राजनीति

जंगलराज बनाम मंडलराज पार्ट – २

मौसम चुनाव का है | वोटों के बारिस से पहले चुनावी जुमलों के बादल उमड – घुमड़ रहे हैं और कुर्सी का सूरज भी लुका – छिपी का खेल खेलने में मस्त है | इन जुमलों में कुछ तो सच भी परिलक्षित हो ही जाते हैं जो भविष्य की ओर ईशारा भी करते हैं | जरूरत है समझने की और समझकर भविष्य निर्धारण करने की |

बिहार विधान सभा चुनाव के सन्दर्भ में उपरोक्त जुमला उभरकर सुर्ख़ियों में आया जो किसी भी बुद्धिजीवी वर्ग को सोचने के लिए मजबूर किये दे रहा है |

मंडलराज और जंगलराज पार्ट–२ तो भविष्य के गर्त में लटका पड़ा है | पार्ट – १ के ही दंश से जूझता बिहार अब तक उबर नहीं पाया है, जिसके परिणाम स्वरूप भूख, गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा और अराजकता स्पष्ट दीख रहा है, जब महानगरों में बिहारी मजदूरों की बढती संख्या पर दृष्टि जाती है या यूँ कह सकते हैं जब त्योहारों के मौसम में अपने घरों को लौटते लोगों की संख्या स्थानीय रेलवे स्टेशनों पर एक जनसैलाब का रूप दिखता है तो बिहार की वस्तविक तस्वीर उभरकर नजरों के सामने नाचना लाजमी है |

आखिर ऐसा क्यों ? एक यक्ष प्रश्न खड़ा कर जाता है | यह उमड़ता जन सैलाब जो विकास और कानून-व्यवस्था की डपोरशंखी दावे की हवा निकाल जाती है | ऐसे जन सैलाब विकास के दावे करनेवालों का मुँह चिढा जाते है |

बात सत्ता के उस पडाव से शुरू होती है जब केंद्र में जे० पी० आन्दोलन से जन्मे नेता स्व० विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्त्व और कांग्रेस विरोधी विभिन्न विचारधारओं के तथाकथित एकजुटता के रूप में देश पल रहा था | प्रत्यक्षत: सत्ता का आकार एक नारंगी जैसा दिखता जरुर था, पर अंदर की फांकों में सबके अलग-अलग आस्तित्त्व के अरमान परवान चढ़ रहे थे | इसी क्रम में लालकृष्ण अडवाणी के नेतृत्त्व ने राम मन्दिर निर्माण को मुद्दा बनाकर पूरे देश में रथ-यात्रा निकालने में संलग्न थे | इस रथयात्रा की लोकप्रियता से घबराकर सभी तथाकथित असम्प्रदायिक विरोधी ताकतों ने देश की सत्ता में पुन: काबिज होने के उद्देश्य से मंडल कमीशन की घोषणा क्र दी और बिहार में अडवाणी गिरफ्तार कर लिए गये | इसके बाद सत्ता के बाजीगरों द्वारा जो घिनौना खेल खेला गया, वह तो बिहार ही नहीं पूरे देश के लिए कलंक से ज्यादा और कुछ नहीं हो सका |

मंडल राज के जातिवादी जहर भरे मंजर की कल्पना मात्र से ही रोम-रोम सिहर उठता है | मंजर कुछ ऐसा बना था, जहाँ अगडी जाति की बाहुल्यता होती तो पिछड़े पिट जाते और जहाँ पिछड़ों की बाहुल्यता होती तो अगड़े पिट जाते | निकृष्टता की पराकाष्ठा तो तब और भयभीत कर जाते जब लोगों को बसों और रेल के डब्बों से जाति पूछ-पूछकर उतारकर प्रताड़ित किया जाने की एक क्रूर परम्परा सी बन गयी थी | जहाँ मानवता सरेआम तार-तार शर्मसार हो जाती थी | जहां अगडी जाति का प्रतिनिधित्त्व मुख्यतया क्षत्रीय जाति के लोग करते होते तो वहीं पिछड़ी जाति का प्रतिनिधित्व यादव, कुर्मी एवं अन्य जाति वर्ग के लोग | अगडी-पिछड़ी जातियों में खासकर युवावर्ग मानसिक विक्षिप्तता की चरम सीमाएं लांघ रहे थे | मंडलराज की धधकती ज्वाला को हवा देने का काम, कांग्रेस के विरोध में चल रहे श्री जे० पी० अंदोलन से जन्मे कुछ जातिगत जज्बा से पले नेता बखूबी अंजाम दे रहे थे | स्थिति तो यहाँ तक पहुंच चुकी थी की प्रशासनिक अमला भी जातिग्रस्त मानसिकता से फैसले लेने लगा गया था | यह एक ऐसा जहर था, जिसका असर आज तक बिहार ही नहीं देश के के रग-रग में समाया हुआ है और यही कारण भी है कि उसके बाद के चुनावों का आधार भी जाति के आधार पर ही लड़ा जाता रहा है | और अगर यही स्थिति रही तो भविष्य में भी चुनावों का आधार भी जाति ही होगा | इसमें कहीं से शंका नहीं व्यक्त की जा सकती |

वैसे तो इस विखंडीकरण खेल की शुरुआत हिन्दू-मुस्लिम के बाद हिन्दुओं को जाति के आधार पर टुकड़ों में बाँटने का निकृष्ट कार्य अंग्रेजों द्वारा उनके शासन काल से ही प्रारम्भ हो चुका था, जिसके प्रमाण स्वरूप आज भी पुलिस और सेनाओं के भोजनालयों में स्पष्ट परिलक्षित हो रहे हैं | इतना ही नहीं धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर भी पूजा-पद्धतियों के अनुसार अलग-अलग पूजा स्थल का निर्माण भी सामाजिक विखंडीकरण का विजयपताका फहरा रहा है |

जिस “बांटो और राज करो” की नीति से ग्रस्त देश के सतालोलुप नेताओं ने संविधान के तहत, सदियों से दबी-कुचली अछूत मान्यताप्राप्त जाति के लिए आक्रोश की अग्नि में आरक्षण रुपी घी डालने का काम बखूबी निभाया | प्रश्न ये नहीं है कि अच्छा किया या बुरा ?

इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता की उन आर्थिक और समाजिक रूप से पिछडी जातियों का शोषण नहीं किया गया हो | निश्चय ही वे समाज के सम्भ्रान्तों द्वारा शोषित और उपेक्षित रहे | उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाने का कार्य राजनैतिक इच्छाशक्ति श्रेयस्कर ही कही जायगी |

मगर आरक्षण का जो रूप वर्तमान में दीख रहा है, क्या वह न्याय संगत है ? जाति के नाम पर चंद समृद्ध लोग ही लाभ क्यों पा रहे हैं ? यह भी एक विचारणीय यक्ष प्रश्न खड़ा कर जाता है और जो नहीं पा रहे, वे भी अब आंदोलनरत हो रहे हैं | राष्ट्रीय सम्पत्ति को नुकशान पहुँचाने के साथ-साथ समाज में ईर्ष्या, द्वेष, घृणा और कटुता फैलाने से भी बाज नहीं आते | सिर्फ और सिर्फ अपने निजी स्वार्थ के खातिर | अपनी जाति के आर्थिक रूप से पिछड़ों के खातिर कतई नहीं, बल्कि उनको ढाल बनाकर निश्चित ही स्वार्थ में लिप्त लोग तो जरुर मिल जायेंगे |

आजतक कोई भी आन्दोलनकारियों का अगुआ तथाकथित नेता पुलिस की गोलियों का शिकार नहीं हो पाया | या तो वे अपनी गिरफ्तारी देकर खुद को सुरक्षित कर लेता है या फिर भूमिगत हो जाता है | ऐसे रक्तबीज कभी नहीं मरते या मारे जा सकते | फिर मरते भी वही लोग हैं, जो जाति के नाम पर जातिगत आरक्षण के लिए इन स्वार्थलोलुप नेताओं द्वारा बरगलाए गये होते हैं |

इसी संकुचित और स्वार्थलोलुप सत्ता के भिखारियों ने तत्कालीन आपातकाल के विरुद्ध जे० पी० के सुनहरे सपनों को बलि चढानेवाले लोग, अपने एक राजनैतिक प्रतिद्वन्दियों को नीचा दिखाने के निमित्त मंडल कमीशन का आन्दोलन आरक्षण के नाम पर घिनौना खेल खेलने से बाज नहीं आये और समाज को कलंकित ही नहीं किया बल्कि स्पष्टत: विभाजित भी कर दिया | और कुछ किया या नहीं किया मगर, राख तले की छिपी चिंगारी को हवा देने का काम तो कर ही गया |

अब तो हर कुंएं में भांग पड़ी है | इससे यू० पी० बिहार ही नहीं, बल्कि पूरा का पूरा देश जातिवाद बनाम अगडे-पिछड़े के जहर से जूझ रहा है | सभी जाति के नाम पर जाति का मुखौटा लगाकर सत्ता की मलाई काट रहे हैं | नहीं तो क्या कारण है कि आरक्षण का लाभ चंद लोगों में ही सिमटकर रह गया है और दलितों – पिछड़ों की स्थिति बद से बदत्तर हुई जा रही है | बेरोजगारी, गरीबी, और बदहाली बढती ही चली जा रही है | जाति के नाम पर नंगा लूट की छूट के नाम पर और क्या पाया लोगों ने ?

यह भी एक प्रमुख कारण रहा बिहार, यू० पी० के अलावे पूरे देश को अराजकता की स्थिति में पहुँचाने के लिए जातिवाद के नाम पर अपराधिक छवि के लोगों को राजनैतिक सत्ता में सहभागी बनाना और सबसे बड़े मुखिया (नियंत्रक) के रूप में सत्ता का संरक्षण देना क्या राजनीति को प्रदूषित नहीं कर चुका ?

ऐसी ही अराजकता की स्थिति से जूझता बिहार आज उद्योगविहीन हो चुका है | छोटे-मोटे उद्योग भी वही चल पा रहे हैं, जो सत्ता तन्त्र और अराजक तत्वों से तालमेल कहें या उन्हें लाभ में हिस्सेदार बना रखे हैं | इन परिस्थितियों में यू० पी० बिहार में उद्योग की कल्पना भी बेईमानी प्रतीत होती है | ऐसे में राजनेता उद्योगपतियों को लुभाने के नाम पर यात्रा या यात्राभत्ता का भरपूर आनन्द तो उठा ही रहे हैं | साथ में सरकारी कोष, चाहे राज्य का हो या केंद्र का, बन्दरबांटी व्यवस्था के तहत कब तक और कितना प्रगति कर पायेगे ? जो एक मूल प्रश्न खड़ा करता है जबकि जनसंख्या वृद्धि अनिवार्यत: चलता रहेगा जिसे नियंत्रित करने के लिए विद्यालयीय भोजन में जहर, चिकित्सा व्यवस्था लचर और कानून-व्यवस्था भगवान भरोसे के अलावे और भी कई अन्य रास्ते खुल चुके हैं |

और उसी अराजक स्थिति से कराहते बिहार पिछले १९९०-२००५ तक को जंगलराज की संज्ञा से नवाजा गया जहां कानून व्यवस्था ध्वस्त ही नहीं हुआ बल्कि एक जाति विशेष के चंगुल में फंसकर दम तोड़ चुका था | रंगदारी और अपहरण का बाजार गर्म था जिसके हिस्सेदार राजनेता भी हुआ करते | इस आशंका को निर्मूल तो कहा ही नहीं जा सकता |

पिछले २००५ में सत्ता परिवर्तन के साथ थोड़ी राहत लोगों ने जरुर महसूस की | मगर, “आसमान से गिरा तो खजूर पर अटका” की स्थिति में आ गया बिहार | यह भी एक प्रमुख कारण रहा की आज तक लुभावने वादों के वावजूद भी एक भी बड़े उद्योग बिहार में नहीं लगे | उपरोक्त तथ्यों को देखते हुए यह कहना भी अतिश्योक्ति नहीं होगी कि मंडल राज पहले और जंगलराज बाद में समानांतर चलते रहे |

अब बात, मंडलराज और जंगलराज पार्ट-२ की खासकर यू० पी०, बिहार के सन्दर्भ में | ऐसी मान्यता रही है कि गुजरा कल ही अच्छा था तो आनेवाला कल और भी भयानक और अराजक होगा यदि पार्ट-२ के लोगों का सत्ता पर नियन्त्रण होगा तो | जिसका सपष्ट संकेत राजनितिक मंचों से एक जाति प्रमुख यदुवंशी नेता उन्माद में दे भी चुके हैं | जबकि उन्हें यदुवंशी का ज्ञान ही नहीं | वे ही नहीं कई लोग गोपाल और गौपाल का शाब्दिक अंतर ही नहीं समझ रहे | ऐसी बातें खुलेआम मंच से कहना तो मात्र जातिगत उन्माद को बढावा देने के अलावे और कुछ भी नहीं | पता नहीं, ये बिहार के लोगों और चुनाव आयोग को धमकी थी या चेतावनी | दोनों परिस्थितियों में आयोग और आम जनता को चेतने की आवश्यकता है | साथ ही यह भी निश्चित है कि चुनाव के बाद राज्य सत्ता की थोड़ी सी भी ढिलाई बिहार के जनता को अराजकता के धधकती ज्वाला में धकेल देगी |

अब देखना यह होगा की आम जनता क्या जाति, भाषा, सम्प्रदाय के आधार पर मतदान करती है या मंडल और जंगलराज पार्ट-२ का रसास्वादन करना चाहेगी ? आखिर निर्णय तो आमजन को ही करना है |

अंतत: इसी निष्कर्ष के साथ की आम जनता को बड़ी समझदारी और विवेकपूर्ण निर्णय के साथ चुनाव में अपने मताधिकार का प्रयोग करना होगा स्वयं के लिए भी और अपनी आनेवाली पीढी के लिए।

श्याम स्नेही

श्री श्याम "स्नेही" हिंदी के कई सम्मानों से विभुषित हो चुके हैं| हरियाणा हिंदी सेवी सम्मान और फणीश्वर नाथ रेणु सम्मान के अलावे और भी कई सम्मानों के अलावे देश के कई प्रतिष्ठित मंचों पर अपनी प्रस्तुति से प्रतिष्ठा अर्जित की है अध्यात्म, राष्ट्र प्रेम और वर्तमान राजनीतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों पर इनकी पैनी नजर से लेख और कई कविताएँ प्रकाशित हो चुकी है | 502/से-10ए, गुरुग्राम, हरियाणा। 9990745436 ईमेल-snehishyam@gmail.com

One thought on “जंगलराज बनाम मंडलराज पार्ट – २

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    जनता के वोट का क्या कोई अर्थ है
    नितीश जी लालू जी के विरोधी धारा चलाते हैं और जीत जाते हैं फिर जीतने के लिए गले मिल जाते हैं

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