कविता

साथ तुम्हारा

गुजरा कल
उदासी भरा था
तय कर रही थी
सूनी रहें
बिना किसी
अनुभूतियों के—-
पता नहीं
तुम
कब शामिल
हो गए
मेरे वजूद में
खामोशी से
जैसे
रज-कण पर
फैल जाती है लहरें
आहिस्ते–आहिस्ते–
मेरी ठंडी हथेलियों पे
जब रखा था तुमने
सुर्ख गुलाब का फूल
दौड़ने लगी थीं
कई हसरतें मेरी
रगों में–
अचानक अनचाहे सपने
उतर आए थे
आँखों में–
मालूम नहीं
वो सिर्फ
एक सुकून भरा
एहसास था
या प्रेम
मैं चाह्ने लगी थी
साथ तुम्हारा
पल- पल
बना रहे
अंत तक जीवन के-
जैसे
साथ साथ रहते हैं
अर्थ—शब्द में
खुशबू — फूल में–
पर तुम
लौट गए
अपनी मंजिल
के जानिब–
और मैं
फिर से
मूर्तिवत
ताक रही हूं
सूनी राहें
इंतजार में तुम्हारे–
उस विश्वास के साथ
जिस विश्वास से
टिका रहता है
कोई फूल
डाली से —
तुम वापस आओगे जरूर
पतझड़ के बाद
लौट आती है बहारें सूने वन में !!

— भावना सिन्हा 

डॉ. भावना सिन्हा

जन्म तिथि----19 जुलाई शिक्षा---पी एच डी अर्थशास्त्र

One thought on “साथ तुम्हारा

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी कविता !

Comments are closed.