गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

अब बात चाहे जो भी हो,  इतना ज़रूर है,
होना था जिसको पास वो आँखों से दूर है।

माना  कि, बेवफाई बेसबब  नहीं  मगर,
ये  दिल  का आईना तो मेरा, चूर- चूर है।

वो इश्क का नसीब था, बदनामियाँ मिलीं,
तेरा  कुसूर  है, ना  ये, मेरा  कुसूर है।

है जाहिदों को मयकशी पे उज्र किस लिये,
वो ही तो दर्दमंदे – दिले – नासुबूर है.

 

भीगी पलकें  सुखा  लिया  हमने,

दिल को पत्थर बना लिया हमने।

सर्द आहों से सिल लिये लब को,
रूप   सादा   बना  लिया  हमने।

‘होश’, देखो,  कि  किस क़रीने से;
तेरी  फित्रत   छुपा  लिया  हमने।

मनोज पाण्डेय 'होश'

फैजाबाद में जन्मे । पढ़ाई आदि के लिये कानपुर तक दौड़ लगायी। एक 'ऐं वैं' की डिग्री अर्थ शास्त्र में और एक बचकानी डिग्री विधि में बमुश्किल हासिल की। पहले रक्षा मंत्रालय और फिर पंजाब नैशनल बैंक में अपने उच्चाधिकारियों को दुःखी करने के बाद 'साठा तो पाठा' की कहावत चरितार्थ करते हुए जब जरा चाकरी का सलीका आया तो निकाल बाहर कर दिये गये, अर्थात सेवा से बइज़्ज़त बरी कर दिये गये। अभिव्यक्ति के नित नये प्रयोग करना अपना शौक है जिसके चलते 'अंट-शंट' लेखन में महारत प्राप्त कर सका हूँ।

One thought on “ग़ज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी ग़ज़ल !

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