है .
    दुसरे आप ने एक परिवार को पटड़ी पर ला खड़ा किया , यह बहुत अच्छा काम है .

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, भाई साहब ! यही सोचकर मैंने लखनऊ का मकान बेचा था कि किसी ने कब्ज़ा कर लिया, तो मेरा दिन का चैन और रातों की नींद भी हराम हो जाएगी. आगरा में ऐसी कोई चिंता नहीं है.
      हमारे हाथ से जो अच्छा काम हो जाये वह प्रभु की कृपा और जो गलत काम हो उसे मैं अपना दुर्भाग्य मानता हूँ. प्रभु की कृपा और आप जैसे वरिष्ठ जनों के आशीर्वाद से अभी तक सब अच्छे ही काम हो रहे हैं. और मुझे क्या चाहिए?

  • मनमोहन कुमार आर्य

    आज की कड़ी के लिए हार्दिक धन्यवाद। सर्वेश एवं उनके पिता के प्रसंग में आपकी समाधानकारी भूमिका पढ़कर आँखें साश्रु हो गयीं। आपने बहुत पुण्य का यह कार्य किया। आपका यह कार्य प्रेरणादायक एवं स्तुत्य है। आपके लखनऊ स्थित हाउस एवं किरायेदारों के विषय में पढ़कर भी आपकी सूझबूझ, धैर्य व विवेकपूर्ण निर्णय के दर्शन किये। आशा है कि वर्त्तमान में आप अपने परिवार के साथ इस अपने आवास में ही शायद रह रहे होंगे। साभार।

    • विजय कुमार सिंघल

      हार्दिक धन्यवाद, मान्यवर ! उस माकन में रहने का अवसर मुझे कभी नहीं मिला. मैं २० साल तक लखनऊ से बाहर ही रहा. इधर मकान की हालत देखभाल के अभाव में ख़राब होती गयी. उसके दरवाजे, खिड़की, नल, बिजली की फिटिंग तक चोरी हो गयी. मुझे डर था कि कोई नेता उस पर कब्ज़ा न कर ले. इसलिए मैंने उसको बेच दिया और आगरा में खरीद लिया. वैसे भी अवकाश प्राप्ति के बाद हमने आगरा में ही रहना तय किया है, क्योंकि सभी परिवारी और रिश्तेदार वहीँ हैं.
      लखनऊ में जब हम वापस आये तो उससे दो साल पहले ही मैंने मकान बेच दिया था, क्योंकि मुझे यह आशा नहीं थी कि कभी वापस लखनऊ में मेरी पोस्टिंग हो जाएगी. अभी आगरा वाले मकान से मैं प्रसन्न हूँ. वहां देखभाल करने वाले लोग भी हैं. अब हम जब भी आगरा जाते हैं तो प्रायः अपने ही घर में रहते हैं. पहले बड़े भाइयों के यहाँ रहते थे.

      • Man Mohan Kumar Arya

        धन्यवाद जी।

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