आत्मकथा

आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 28)

आॅफिस का हाल

अब जरा अपने कार्यालय की बात कर ली जाये। जैसा कि मैं बता चुका हूँ, वहाँ तब तक कोई काम नहीं होता था। गिने-चुने अधिकारी थे, जो बेकार बैठे रहते थे। लेकिन लगभग 4 महीने बेकार रहने के बाद हमें काम दिया गया। वास्तव में हमारे बैंक ने एक कम्पनी एच.के. इंडस्ट्रीज का साॅफ्टवेयर खरीदा था और उसका उपयोग स्वयं करना चाहते थे। इस साॅफ्टवेयर में हजारों कमियाँ अथवा छिद्र थे, जिन्हें तकनीकी भाषा में बग कहा जाता है। हमारा कार्य था इस साॅफ्टवेयर को सीखकर उसमें से बगों को निकालना और उसको ठीक करके बैंक की हजारों शाखाओं में चलाना।

इस साॅफ्टवेयर की ट्रेनिंग देने के लिए उस कम्पनी के दो अधिकारी हमारे यहाँ आये। उन्होंने लगभग 2 माह में सारा साॅफ्टवेयर हमारे अधिकारियों को समझा दिया। फिर हमने उस साॅफ्टवेयर में बगों का पता लगाया। प्रारम्भ में ही हजारों बग खोजे गये और उनको ठीक करने का कार्य प्रारम्भ किया गया। प्रारम्भिक बगों को ठीक करके हमने उस साॅफ्टवेयर को एक-दो शाखाओं में चलाकर देखा। चलाने पर फिर बहुत से बगों का पता चला। फिर उनको ठीक किया गया। यह प्रक्रिया लगातार चलती रही।

जैसे-जैसे हम साॅफ्टवेयर को ठीक कर रहे थे, वैसे-वैसे उसका उपयोग शाखाओं में होता जा रहा था। सबसे पहले तो हमने उसका उपयोग ऐसी शाखाओं में किया, जो अभी तक कम्प्यूटरीकृत नहीं थीं। ऐसी शाखाओं के कर्मचारियों और अधिकारियों को उस साॅफ्टवेयर पर कार्य करना सीखने के लिए बुलाया जाता था। लगभग एक सप्ताह में वे इतना सीख जाते थे कि शाखा में जाकर कार्य कर सकते थे। ऐसे प्रशिक्षण कार्यक्रम लगातार तब तक चलते रहे, जब तक उस साॅफ्टवेयर का उपयोग होता रहा।

हम प्रशिक्षण के साथ एक प्रकार का काॅल सेंटर भी चलाते थे। शाखाओं पर कार्य करने वाले अधिकारी और कर्मचारी कई बार कहीं-कहीं कठिनाई अनुभव करते थे और अटक जाते थे। हम फोन पर उनको सलाह देते थे और अधिकांश मामलों में समस्या फोन पर ही हल कर देते थे। जब मामला अधिक गम्भीर होता था, तो हम उनसे उनकी शाखा का डाटा मँगाते थे और उसमें से गलती खोजकर समस्या हल करते थे।

नये अधिकारी

जाहिर है कि इतना सारा कार्य करने के लिए 5-6 अधिकारी बहुत कम थे। इसलिए धीरे-धीरे अधिकारियों की संख्या बढ़ाई गई। सबसे पहले प्रधान कार्यालय से दो अधिकारी आये- श्री नितिन राजुरकर और श्री विक्रम सिंह। दोनों ही बहुत ही योग्य थे। इनके आने के बाद साॅफ्टवेयर को सुधारने का कार्य तेजी से होने लगा।

इनके कुछ समय बाद आई एक बहुत प्यारी लड़की, जिसका नाम है रुचिका। हँसमुख चेहरा, हल्का साँवला रंग, भरा-भरा बदन, लेकिन मोटी बिल्कुल नहीं। वह बहुत योग्य भी है। बैंक में उसकी नयी नौकरी थी। आते ही सारा काम सीख लिया और साॅफ्टवेयर सुधारने के कार्य में सहायता करने लगी। उसका इससे भी बड़ा कार्य था शाखाओं से आने वाले फोन उठाना और उनकी समस्याएँ हल करना। प्रारम्भ में यह कार्य वह और प्रीति सैनी ही किया करती थीं। एक मोटा रजिस्टर इस काम के लिए रखा गया था कि शाखाओं से आने वाली समस्याओं और उनके समाधानों को नोट किया जाये, ताकि आगे के सन्दर्भ के लिए रिकाॅर्ड रहे। वह रजिस्टर ज्यादातर रुचिका की लिखावट से भर गया था।

उस समय ऐसी प्रवृत्ति बन गयी थी कि शाखाओं से आने वाले फोन केवल ये दो महिलायें ही उठाती थीं और बाकी अधिकारी इस काम में रुचि नहीं लेते थे। यह देखकर मैंने फोन उठाने के कार्य की ड्यूटी लगा दी। सबको सप्ताह में बराबर समय तक फोन के पास रहना पड़ता था। एक समय में दो अधिकारियों की ड्यूटी होती थी और एक तीसरा अधिकारी स्टेंडबाई रहता था, ताकि यदि पहले दो में से कोई छुट्टी पर हो, तो वह कार्य सँभाल ले। प्रारम्भ में कुछ अधिकारियों ने ऐसी ड्यूटी लगाने पर बहुत आपत्ति की, लेकिन मेरी दृढ़ता के सामने सब चुप हो गये। ड्यूटी लगाने से महिलाओं को सबसे अधिक प्रसन्नता हुई, क्योंकि अब उन्हें रोज लगातार फोन नहीं उठाने पड़ते थे। ड्यूटी चार्ट मैं समय-समय पर बदलता रहता था। विशेषतः कोई नया अधिकारी आने पर कुछ दी बाद उसकी भी ड्यूटी लगाई जाती थी।

प्रारम्भ में ड्यूटी केवल एक शिफ्ट में लगती थी, लेकिन शाखाओं के काॅल रात 8 बजे तक आते रहते थे। इसलिए दो शिफ्टों में ड्यूटी लगायी जाने लगी। पहली शिफ्ट प्रातः 10 बजे से 3 बजे तक और दूसरी शिफ्ट सायं 3 बजे से 8 बजे तक। सायं शिफ्ट वालों को दोपहर 1 बजे आने की अनुमति दी गयी थी। ड्यूटी चार्ट बनाते समय मैं इस बात का ध्यान रखता था कि सबको बराबर कार्य मिले और किसी को असुविधा न हो। विशेषतः महिलाओं को दूसरी शिफ्ट में नहीं रोका जाता था, क्योंकि मैं किसी भी हालत में महिलाओं को सायं 6 बजे के बाद रोकने के पक्ष में नहीं हूँ। इस प्रकार मैं जो ड्यूटी चार्ट बनाता था, उससे लगभग सभी अधिकारी संतुष्ट रहते थे। आवश्यक होने पर वे पूर्व सूचना देकर अपनी ड्यूटी आपस में बदल भी सकते थे।

फोन काॅलों के साथ-साथ शाखाओं से समस्याओं के पत्र और डाटा भी आते थे। मेरा कार्य था ऐसे सभी पत्रों को एक रजिस्टर में चढ़ाकर अधिकारियों को देना, ताकि वे समस्याएँ हल कर सकें। मैं पत्रों के साथ आने वाली सीडी को भी बाकायदा नम्बर डालकर व्यवस्थित और सुरक्षित रखता था, ताकि किसी भी समय किसी भी शाखा की कोई भी सीडी तत्काल निकाली जा सके। मेरा यह कार्य अधिकारियों को बहुत पसन्द आया, क्योंकि इससे उनका बहुत सा समय बच जाता था। रजिस्टर में प्रत्येक पत्र के साथ यह भी लिखा जाता था कि यह पत्र किस अधिकारी को दिया गया है और उसका समाधान या जबाब किस तारीख को किया गया है। इससे मुझे पता चलता रहता था कि कितने पत्रों पर कार्यवाही हुई है और कितने अभी बाकी हैं। समय-समय पर मैं इस कार्य की समीक्षा करता था और जो पत्र बहुत दिनों से पड़े होते थे, प्रायः डाटा के इंतजार में, उनकी शाखाओं को पत्र लिखकर आवश्यक सूचना या डाटा मँगवाता था।

इस सारी कवायद का परिणाम यह रहा कि कभी किसी शाखा को ऐसी शिकायत नहीं हुई कि उनके पत्रों पर कार्यवाही नहीं की जाती या उनकी समस्याएँ हल नहीं की जातीं। शाखाओं के जो लोग प्रशिक्षण कार्यक्रमों में आते थे, वे हमारे इस कार्य से बहुत संतुष्ट नजर आते थे। हमने शाखाओं को अपने अधिकारियों के मोबाइल नं. भी दे रखे थे और वे कभी भी उनसे सलाह ले सकते थे। इस कार्य के लिए हमारा बैंक कम्प्यूटर अधिकारियों को मोबाइल खर्च के लिए एक हजार रुपये प्रति माह दिया करता था, जिससे सभी अधिकारी प्रसन्नतापूर्वक यह कार्य करते थे।
कार्य की मात्रा बढ़ने पर हमारे संस्थान में कुछ अन्य अधिकारी भी स्थानांतरित होकर आये। उनमें से कुछ के नाम लिख रहा हूँ- सर्वश्री अनिल नेमा, अबनीन्द्र कुमार, संजय कुमार, अनुराग सिंह और संजीव कुमार जिन्दल। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये सभी बहुत योग्य, मेहनती और अपने कार्य में कुशल हैं।

कार खरीदना

पंचकूला में हमारा सामान आ जाने के बाद हमारी गृहस्थी चलने लगी। परन्तु कहीं जाने की समस्या बनी रहती थी। इसका कारण यह था कि हमारे पास आने-जाने का कोई साधन नहीं था। दीपांक के पास एक साइकिल थी, जिससे वह कोचिंग चला जाता था और सिटी बस से अपने विद्यालय में चला जाता था, जो चंडीगढ़ के सेक्टर 27 में था। वाराणसी और कानपुर में रहते हुए हमें कभी साधन की आवश्यकता अनुभव नहीं हुई, क्योंकि वहाँ रिक्शा, टैम्पो आदि की अच्छी सुविधा है। परन्तु एक तो पंचकूला में रिक्शा और टैम्पो आसानी से मिलते नहीं हैं और मिलते भी हैं तो बहुत महँगे पड़ते हैं। इसलिए हमने कार खरीदने का निश्चय किया। काफी सोचविचार के बाद हमने मारुति 800 एसी माॅडल लेना तय किया, क्योंकि इसकी कीमत सही थी और यह काफी लोकप्रिय भी थी। हमने मारुति अल्टो लेने का भी विचार किया था, परन्तु अन्त में मारुति 800 का ही निश्चय किया।

कार के लिए बैंक से 80 प्रतिशत तक लोन मिल जाता है। इसलिए मैंने कार लोन के लिए अपना प्रार्थनापत्र दे दिया। यह प्रार्थनापत्र हमारे सहायक महाप्रबंधक गौड़ साहब चाहते तो स्वयं पास कर सकते थे, परन्तु पता नहीं क्यों वे अपने अधिकारों का प्रयोग करने में घबड़ाते हैं। इसलिए उन्होंने मेरा प्रार्थनापत्र मंडलीय कार्यालय, चंडीगढ़ भेज दिया। वहाँ से पास होकर आने में 15-20 दिन लग गये। इस प्रकार जुलाई 2005 के मध्य में ही हम कार ले सके। कार लेने से हमें बहुत आराम हो गया। हमारी श्रीमती जी ने कानपुर में कार चलाना सीखा था और ड्राइविंग लाइसेंस भी बनवाया था। वह यहाँ बहुत काम आया। पहले हमने एक ड्राइवर रखा, जो था तो अंसारी मुसलमान, लेकिन अपना नाम ‘राजेश’ बताता था। परन्तु एक सप्ताह के अन्दर ही एक ऐसी बात हो गयी कि हमने उसे हटा दिया। वह बात क्या थी, यह लिखना मैं उचित नहीं समझता।

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

4 thoughts on “आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 28)

  • Man Mohan Kumar Arya

    आज की क़िस्त रोचक एवं ज्ञानवर्धक है। बैंक के कार्यों को जिस अपनेपन व नीतिमत्ता से आप करते हैं वह जानकार मन प्रसन्न हो जाता है। आपने ब्रांच की समस्याओं को सुनने के लिए अधिकारियों की रोटेशनल ड्यूटी लगाकर और उसे लागू करवाकर एक महतवपूर्ण कार्य किया जो मैंने अपने जीवन में अपने कार्यालयों में नहीं देखा। प्रायः जो व्यक्ति सीधा होता है व अधिक कार्य करता है उसी पर अधिक कार्य भार थोपा जाता है और चालक चतुर लोग हल्का फुल्का काम करते हैं और उनका रौब भी होता है। आपको अपने विषय का पूरा ज्ञान है और उसका आप भरपूर उपयोग करते हैं। मैंने आपको एक आदर्श अधिकारी पाया है। ऐसे अधिकारी सौभाग्य से ही मिलते हैं। आपकी पूरी ही टीम प्रशंसनीय लोगो से पूर्ण है। हार्दिक धन्यवाद। आज की क़िस्त रोचक एवं ज्ञानवर्धक है। बैंक के कार्यों को जिस अपनेपन व नीतिमत्ता से आप करते हैं वह जानकार मन प्रसन्न हो जाता है। आपने ब्रांच की समस्याओं को सुनने के लिए अधिकारियों की रोटेशनल ड्यूटी लगाकर और उसे लागू करवाकर एक महतवपूर्ण कार्य किया जो मैंने अपने जीवन में अपने कार्यालयों में नहीं देखा। प्रायः जो व्यक्ति सीधा होता है व अधिक कार्य करता है उसी पर अधिक कार्य भार थोपा जाता है और चालक चतुर लोग हल्का फुल्का काम करते हैं और उनका रौब भी होता है। आपको अपने विषय का पूरा ज्ञान है और उसका आप भरपूर उपयोग करते हैं। मैंने आपको एक आदर्श अधिकारी पाया है। ऐसे अधिकारी सौभाग्य से ही मिलते हैं। आपकी पूरी ही टीम प्रशंसनीय लोगो से पूर्ण है। हार्दिक धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      प्रणाम, मान्यवर ! जिस बैंक ने मुझे सब कुछ दिया है, उसके प्रति निष्ठा और ईमानदारी से कार्य करना मेरा कर्तव्य है. मैं उसका निर्वाह करने का प्रयास करता हूँ. आपका आभार !

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    आज की किश्त भी अच्छी लगी . कम्पिऊतर का तो मुझे इतना गियान नहीं है लेकिन बैंकिंग का पड़ कर पता चला कि हम तो बस काऊंटर पर पैसे ले या दे देते हैं लेकिन पीछे कितना कुछ होता है जो लोगों को पता नहीं होता . मारूति कार आप ने ली ,यह कारें अच्छी हैं किओंकि यह सज़ूकी यहाँ भी मिलती हैं लेकिन मरूति नाम नहीं होता .हमारी पड़ोसन हमेशा स्जूकी ही रखती है .

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, भाई साहब ! यह कार अभी तक काम दे रही है. हालाँकि अब चलती कम है. पहले बेटा खूब चलाता था. लेकिन मुझे बैंक से हर महीने ७० लीटर पेट्रोल के पैसे इसके बहाने मिल जाते हैं.

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