राजनीति

गर्व नहीं, शर्म करो और शर्म नहीं, यथोचित कर्म करो

किसी भी हमले या घटनाक्रम में सेना के जवान या पुलिसकर्मी शहीद होते हैं तो हम सभी उनके लिए आंखों में पानी भरने और उन पर गर्व करने का फ़तवा जारी कर मुक्त हो जाते हैं I अधिकांश मामलों में यह भी भूला दिया जाता है कि उनके परिवार को अधिकारसम्पन्न पेंशन शुरू हुई या कि परिजन बेवजह के परम्परागत धक्कों में आकण्ठ खो चुके हैं I यह भी कि नेताओं द्वारा घोषित किया गया मुआवजा उनके परिवार को मिला अथवा लालफीताशाही के कारागार में आजीवन कारावास भोग रहा है ? परिजन को अनुकम्पा नियुक्ति मिली अथवा दफ्तरों के चक्करों में उसकी भी जिन्दगी शहादत को प्राप्त हो रही है I

बड़ा सवाल यह है कि क्या इसे ही जवानों की शहादत से उऋण होना कहते हैं, क्या हमारे गर्व करने का यही परम उद्देश्य होता है ?

मेरी अपनी दृष्टि में तो आंखों में पानी भरने और गर्व करने की बात ही प्रकारान्तर से अपने निजी राष्ट्रीय कर्तव्य से हाथ झटकना और पलायन करना है I

शब्दशः तो स्मरण नहीं है परन्तु कुछ सालों पहले किसी घटनाक्रम में सेना अथवा पुलिस के जवानों की शहादत पर किसी राष्ट्रीय स्तर के नेता ने उसे उनकी सेवा से जुड़ी साधारण घटना बताया था I

सेना या पुलिस के जवान की मौत ही क्यों किसी भी व्यक्ति की मौत एक साधारण और स्वाभाविक घटना ही है I कहा भी तो है कि “आएं हैं सो जाएंगे राजा रंक फ़कीर I” पूर्णावतार भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि मृत्यु, वस्त्र बदलने की तरह सामान्य घटना है I हमारा चिकित्सा विज्ञान कहता है कि जन्म और मृत्यु का चोलीदामन का साथ है I

तो क्या अपने बच्चे की किसी भी कारण से हुई अकाल मृत्यु पर हम गर्व करेंगे ? क्या बीमारी से अकाल मौत पर आंखों में पानी भरेंगे ?

शहीदों की अकाल मृत्यु को भले ही हम गर्व का विषय मानें परन्तु क्या उनके देशसेवा के अनुपम और अतुलनीय जज्बे को असमय मौत का उपहार दिया जाना उचित है ? विवाह के तुरन्त बाद या बच्चे के जन्म के बाद या नौकरी लगते ही यौवन के उन्मादी सोपान पर खड़े युवा सैनिकों का आतंकवादी हमलों का शिकार हो जाना सहज घटना है ? क्या यह सेना या पुलिस का जवान होने का स्वाभाविक और सहज परिणाम और पुरस्कार है ? देशभर में आतंकवाद की  बेमिसाल व्यापकता के लिए आखिर दोषी कौन हैं ? क्या हम नहीं हैं ? सबसे बड़ा दोष हमारा है I शहीदों की शहादत को सहजता से भुलाकर हमने मान लिया कि “दे दी हमें आज़ादी बिना खड्‌ग बिना ढाल

साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल” …. I

कितनी महान गलतफहमी ? समूचे देशवासियों की सामूहिक हिमालयीन भूल ?

एक ऐतिहासिक तथ्य का उल्लेख प्रासंगिक होगा I

इंग्लैण्ड की संसद में तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री मि. एटली ने स्वीकार किया था कि “हम लोगों ने भारत को आजादी देने का निर्णय इस कारण लिया है कि भारतीय फौजें अब हमारे प्रति वफादार नहीं हैं और हम लोग भारतीय फौजों के बिना भारत पर राज्य नहीं कर सकते I”

इस तथ्य को अंग्रेज इतिहासकार मि. मुसले ने इस प्रकार स्वीकार किया है “जिन दिनों हम लोग भारत को आजादी देने का निर्णय ले रहे थे, सुभाषचन्द्र बोस का भूत हमारे दिमागों पर छाया हुआ था I”

गांधीजी महान नेता थे, मान्य हो सकता है I परन्तु अंग्रेजों की शातिराना रणनीति सफल हुई और आजादी के असली हीरो यानी लाखों शहीदों की अविस्मरणीय शहादत को विस्मरण के ब्लैकहोल में बिना किसी विरोध के ही सहजता से डाल दिया गया और गांधीजी को आजादी का एकमात्र हीरो बना दिया गया I एक भयावह और दूरगामी भ्रम पूरे देश में व्याप्त हो गया कि स्वतन्त्रता अहिंसा से मिली है I भीख में मिली है और हम भिखारी हैं तथा खून खराबें से कुछ भी हासिल नहीं हो सकता है ? जबकि शहीदों के बलिदान और “तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा” का नारा एकदम सटीक था I इस बात को हमारी रगों, पीढ़ियों और डीएनए (जींस) में कूट कूटकर भरना होगा कि आजादी बिना कीमत चुकाए नहीं मिली है I

“अहिंसा परमो धर्म” गांधीजी द्वारा प्रचारित एक दिव्य श्लोक का अर्द्धांग है, एक आधा अधूरा पक्षभर है I उसके अगले हिस्से को किस मकसद से अप्रचारित और गोपनीय रखा यह विचारणीय है I पूरा श्लोक है अहिंसा परमो धर्म, धर्म-हिंसा तथैव च I”  इस श्लोक के दूसरे भाग का अर्थ है “धर्म की रक्षा के लिए हिंसा भी श्रेष्ठ है” यहाँ धर्म का मतलब अपने परिवार, अपने देश की रक्षा करना आदि है | अहिंसा के इस दुष्प्रचार के चलते हमने अपनी लाखों किलोमीटर की जमीनें नहीं भारतमाता के पावन शरीर को खो दिया है I हमेशा गांधी के सिखाए अनुसार दूसरा गाल सामने करते रहे हैं और अपने देश में पनप रही राष्ट्र विरोधी हरकतों को जानते बूझते नजरअंदाज करते रहे हैं I इस अहिंसा के चलते स्कूलों में खेलकूद यानी शारीरिक व्यायाम का पीरियड ही बन्द कर दिया गया I तरुण और युवा पीढ़ी अपनी नैसर्गिक बल सम्पन्नता के मामले में गरीब होती जा रही है I मलखम्ब थामने वाले हाथों में तकली और रूई थमा दिए गए और सूत कातने को देश की रक्षा का पर्याय बना दिया गया था I

आज देश के प्रत्येक नागरिक में देशभक्ति का जज्बा भरने की जरूरत है I इसके लिए सघन रूप से ठोस प्रयास करना होंगे I शिवाजी महाराज, चन्द्रगुप्त, चाणक्य, महाराणा प्रताप, झांसी की रानी, वीर सावरकर, मंगल पाण्डे, भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद, असफाकउल्ला जैसे शहीदों का जीवनचरित्र जन्मघुट्टी की तरह सभी उम्र के नागरिकों में जिस किस तरह से दिलोदिमाग में स्थापित करना होगा I आतंकवादियों के सहयोगियों और उनका समर्थन करने वालों के साथ समयोचित व्यवहार करना होगा, चाहे वह कितना ही प्रभावशाली क्यों न हो, सामाजिक बहिष्कार भी किया जाना चाहिए I जनता को सेना का खुलकर साथ देना होगा I

मैं फिर से कहूंगा गर्व नहीं, शर्म करो, शर्म नहीं यथोचित कर्म करो I

जयहिन्द, भारतमाता की जय I

आने वाले दिनों में इसकी दूसरी किश्त भी जरूर देखिएगा – शर्मनाक है कि आजादी के सात दशकों में कुपोषण के सर्वनाश की बजाय हमने उसे महिमामण्डित कर “राष्ट्रीय शर्म” की स्थिति तक पहुंचा दिया और फिर भी अपनी स्वास्थ्य नीति में आमूलचूल परिवर्तन नहीं कर रहे हैं I इस राष्ट्रीय शर्म के चलते हर साल सिर्फ ट्यूबरकुलोसिस नामक रोग ही ही बीस लाख नए नागरिकों को अपना शिकार बना लेता है और उसमें से चार लाख हर साल शहीद हो जाते हैं, क्या इनकी शहादत देश के लिए गर्व का विषय है ?

डॉ. मनोहर भण्डारी

One thought on “गर्व नहीं, शर्म करो और शर्म नहीं, यथोचित कर्म करो

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    हमारे देश के लीडर निपुन्सक हो गए हैं .पाकिस्तानिओं में मरने का जज्बा है ,तभी तो आजादी के दिन से ले कर आज तक हमारे लोगों को शहीद करते चले आ रहे हैं .पता नहीं कौन सी मजबूरी है इन की . आर्थिक घुटाले करने से इन्हें कोई डर नहीं लगता .

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