संस्मरण

मेरी कहानी 86

काबल एअरपोर्ट पर जब हम लैंड हुए तो देखा इर्द गिर्द सभी तरफ पहाड़ ही पहाड़ थे। यह पहाड़ तो हम को जहाज़ में बैठे बैठे ही दिखाई दे रहे थे क्योंकि हम इन के ऊपर ही उड़ रहे थे। इतने पहाड़ ज़िंदगी में कभी नहीं देखे थे। अफगािनस्तान को जितना भी हम जानते थे ,बस काबल कंधार के नाम से ही जानते थे। एयरपोर्ट पर जो पुलिस वाले घूम रहे थे काफी खुश हो कर हम से बातें कर रहे थे क्योंकि वोह उर्दू भी बोलते थे। हमारी इस फ्लाइट में सभी पंजाबी ही थे और ज़्यादा तर गाँवों से आये लोग ही थे। बहुत से तो बज़ुर्ग मरद औरतें थे जो अपने रिश्तेदारों से मिल कर वापस पंजाब आ रहे थे। इन सभी के पास भारी भारी सोने के गहने थे। बज़ुर्गों ने मोटे मोटे कड़े , अंगूठीआं और गले में मोटी मोटी चेनें पहने हुए थे। सोने से हम भारतीओं को बहुत लगाव है और सोना उस वक्त पांच छै पाउंड तोला ही होता था। जो तन्खुआह उस वक्त इंगलैंड में मिलती थी ,उस हिसाब से भी इंगलैंड में यह बहुत सस्ता होता था। इस लिए लोग अक्सर इंडिया को जाते वक्त सोने के भारी गहने ले जाया करते थे।

जहाज़ में बैठे लोगों का नज़ारा अभी भी मुझे याद है। बहुत लोग ऐसे थे जो शायद कभी अपने गाँव से भी बाहर नहीं गए होंगे और कुछ साल इंग्लैन्ड में रहने के बावजूद वोह वैसे ही दिखाई दे रहे थे जैसे अभी भी गाँव में ही रह रहे हों। इस बात का ज़िकर मुझे एक अफगानी पुलिस अफसर ने भी किया था कि इन लोगों पर बिदेश में रहने के बावजूद कोई फरक नहीं पड़ा था। एक बज़ुर्ग पर तो मेरा दोस्त जसवंत बहुत हँसता था। वोह बज़ुर्ग हमारी साइड की रो में ही बैठा था। उस ने जो पगड़ी सर पे बाँध रखी थी बहुत बुरी तरह बाँधी हुई थी और उस के सर के बाल पगड़ी की तैहों से बाहर को झांकते हुए दिखाई दे रहे थे। लगता था उस को जहाज़ की सीट में बैठना मुश्किल लग रहा था और वोह सीट पर पैरों के बल बैठा था। एक दो दफा एयर होस्टैस ने उस को कहा भी लेकिन वोह फिर उसी तरह बैठ जाता।

सबसे बुरी बात उस को जहाज़ में दिया हुआ खाना अच्छा नहीं लगता था। पहले तो खाने की ट्रे में उस को यह ही नहीं समझ आता था कि वोह उस को कैसे खाए। जब भी एयर होस्टैस आती , उसको कहता ,” बीबी ! यह ले जा ,मुझे तो एक बुक चावल का ला दे ” और साथ ही वोह अपने दो हाथों से बुक्क बना कर दर्शाता। जसवंत बहुत हंस पड़ता। कभी यह बज़ुर्ग अपनी पगड़ी सर से उतार देता और उस को खोल कर झटके देता और फिर सर पे बाँध लेता। उस की कलाई पर बड़ा सा सोने का कड़ा था। जसवंत उस को कहने लगा ,” बाबा ! यह कड़ा तो दिखाना !” . बज़ुर्ग ने जसवंत को घूर कर देखा और चुप रहा। अब यह बज़ुर्ग काबल एयरपोर्ट पर हमारे साथ घूम रहा था। उस के हाथ में बैग था।

कुछ देर बाद एक आदमी आया ,पता नहीं कौन था वोह ,आते ही बोला ,” आप के luggage पर कुछ गलत लेबल लगे हुए हैं , कृपा अपने अपने सूट्केसों के नज़दीक खड़े हो जाएँ, हम सब दरुस्त करना चाहते हैं । एक कमरे में जहाज़ में से निकाले गए सभी सूटकेस एक लाइन में रखे हुए थे। सभी अपने अपने सामान के पास खड़े हो गए। मैं भी अपने अटैचकेस के नज़दीक खड़ा हो गिया जो हरे रंग का था और मैंने नया ही लिया था। एक आदमी आया और मुझे कहने लगा ,” यह अटैचीकेस तो मेरा है “. मैं हैरान हो गिया क्योंकि मैंने तो अटैचीकेस पर एक कपडे का छोटा सा टुकड़ा भी बाँध रखा था और दुसरी बात यह थी कि मैंने उस पर अपना नाम भी लिखा था लेकिन वोह स्याही से लिखा नाम किसी कारण मिट गिया था लेकिन उस का निशाँन अभी भी कुछ कुछ था। मैंने जोर दे कर कहा ,” सरदार जी यह मेरा है “. वोह शख्स घबराया सा चले गिया ,मालूम होता था ,उस को अपने अटैचीकेस की पहचान नहीं थी। सभी का सामान चैक हो गया और हम बाहर आ गए और कैफे से चाय केक खाए।

कुछ देर बाद एक एरोप्लेन रनवे पर लैंड हुआ। यह प्लेन फ्रूट के बक्सों से भरा हुआ था। फ्रूट के बक्से अनलोड किये गए और इस के बाद जहाज़ में सीटें फिक्स की जाने लगीं .यह देख कर हम बहुत हैरान हुए। सीटें फिक्स करते करते काफी घंटे हो गए आखर में वोह वक्त भी आ ही गिया जब हम जहाज़ के अंदर बैठ गए। सूर्य ढल रहा था। इंजिन स्टार्ट हुआ और कुछ ही मिनटों में हम फिर हवा में उड़ने लगे। आधा पौना घंटा ही हुआ था जब हम अमृतसर शहर के ऊपर उड़ रहे थे। कोई लड़की लाऊड स्पीकर से बोली कि हम हरिमंदर साहब के नज़दीक आ गए हैं। सभी नीचे देखने लगे। नीचे हरिमंदर साहब दीख रहा था और लोग हाथ जोड़ कर वाहेगुरु वाहेगुरु बोल रहे थे। कुछ ही मिनटों में हम राजासांसी एअरपोर्ट अमृतसर पर लैंड हो गए।

एरोप्लेन की सिड़िओं से हम नीचे उतरे तो देखा दस बारह पुलिस के आदमी खड़े थे ,देखते ही इंडिया की पुरानी यादें आने लगीं। कुछ लोग धीरे धीरे बोल रहे थे ,यह यमदूत यहां किया कर रहे हैं ? . इतने वर्ष इंग्लैण्ड में रह कर यह भारत की पुलिस से पता नहीं कियों एक भय सा लगा। यहां ही रनवे पर उन्होंने सभी के पासपोर्ट चैक किये। चैकिंग के बाद सभी आगे जाने लगे। रनवे के एक तरफ लोहे की तार की फैंस बनी हुई थी और इस के बाहर एक बीस बाइस वर्ष का लड़का हाथ में एक सोटा पकडे गाये भैंसें चरा रहा था और हमारी तरफ भी देख रहा ,सोच रहा होगा ,काश वोह भी कभी एरोप्लेन में बैठ सके। एयरपोर्ट बिल्डिंग के नज़दीक हम पहुंचे तो देखा बिल्डिंग की छत पर बहुत लोग बैठे थे ,हो सकता है वोह अपने अपने रिश्तेदारों को लेने आये हों।

यह एयरपोर्ट अभी नई नई ही खुली थी और यह एक मिलिटरी एयरपोर्ट ही होती थी। इस की बिल्डिंग ऐसी थी जैसे एक बस अड्डा हो। जब हम अंदर आये तो उस समय सारा काम रजिस्टरों पर लिख कर ही होता था ,कोई कम्प्यूटर नहीं होता था। कस्टम में हर कोई घबराया सा दिखाई दे रहा था। रोज़ एक ही फ्लाइट आती थी और कस्टम अधिकारी पैसे बनाने के चक्क्र में होते थे। अटैचीकेस खोल खोल कर सब को परेशान करते और कुछ लोग बचने के लिए पाउंड दे रहे थे। मेरे और जसवंत के पास ना तो कोई सोना था ना ही कोई इलैक्ट्रीकल चीज़ ,इस लिए हम जल्दी ही बाहर आ गए। बाहर आये तो जसवंत के चाचा जी आये हुए थे और जसवंत हम को सत सिरी अकाल बोल कर चले गिया। इधर मेरे पिता जी और मामा जी जो अमृतसर में ही रहते थे आये हुए थे। पिता जी के पास रौलीफ्लैक्स कैमरा भी था ,जिस से उन्होंने फोटो खींची।

एयर लाइन की ओर से एक बस पहले ही वहां खड़ी थी जिस ने हमें रिट्ज़ होटल तक ले जाना था। सभी अपना अपना सामान कुलिओं से बस के ऊपर रखवा रहे थे। मैंने भी अपना अटैचीकेस एक कुली से ऊपर रखवा दिया और पिता जी और मैं बस में बैठ गए। मामा जी के पास अपना स्कूटर था। आधे घंटे में ही बस रिट्ज़ होटल के बीच बने कार पार्क में आ कर खड़ी हो गई। हम बाहर आ गए और कुली सामान उतारने लगे। जब सारा सामान उत्तर गिया तो मेरे अटैचीकेस का नामोनिशान भी नहीं था। हम घबरा गए क्योंकि मैंने तो रौलीफ्लैक्स कैमरा भी अटैचीकेस में रख दिया था। कुली से पुछा तो वोह कहने लगा कि सरदार जी ! सारा सामान तो आ गिया है। घबराया हुआ मैं बस की छत पर चढ़ के देखा तो वहां कुछ नहीं था। पैनिक की स्थिति में मैंने रिक्शे वाले को जो पास ही खड़ा था जल्दी बोला एयरपोर्ट!! और मैं रिक्शे में बैठ गिया।

होटल से निकल कर हम सड़क पर आ गए लेकिन रिक्शे वाला बहुत धीरे चला रहा था। कुछ देर बाद रिक्शे वाला मुझे बोला ,किस रास्ते पर चलना है ?. यह सुन कर मैंने उसी वक्त रिख्शे से छलांग लगाईं और भागय से एक टैक्सी आ रही थी। मैंने उसे रोका और उसे एयरपोर्ट को जाने के लिए बोला और उसे तेज चलाने को कहा। पंद्रां मिनट में हम एयरपोर्ट पहुँच गए। मैं टैक्सी से उतरा और एयरपोर्ट बिल्डिंग की तरफ जाने लगा। जब मैं ब्रांडे में पहुंचा तो देखा वहां दो अटैचीकेस पड़े थे ,एक मेरा और एक किसी और का । अटैचीकेसों के ऊपर दो कोट पड़े थे। मैंने कुछ नहीं देखा ,अपना अटैचीकेस उठाया, टैक्सी में रखा और टैक्सी वाले को बोला ,रिट्ज !

मैंने यह भी देखना मुनासब नहीं समझा था कि कोई मुझे देख रहा था या नहीं, या कौन इन अटैचीकेसों का मालक बन बैठा था। जब हम रिट्ज़ पुहंचे तो पिता जी उदास एक कुर्सी पर बैठे थे। जब उन्होंने मुझे देखा तो उठ खड़े हुए और मेरी तरफ देखा। मैंने मुस्करा कर कहा ,मिल गिया !. इस के बाद इसी टैक्सी वाले को हम ने अमृतसर बस स्टेशन को जाने के लिए बोला। बस स्टेशन पर पहुँच कर ,टैक्सी वाले ने जितने पैसे मांगे मैंने उस से ज़्यादा उस को दे दिए लेकिन मुझे याद नहीं कितने पैसे दिए थे ,वोह भी खुश हो गिया और बस में बैठ कर फगवाड़े की तरफ जाने लगे। कुछ ही घंटों में फगवाड़े पहुँच कर हम ने सालम तांगा किया क्योंकि उस वक्त टाँगे ही होते थे और एक घंटे में राणी पुर के अपने ही खेतों के नज़दीक आ गए।

खेतों की तरफ देख कर एक उल्हास सा आ गिया ,पुरानी यादें वापस आ गईं लेकिन कुछ कुछ बदला सा भी लग रहा था। कूंएं की जगह अब ट्यूबवैल लगा हुआ था और एक तरफ एक मैसी फर्गूसन का ट्रैक्टर खड़ा था जो पिता जी ने लिया हुआ था। कुएं के ब्रिक्ष कुछ बदले हुए लगे। आम और जामुन के बृक्ष है ही नहीं थे। कुछ ही देर में हम घर आ गए। माँ दादा जी और छोटे भाई निर्मल सभी आ गए। निर्मल को तब ही देखा था जब वोह मुझे फगवाड़े ट्रेन तक छोड़ने आया था। अब बड़ा हो गिया था। भतीजा अपनी माँ के साथ अफ्रीका चले गिया था। घर में कोई ख़ास बदलाव नहीं था। माँ बहुत खुश थी। पिताजी बाहर चले गए और माँ रोटीआं पकाने लगी। बहुत देर बाद माँ के हाथ की बनी हुई रोटी खाई , मज़ा आ गिया। एक दफा मास्टर विद्या प्रकाश ने बोला था ,east or west ,home is the best ,और आज मुझे इस के अर्थ समझ आये थे ,कितना खुश था मैं !

हमारा यह मकान काफी बड़ा था और बेछक बहुत अच्छी किचन नीचे बनी हुई थी लेकिन शुरू से ही सैकंड फ्लोर पर बनी किचन ही इस्तेमाल किया करते थे और अब भी उसी तरह किचन ऊपर ही थी। मैंने अपना चुबारा देखा जिस में मैंने कुछ तस्वीरें बना कर ऊपर टंगी हुई थी ,वोह अब भी वहां ही थीं और निर्मल ने भी उस में कुछ इज़ाफ़ा किया हुआ था। वोही ट्यूब लाइट कमरे में थी। सभी तरफ देख देख कर पता नहीं मुझे किया मिल रहा था। माँ कमरे में आई और बोली, किया लाया है मेरे लिए ?. मैंने अपना अटैचीकेस खोला और सब कुछ दिखाने लगा। कपडे निकालते निकालते मेरी निगाह एक रुमाल पर पड़ी जो मेरा नहीं था। मैंने उठाया ,उस में कोई चीज़ बाँधी हुई थी जो कुछ भारी भारी लगी। वैसे ही मैंने बोला कि यह रुमाल मेरा तो है ही नहीं था ,फिर यह कहाँ से आ गिया !

यूं ही मैने रुमाल को खोला ,मैं हैरान हो गिया ,उस में बहुत भारी एक सोने का कड़ा था। कहाँ से यह आ गिया ,मेरी समझ में नहीं आया। माँ बोली ,जरूर तूने ही लिया होगा ,तुझे याद नहीं आ रहा होगा। मैंने कहा कि मेरी यादाश्त इतनी कमज़ोर नहीं थी। सोचने लगा कि सोने में मेरी रूचि कभी हुई ही नहीं थी और फिर भी सोना अपने आप मेरी झोली में गिर गिया था। इस कड़े के बारे में मुझे आज तक समझ नहीं आई कि कहाँ से मेरे अटैचीकेस में आ गिया। हो सकता है किसी ने गलती से मेरा अटैचीकेस अपना समझ कर बस पर से उतार लिया होगा और उस की चाबी भी मेरे अटैचीकेस को लग गई होगी और उस ने कड़ा रुमाल में बाँध कर अटैचीकेस में डाल दिया होगा ,या फिर जब काबल एयरपोर्ट पर एक आदमी ने कहा था कि यह अटैचीकेस उस का था ,उस को ही गलत फैहमी हो गई हो और उस ने ही अमृतसर बस से मेरा अटैचीकेस उतार लिया होगा । कुछ भी हो जैसे कड़ा आया था वैसे ही चला गिया था ,जिस के बारे में लिखूंगा।

रात बहुत हो चुक्की थी। माँ रसोई में ही सोया करती थी ,सो वोह सोने के लिए चल पड़ी, निर्मल पहले ही चले गिया था। मैंने जालंधर रेडिओ लगा लिया और खियालों में खो गिया क्योंकि सुबह मैंने कुलवंत को मिलने के लिए जाना था।

चलता . . . . . . . . . .

 

4 thoughts on “मेरी कहानी 86

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते एवं धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी. क़िस्त पूरी पढ़ी जिसमे काबुल और अमृतसर हवाई अड्डों की बातें भी शामिल हैं। आपके संदूक में से जो कड़ा निकला वह अवश्य ही किसी ने उसमे डाला है। यह गलतफहमी के कारण हुआ लगता है। जिसका रहा होगा वह घर जाकर और उसे न पाकर दुखी हुआ होगा। कभी कभी उसके बारे में सोचा करता होगा। विजय जी की बात भी कुछ कुछ ठीक हो सकती है। संसार में माता पिता से बढ़कर कुछ नहीं होता। आप को माता पिता मिले, यह दिन आपकी जिंदगी का सबसे मूल्यवान और खूबसूरत दिन रहा होगा. सादर।

    • मनमोहन भाई ,धन्यवाद . अगर यही कड़ा मुझे इंग्लैण्ड में मिला होता तो उस समय के हिसाब से पुलिस को सौंप देता .और अगर कोई दावेदार आगे ना आता तो पुलिस मुझे वापस दे देती लेकिन यह बात इंडिया में संभव नहीं थी किओंकि कई झूठे दावेदार पैदा हो जाते . यह कड़ा कैसे आया ,इस के कारण कई हो सकते हैं लेकिन फिर भी यह एक मिस्ट्री ही रहेगी .

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत रोचक कहानी, भाई साहब ! वह कड़ा जरूर उन सरदार जी का होगा, जो एक बुक्क चावल माँग रहे थे।

    • हा हा विजय भाई ,वोह सरदार जी भी एक लतीफा ही थे ,हो सकता है उस का ही हो . जब मेरा अतैचिकेस किसी ने बस से उतार लिया था ,हो सकता है उस ने ही अपना समझ कर डाल दिया हो ,या कस्टम में ही कस्टम अधिकारीओं की अतैचिकेसों की फोला फाली करते हुए मेरे अतैचिकेस में गिर गिया हो किओंकि सब अतैचिकेस पास पास ही टेबलों पर पड़े थे लेकिन यह सब अंदाज़े ही हैं .

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