आत्मकथा

आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 9)

उस विज्ञापन के आधार पर मुझे दो पत्र मिले। इनमें एक पत्र मै. पुस्तक महल, दिल्ली के स्वामी श्री राम अवतार जी गुप्त का था। उनके द्वारा प्रसिद्ध ‘रैपिडैक्स इंगलिश स्पीकिंग कोर्स’ नामक पुस्तक छापी गयी है, जो बहुत सफल रही है। उन्होंने ही ‘रैपिडैक्स कम्प्यूटर कोर्स’ नामक एक पुस्तक भी छाप रखी थी, जो उन्हीं प्रोग्रामों के बारे में थी, जिनके बारे में मेरी ‘पैनेसिया कम्प्यूटर कोर्स’ नामक पुस्तक उपकार प्रकाशन, आगरा ने छापी थी। गुप्त जी ने मुझे मिलने के लिए दिल्ली बुलाया और यह भी कहा कि अब तक मेरी जो पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं उनकी प्रति दिखाने के लिए साथ लेकर आऊँ। शीघ्र ही मैं कानपुर से गोमती एक्सप्रेस में चढ़कर दिल्ली पहुँच गया और उनसे मिला।

मेरी तब तक छप चुकीं तीनों पुस्तकों को देखकर श्री गुप्त बहुत प्रसन्न हुए और मुझे पुस्तकें लिखने का आॅर्डर देने को तैयार हो गये। उन्होंने मुझसे पूछा कि पुस्तकें किस तरह लिखते हो। तो मैंने बताया कि मैं कागज पर लिखता हूँ और पांडुलिपि प्रकाशक को भेज देता हूँ, जिसको वे अपने कर्मचारियों से कम्प्यूटर पर तैयार करा लेते हैं। उन्होंने कहा कि इसमें तो बहुत समय लगेगा, इसलिए अच्छा हो कि आप कम्प्यूटर पर लिखा करें और फिर हमें साॅफ्टकाॅपी भेजें। मैंने कहा कि मेरे पास कम्प्यूटर नहीं है, फिर भी मैं बाहर किसी अन्य व्यक्ति से कम्प्यूटर पर तैयार करा दूँगा। इससे वे प्रसन्न हो गये।

तब मैंने उनसे कहा कि मेरी दो शर्तें हैं- एक, सभी पुस्तकें मेरे नाम से छपेंगी यानी पुस्तक में मेरा नाम लेखक के रूप में अवश्य होना चाहिए, क्योंकि मैं भूतलेखन नहीं करूँगा। दूसरी, मैं सभी पुस्तकें राॅयल्टी के आधार पर दूँगा, भले ही उसकी एक भी प्रति न बिके अर्थात् पेज के हिसाब से भुगतान नहीं लूँगा। उनको मेरी पहली शर्त पर कोई आपत्ति नहीं थी, लेकिन दूसरी शर्त सुनकर वे सकते में आ गये। उस समय तक (और आज तक भी) किसी भी लेखक ने उनसे राॅयल्टी नहीं माँगी थी। सबको वे पृष्ठों के आधार पर ही भुगतान करते थे और आज भी करते हैं। लेकिन मेरे आग्रह को देखते हुए वे राॅयल्टी आधार पर तैयार हो गये। हालांकि राॅयल्टी की दर मात्र 6 प्रतिशत तय हुई, वह भी छपी हुई कीमत पर नहीं बल्कि कमीशन काटकर प्राप्त हुई कीमत पर। इसका अर्थ है कि यदि पुस्तक की छपी हुई कीमत 100 रु है और उस पर वे 33 रु. कमीशन दुकानदारों को देते हैं, तो मुझे शेष 67 रु. का 6 प्रतिशत अर्थात् लगभग 4 रुपये राॅयल्टी मिलेगी। इस तरह राॅयल्टी की प्रभावी दर मात्र 4 प्रतिशत थी। फिर भी मैं संतुष्ट था, क्योंकि पुस्तक महल का पुस्तकें बेचने का नेटवर्क बहुत बड़ा है और मुझे प्रत्येक पुस्तक बड़ी संख्या में बिकने की उम्मीद थी।

गुप्त जी ने मुझे पुस्तक लिखने के आॅर्डर के साथ ही दो नमूना पुस्तकें भी दीं, जो दूसरे प्रकाशकों ने छापी थीं और वे चाहते थे कि मैं उनसे भी अच्छी पुस्तक तैयार कर दूँ। मैंने उनसे कहा कि मैं निश्चित ही आपकी उम्मीद से भी अधिक अच्छी पुस्तक लिख दूँगा और कम्प्यूटर पर तैयार करा दूँगा। उन्होंने भी अपनी एक शर्त लगा दी, वह यह कि मैं अपनी पुस्तकें किसी अन्य प्रकाशक को नहीं दूँगा, नहीं तो वे सारा भुगतान रोक देंगे। मैंने उन्हें विश्वास दिलाया कि जब तक आप काम देते रहेंगे, तब तक मैं पुस्तकें केवल आपके लिए लिखूँगा। यदि आपके पास काम नहीं होगा, तभी मैं किसी अन्य प्रकाशक के बारे में सोचूँगा। इस पर वे संतुष्ट हो गये।

दिल्ली से मैं सीधा आगरा गया, क्योंकि वहाँ कुछ दिन रुकने की योजना थी। वहाँ मैंने अपने घर वालों को बताया कि मैं दिल्ली में क्या बात करके आया हूँ, तो वे बहुत प्रसन्न हुए और उन्हें कुछ आश्चर्य भी हुआ कि मैं इस तरह की बातें भी कर लेता हूँ।

आगरा से कानपुर लौटकर मैं इस पुस्तक को कम्प्यूटर पर तैयार कराने में जुट गया। उस समय मेरे पास कोई कम्प्यूटर नहीं था और पेजमेकर या क्वार्क एक्सप्रेस का भी कोई ज्ञान नहीं था। इसलिए मैंने इसको तैयार करने का कार्य श्री मनीष श्रीवास्तव को सोंपा, जो हमारे बैंक का डाटा प्रविष्टि का कार्य किया करते थे और उनको पेजमेकर का अच्छा ज्ञान भी था। वे बड़े चौराहे के पास ही रहते थे, इससे मुझे उनसे मिलने जाने की भी सुविधा थी। तब मैंने यह नियम बनाया कि आॅफिस के समय के बाद साढ़े पाँच या 6 बजे उनके पास चला जाता था और अपनी पुस्तक टाइप कराता था। जैसे-जैसे पुस्तक टाइप होती जाती थी, मैं उसका प्रूफ भी जाँच करता जाता था और अपने सामने ठीक कराता था। पुस्तक लगभग 450 पृष्ठों की थी। मुझे आशा थी कि अधिक 2 या 3 महीने में यह पूरी हो जाएगी। परन्तु मनीष जी और उनके पार्टनर श्री संदीप दीक्षित और भी कई काम करते रहते थे। इससे मेरा कार्य देरी से होता था। लगभग 6 माह में वे काम पूरा कर पाये। फिर मैंने उसकी सीडी बनवाकर दिल्ली भेज दी।

कानपुर में प्राकृतिक चिकित्सा

जिन दिनों हमारे भाईसाहब डा. सूरजभान की गुर्दों की चिकित्सा हो रही थी, उन्हीं दिनों मुझे कई बार संजय गाँधी स्नातकोत्तर चिकित्सा संस्थान, लखनऊ (जिसे संक्षेप में पी.जी.आई. कहा जाता है) में जाने का अवसर मिला। उन दिनों मुकेश के एक रिश्तेदार के लड़के पंकज का गुर्दा प्रत्यारोपण भी पी.जी.आई. में हुआ था। तभी मुकेश ने मुझसे यह कहा कि मैं अपने कानों की चिकित्सा भी वहीं करा लूँ। मुझे विचार जँच गया और मैं वहाँ डाक्टरों से मिला। कई टैस्ट हुए, एमआरआई भी करायी, परन्तु डाक्टरों को बीमारी पकड़ में नहीं आयी। उन्होंने मुझे यही सुझाव दिया कि मुझे लगातार हीयरिंग ऐड (कान की मशीन) का उपयोग करना चाहिए, जिससे एक-दो साल में मैं काम चलाऊ सुनने लगूँगा। यह सलाह मिलने पर मैंने लखनऊ में ही एक अच्छा हीयरिंग ऐड खरीद लिया, जो 5 हजार रुपये का था। उस समय मेरे पास पूरे रुपये नहीं थे, इसलिए अपने बैंक के एक अधिकारी श्री सुधीर श्रीवास्तव, जो मेरे साथ वाराणसी में रह चुके थे और उस समय लखनऊ मुख्य शाखा में पदस्थ थे, की जमानत पर दुकानदार ने कुछ रुपये उधार रख लिये, जो मैंने बाद में भेज दिये। मैं नियम से मशीन लगाने लगा और आवाजें पहचानने की कोशिश करने लगा।

तभी मेरा यह विचार बना कि यदि कानों की प्राकृतिक चिकित्सा कराऊँ, तो सम्भव है कि कानों में कुछ सुधार हो जाये और मशीन की सहायता से मैं बातें करने में सफल हो जाऊँ। कानपुर में एक प्राकृतिक चिकित्सक हैं डा. ओम प्रकाश आनन्द। उनका काफी नाम है। उनका मुख्य योग केन्द्र तो मोतीझील पर है, परन्तु चिकित्सा अपने गीता नगर वाले निवास पर फीस लेकर करते हैं। जब मैं मुकेश के साथ उनसे मिला, तो उन्होंने कहा कि 15 दिन यहाँ आकर क्रियाएँ सीखो, फिर घर पर करते रहना। इससे कानों को फायदा हो जाएगा। इस पर विश्वास करके मैं 500 रु. फीस देकर वहाँ 15-20 दिन प्रातःकाल 2 घंटे के लिए जाता था। मैंने वहाँ कई क्रियाएँ सीखीं, बहुत सी पहले से जानता था, साथ में चुम्बक चिकित्सा भी कराई, परन्तु मेरा दुर्भाग्य कि लम्बे समय तक करने के बाद भी मेरे कानों में कोई सुधार नजर नहीं आया। मशीन लगाने से भी कोई लाभ नहीं हुआ और मैं परेशान भी होने लगा, इससे मैंने मशीन लगाना भी बन्द कर दिया। वह मशीन बाद में भी मैंने बहुत दिन लगायी, परन्तु कोई लाभ नहीं हुआ।

महरी के लड़के के घाव की चिकित्सा

यह शायद मई 1997 की बात है। श्रीमती जी और बच्चे छुट्टियों में आगरा गये हुए थे और मैं अकेला ही कानपुर में रह रहा था। हमारे यहाँ एक महरी काम करने आती थी। एक दिन उसने मुझे बताया कि उसके 9-10 साल के बेटे की जाँघ में घाव हो गया है, जिसको 15-20 दिन हो गये हैं और ठीक होने में नहीं आ रहा है। एक डाक्टर रोज उसकी मरहम-पट्टी करता था और 25 रुपये ले लेता था। वह बहुत परेशान हो गयी थी।

मैं उस समय तक घावों पर पुराने स्वमूत्र के अच्छे असर से बहुत परिचित था। अपने और कई लोगों के घाव मैंने उससे ठीक किये थे। मैं एक बोतल में पुराना मूत्र भरकर रखता था। मैंने उसे उस लड़के पर आजमाने की सोची। मैंने महरी को केवल यह बताया कि मेरे पास एक ऐसी दवा है, जिससे घाव केवल 3 दिन में ठीक हो जाएगा। पहले तो उसे विश्वास नहीं हुआ, लेकिन आजमाकर देखने के लिए वह तैयार हो गयी, क्योंकि उसका कोई खर्च भी नहीं होना था।

उसी दिन शाम को आॅफिस से आने के बाद मैं उसके घर गया। उसका लड़का दर्द से बेहाल था। उसकी जाँघ के जोड़ में करीब 3 इंच लम्बा घाव था। उसको छूने पर भी वह चीखने लगता था। रोज पट्टी बदलने पर भी उसे दर्द सहन करना पड़ता था। बड़ी मुश्किल से उसने वह पट्टी खोलने दी। पट्टी खोलकर मैंने देखा कि डाक्टर या कंपाउंडर ने उस घाव में कपड़े का टुकड़ा तह करके ठूँसा हुआ था, जिसमें कोई दवा भी लगी होगी। ऊपर से वह पट्टी बाँध देता था। एक बार तो मैं डर गया और सोचा कि इसे ऐसे ही रहने दूँ। फिर हिम्मत करके वह कपड़ा घाव में से निकाला। लड़का बुरी तरह चीखा, लेकिन कपड़ा निकल आने पर उसे राहत मिली।

तब मैंने पहले तो साफ रुई से उसके घाव को पोंछा, फिर पुराने स्वमूत्र में भिगोकर रुई उस पर इस तरह रख दी कि घाव पूरा ढक गया। पुराना मूत्र जब घाव पर लगता है तो पहले बहुत जलन होती है। लड़का फिर चीखा, लेकिन थोड़ी देर बाद ही शान्त हो गया। फिर मैंने एक पट्टी उस पर इस तरह बाँध दी कि रुई ढक जाये। इसके साथ ही मैंने स्वमूत्र की एक शीशी उसकी बड़ी बहन को दी और कहा कि हर घंटे बाद एक ढक्कन भरकर यह दवा पट्टी के ऊपर इस तरह डालनी है कि भीतर की रुई तर हो जाये। रुई सूखनी नहीं चाहिए। रात में सो जाये, तो दवा डालने की जरूरत नहीं है। मैं सुबह फिर आने की कहकर चला आया। मरहम पट्टी करने वाले डाक्टर ने उस दिन उसे एक गोली भी दी थी, जो रात को खिलानी थी। उस एक गोली की कीमत 36 रुपये थी। महरी मुझसे पूछने लगी कि इस गोली का क्या करूँ। मैंने कहा कि अगर वापस हो जाये, तो कर दो। वह बोली कि वापस नहीं होगी, तो मैंने कह दिया कि खिला देना।

दूसरे दिन सुबह मैं वहाँ गया, तो वह लड़का मजे में पैर लटकाये हुए एक खाट पर बैठा था। मुझे देखकर वह इतना प्रसन्न हुआ, जैसे कोई देवदूत आ गया हो। मैंने उसकी पट्टी खोली। इस बार वह बिल्कुल चीखा-चिल्लाया नहीं, हालांकि दर्द हो रहा था। मैंने पट्टी खोलकर देखा तो वह घाव दोनों ओर से चिपक गया था, जैसी कि मुझे आशा थी। रुई पर काफी खून और मवाद लग गया था, इसलिए मैंने रुई बदल दी और नई रुई को पुराने मूत्र में तर करके फिर बाँध दिया। इसके साथ ही मैंने उसकी बड़ी बहन से कह दिया कि उसी तरह रुई को दवा से तर करती रहो।

संयोग से उसी दिन मुझे रात को मेरठ जाना था। इसलिए बाद में मैं उसे देखने नहीं जा पाया। जब मैं मेरठ से लौटकर आया, तो मैंने महरी से उसके लड़के का हाल पूछा। उसने बताया कि वह घाव तीन-चार दिन में ठीक हो गया था और फिर कभी डाक्टर से मरहम-पट्टी नहीं करानी पड़ी। परन्तु वह मूर्ख औरत यह समझ रही थी कि यह चमत्कार उस 36 रुपये वाली गोली का था, न कि उस दवा का जो मैं लगा गया था।

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

4 thoughts on “आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 9)

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , सारा पड़ा .पुस्तक छपवाने में कितना कुछ करना पड़ता है ,जान कर हैरानी हुई , जो आपने मूत्र चकित्सा की कहानी लिखी , मेरा विशवास है कि इस में बहुत गुण हैं . मुझे याद है ,बचपन में अक्सर हम नंगे पाँव दौड़ते रहते थे और कभी चोट लग कर खून निकलने लगता था तो हम मट्टी पर पिछाब करके मट्टी ऊपर लगा देते थे और कोई इन्फैक्शन नहीं होता था और आराम आ जाता था . इसी तरह जब पैर में काँटा चुभ जाता था तो एक शूल से ही काँटा निकाल कर दांतों पर लगा स्टफ्फ निकाल कर जिस को हम क्रेडा कहते थे लगा देते थे तो कोई इन्फैक्शन नहीं होती थी .

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, भाई साहब ! आपका कहना सच है। मैंने स्वमूत्र का घावों पर कई बार सफल प्रयोग किया है। वह भी तब जब सभी दवायें असफल हो गयी थीं।

  • Man Mohan Kumar Arya

    पुस्तक महल दिल्ली द्वारा आपकी भावी पुस्तक के प्रकाशन में प्राप्त सफलता के लिए आपको हार्दिक बधाई। सारा वृतांत पढ़कर प्रसन्नत्ता हुई। कानपुर में प्राकृतिक चिकत्सा का विवरण और उससे लाभ न होने का वर्णन पढ़ा। मैं समझता हूँ कि इससे कुछ नया अनुभव आपको शायद अवश्य हुआ होगा। लाभ न मिलना दुखद है। ईश्वर कोई चमत्कार कर दें, मन में यह भाव आया है। महरी के पुत्र का आपकी चिकत्सा से घाव ठीक हो गया यह किसी चमत्कार से कम नहीं है। इस सफलता के लिए आपको बधाई। आज की क़िस्त के लिए धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      बहुत बहुत धन्यवाद, मान्यवर !

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