संस्मरण

मेरी कहानी 98

बहन और बहनोई सेवा सिंह चले गए थे और एक दिन कुलवंत के भुआ फुफड़ जी जो चैटहैम में रहते थे आ गए। पंजाब की रवायत कि लड़की को घी देने जाना है, उस रसम के मुताबक वोह आ गए और कुलवंत के लिए बहुत से मेवे और बटर का एक बॉक्स ले आये। बच्चों के लिए बहुत से कपडे और एक गहना भी लाये। बुआ फुफड़ की चैटहैम में अपनी दूकान थी, इस लिए वोह बड़ीआ से बड़ीआ कपड़े लाये। फिर बुआ ने खुद ही कुलवंत के लिए दाबड़ा बनाया। इस दाबड़े के बारे में कुछ लिखना चाहूँगा कि यह दाबड़ा एक ऐसी चीज़ है जो बच्चा होने के बाद माँ को खिलाया जाता है और कुछ हफ्ते इसे खाने के बाद माँ की सिहत जल्दी अच्छी हो जाती है। बिदेशी लोगों में तो ऐसी कोई रवायत नहीं है क्योंकि पछमी देशों में तो खुराक ही ऐसी होती है कि जिस में सब तत्व मिल जाते हैं लेकिन भारत में ऐसी कोई ख़ास सुविधा नहीं है, इस लिए माँ बाप अपनी बेटी के लिए यह सब चीज़ें ले कर जाते हैं जिन से दाबड़ा बनता है। यह दाबड़ा बहुत ताकत देने वाला होता है क्योंकि इस को बनाने में जो चीज़ें इस्तेमाल की जाती हैं वोह सभी विटेमन भरपूर होती हैं क्योंकि इस में घी, सूंठ, आटा, गुड़ या खंड, बादाम, पिस्ता, चारे मगज़, सौंफ, चार गोंद, सौगी, कमरकस, फुल मखाने और कुछ और चीज़ें पड़ती हैं और यह सभी चीज़ें सिहत के लिए बहुत अच्छी होती हैं। वैसे भी यह दाबड़ा खाने में बहुत स्वादिष्ट होता है। अब यहां की लड़किओं में से कुछ खा लेती हैं लेकिन कुछ नहीं। यह दाबड़े का रिवाज़ पता नहीं कब से चला आ रहा है लेकिन ऐसा लगता है कि पुराने ज़माने में काम बहुत सख्त होते थे। मर्द बाहर काम करते थे और औरतें या तो खेतों में काम करती थी या घर में ही बहुत काम थे जैसे चक्की से आटा पीसना, चरखा चलाना और खादी के कपड़े बनाना। औरतों का काम मर्दों से कोई कम नहीं होता था, इस लिए बच्चा होने के बाद दाबड़ा एक ताकत देने वाली ग़िज़ा होता था। इस से जल्दी सिहत नॉर्मल हो जाती थी।

एक दिन रह कर बुआ फुफड़ चले गए और अब एक दिन कुलवंत की दूर से रिश्ते की बुआ फुफड़ और उस के बच्चे आ गए। इन बुआ फुफड़ ने जो पियार दिया और अभी तक दे रहे हैं, उस की कीमत का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। जिस दिन वोह सब आये, उस दिन बाहर धूप खिली हुई थी और बुआ के बच्चे सुरिंदर, जिन्दी और निंदी हमारे बेटे को बाहर गार्डन में ले गए। हमारे बेटे संदीप को सुरिंदर ने अपने हाथों में पकड़ा हुआ था। मैं कैमरा ले आया। पहले एक पेपर पर लिखा ” i am 18 days old “और इस पेपर को बेटे संदीप की फ्राक पर रख दिया और फोटो खींची। उस दिन बेटा 18 दिन का हो गिया था और वोह फोटो उस समय की याद दिलाती रहती है जिस दिन बेटा 18 दिन का हुआ था। एक दिन बहादर कमल भी आ गए और खूब मज़े किये। लिखना भूल ना जाऊं, बहादर का भाई हरमिंदर कमल के आने से कुछ दिन बाद ही इंडिया को जाने के लिए तैयार हो गिया था । जब मैंने टेलीफून किया तो वोह हंस कर कह रहा था कि वोह इंडिया जा रहा है। जब मैंने पूछा कि वोह इंडिया जा कर किया करेगा तो हंस कर बोला कि वोह खेती करेगा। मैं भी हंसने लगा कि उस ने तो कभी बैल भी पकड़ा नहीं था, फिर खेती कैसे करेगा। वोह कहने लगा कि वोह अब हमेशा के लिए इंडिया ही रहेगा और कभी वापस इंगलैंड नहीं आएगा। मुझे उस की बातों पे कोई यकींन नहीं था, मेरा खियाल था कि वोह कुछ ही हफ़्तों बाद वापस आ जाएगा लेकिन जब उस को इंडिया गए कई महीने हो गए तो हम तकरीबन उस को भूल ही गए क्योंकि उस का इंडिया से भी मुझे कभी कोई खत नहीं आया था।

अब हमारा परिवार खुशिओं से भरपूर था। गाड़ी ले कर हम घुमते रहते, कभी बहादर के घर कभी बुआ के घर और कभी गुरमुख बलबीर के घर। कभी कभी हम कौलसियम सिनिमें में कोई फिल्म देखने चले जाते। यह सिनिमा डडली रोड पर होता था। तीनों बच्चों को हम ले जाते। यह सिनिमा बहुत पुराना होता था और इस के अंदर जाते ही अजीब सी बदबू आती थी, इस की दीवारों का पलस्तर टूटा हुआ था और सीटें भी बहुत पुरानी लकड़ी की होती थीं। बेटे को कुलवंत गोदी में बिठा लेती और दोनों बेटियां मेरे पास बैठ जातीं। एक दफा हम फिल्म महल देखने गए। आधी फिल्म देखि थी कि रीटा ने उलटी कर दी। चारों तरफ बदबू फ़ैल गई। उसी वक्त हम बाहर आ गए और घर को चल दिए। जब भी कभी कौलसियम की याद आती है तो वोह बात भूलती नहीं और यह बात रीटा को भी अभी तक याद है। दिन ख़ुशी ख़ुशी बीत रहे थे। बहादर और मैं अपनी अपनी पत्निओं और बच्चों को ले कर बाहर जाते ही रहते थे। अब हमारा संदीप तकरीबन छै सात महीने का हो गिया था। एक दिन हम दोनों परिवार ब्रिजनौरथ को गए। ब्रिजनौरथ के पास एक नदी है और ब्रिजनौरथ छोटा सा टाऊन बहुत ऊंचाई पर है, जिस पर चढ़ने के लिए एक मोनोरेल लगी हुई है। यह मोनोरेल एक बस जैसी है और बिजली से धीरे धीरे ऊपर की ओर तिर्शी लिफ्ट की तरह चढ़ती जाती है। हम सभी उस में बैठ कर ऊपर चले गए। ऊपर बाजार था। हम बाजार में घूमने लगे और आगे गए तो देखा कि वहां रोमन के ज़माने के खण्डरात थे। उस वक्त कमल भी गर्वावस्था में थी और कुछ महीने तक कोई अच्छी खबर आने वाली थी। यह ब्रिजनौरथ का मैंने सिर्फ इस लिए ही लिखा है कि मैंने कमल जो उस वक्त प्रिंटड साड़ी में थी, बहुत खुश थी और मुस्करा रही थी तो मेरे मन में विचार आया कि इस दफा बहादर को बेटे की ख़ुशी मिलेगी। यह बात आज तक मैंने किसी को नहीं बताई, कुलवंत को भी नहीं क्योंकि इस छोटी सी बात को इस लिए मैं ने किसी को नहीं बताया कि पता नहीं सब लोग मुझे किया समझेंगे। आज मैं यह सरप्राइज़ लिखना भूलना नहीं चाहता था। सारा दिन घूम कर हम वापस आ गए।

कुछ महीने बाद सुबह सुबह बहादर हमारे घर आया, उस के हाथ में मठाई का डिब्बा था, मुस्करा कर बोला, “कमल को बेटा हुआ है “. सच्च ? कुलवंत ख़ुशी से झूम उठी, मैं भी खुश हो गिया। उस दिन बहादर बहुत खुश था, बहुत देर तक हम बातें करते रहे। फिर बहादर ने हमें कहा कि उन की बेटी किरण कुछ दिन के लिए हमारे घर रहेगी, जब तक कि कमल हस्पताल से वापस आ नहीं जाती। मुझे याद नहीं कि हम कमल को देखने हस्पताल गए थे या नहीं लेकिन बहादर किरण को हमारे यहां छोड़ गिया था। पिंकी रीटा और किरण तीनों एक जैसी थीं और तीनों खुश थीं। मैं भी तीनों को बच्चों की कहानीआं सुना सुना कर हंसाता रहता था । एक दिन किरण उदास हो गई और रोने लगी। हम ने बहुत कोशिश की कि वोह खुश हो जाए लेकिन वोह रोये जा रही थी। अपने माँ बाप को छोड़ना बच्चे के लिए बहुत मुश्किल होता है, फिर वोह बच्चा जो कभी माँ बाप से इलग्ग हुआ ही ना हो। हम भी घबरा गए कि अब किया कीआ जाए। फिर बहादर को टेलीफून कर ही दिया। मुझे याद नहीं शायद रात को ही बहादर आ कर किरण को ले गिया। यह दिन बहुत ख़ुशी के थे क्योंकि कुलवंत की ओर से मैं अब निश्चिंत हो गिया था।

एक दिन जब मैं काम से वापस आ रहा था तो हमारे नज़दीक की एक गैरेज BARLOW MOTORS के पास आ कर खड़ा हो गिया और कारें देखने लगा। वहां सौ के ऊपर कारें खड़ी थीं जो फौर सेल थीं। एक एक करके मैंने बहुत सी कारें देखीं। एक कार मुझे बहुत अच्छी लगी और यह थी Triumph vetesse 2000 . गोरा बार्लो बाहर आ गिया और मुझे कार के बारे में बताने लगा कि इस कार का इंजिन 2000 सी सी था और इस के पांच गेअर थे। आज तो 2000 सी सी इंजिन नॉर्मल ही है लेकिन उस समय इतना बड़ा इंजिन बहुत कम लोग लेते थे क्योंकि पैट्रोल ज़्यादा खर्च होता था और उस समय आम गाडिओं के चार गेअर ही होते थे। इस गाड़ी में पांचवां गेअर लीवर स्टीयरिंग वील के नीचे था और यह पांचवां गेअर सिर्फ मोटर वे पर जब गाड़ी तेज़ चलानी हो तब ही इस्तेमाल होता था । एक और बात भी थी जो मुझे बहुत अच्छी लगी, वोह थी SUN ROOF .मैंने उसी वक्त डिपॉज़िट दे दिया और घर आ कर कुलवंत को बताया, कुलवंत खुश हो गई। दूसरे दिन बैंक से पैसे ले कर मैंने गाड़ी खरीद ली और घर ले आया। जवानी की उम्र और बच्चों की ख़ुशी, मैंने सभी को कार में बिठाया और टाऊन से बाहर ले गिया। कार इतनी पावरफुल थी कि ऐक्सेलरेटर पैडल को पैर लगते ही तेज हो जाती। काम से आ कर रोज़ मैं कुलवंत और बच्चों को बाहर ले जाता। एक दिन हम ने बहन को मिलने जाने का प्रोग्राम बना लिया। बहन बहनोई ने अब घर बदल लिया था और मौरस एवेन्यू से अब बीहाइव लेन पर आ गए थे।

एक शनिवार को हम घर से लंदन को चल पड़े। उन दिनों MOTOR WAY M 6 अभी बनी नहीं थी, पहले बर्मिंघम से कौवेंट्री तक A 45 पर जाना होता था और कौवेंट्री से M 1 शुरू हो जाती थी जो सीधे लंदन तक जाती थी और उस वक्त भी SPEED LIMIT 70 माइल पर आवर ही होती थी। यह 120 मील का सफर भी एक मज़ेदार होता था। यूं तो मोटर वे पर थोह्ड़ी थोह्ड़ी दूरी पर शानदार कैफे बने हुए हैं लेकिन इंडियन लोगों में GRENADA कैफे ही ज़्यादा लोग प्रिय होता था और यहां आ कर कई एकड़ में बनी हुई कार पार्क में कार खड़ी करके या तो कैफे से कुछ खाने को ले लेते या घर से ही पराठे बना कर ले जाते थे और वहां बैठ कर मज़े से खाते और चाय कौफी कैफे से ले आते थे । जब हम कौवेंट्री से M 1 पर चढ़े तो आज कार ड्राइव करने का मज़ा ही और था। कुछ देर बाद ही जब मैंने गाड़ी को पांचवें गेअर में डाला तो गाड़ी जैसे हवा में उड़ने लगी। स्पीड लिमिट तो 70 मील ही थी लेकिन मैंने गाड़ी को टैस्ट करने के लिए स्पीड 90 मील कर दी जो तकरीबन 130 किलोमीटर बनती है। मुझे गाड़ी चलाने में बहुत मज़ा आ रहा था लेकिन कुछ मील चल कर ही स्पीड 70 कर दी क्योंकि पुलिस का डर भी था। आज तो छोटी छोटी गाड़ियां सौ मील तक जा सकती हैं लेकिन उस समय आम गाड़ियां ऐसी थीं कि 60 70 मील पर जा कर ही बाइब्रेट करने लगती थी। हम बहन के घर पहुँच गए। रात को बैहनोई साहब के और दोस्त भी अपनी अपनी पत्निओं के साथ आ गए थे। बहुत मज़े किये और दूसरे दिन शाम को घर आ गए। बेटा एक साल का होने वाला था। बेटे ने 27 सतम्बर को एक साल का हो जाना था, इस लिए 26 को ही हम ने समोसे बगैरा बना लिए और केक भी ले आये। कुछ चीज़ें तैयार हो गई, बस दूसरे दिन सिर्फ पकौड़े ही तलने थे। बर्थडे कोई ख़ास नहीं मनाना था, सिर्फ टंडन की फैमिली ने ही आना था।

सुबह को मैंने काम पर छै सात वजे जाना था, इस लिए 9 वजे के करीब हम सो गए। सुबह तकरीबन तीन चार वजे मुझे एक भयानक सपना आया। मैं अपने गाँव में घूम रहा हूँ और घूमता घूमता एक ऐसे कूंएं के नज़दीक पहुँच जाता हूँ जो मेरे बचपन के समय में हुआ करता था और यह कूंआं उजड़ा हुआ था। इस के नज़दीक ही एक बड़ा आम का बृक्ष था। इस कूंएं के साथ ही पगडंडी थी जिस पर लोग जाते आते थे। इस कूंएं का पानी काफी ऊपर था जिस पर हरा हरा बूर था। पगडंडी कूंएं के बिलकुल साथ ही थी और उस पर चलते चलते मैं कूंएं में गिर गिया हूँ। मैं अपने हाथ पैर चलाता हूँ और शोर मचाता हूँ कि मुझे बाहर निकालो, मुझे बाहर निकालो लेकिन यह शोर मेरे गले में ही रह जाता है और आवाज़ गले से बाहर नहीं निकलती । मेरा सांस रुक रहा है और मैं घबरा कर बिस्तर से उठ जाता हूँ। कुलवंत और बच्चों की ओर देख कर मैं फिर सो जाता हूँ। यह बृहस्तपतिवार का दिन था। सुबह उठ कर मैं काम पर चले गिया। दो तीन वजे काम से घर आ गिया। शाम को टंडन उस की पत्नी तृप्ता और उन के बच्चे दीपी राजू और रेखा आ गए। केक काटा गिया, बच्चों ने मज़े किये लेकिन पता नहीं मेरा दिल आज इतना खुश नहीं था। बेटा एक साल का हो गिया था और हम रोज़ की तरह अपनी ज़िंदगी के कामों में वयसत हो गए।

एक हफ्ते बाद इंडिया से मेरे छोटे भाई का लिखा खत आया, पड़ कर लगा जैसे मैं फट गिया हूँ। भाई ने थोह्ड़े से शब्दों में लिखा था कि 27 सतम्बर को पिता जी हमारे खेतों में उजड़े हुए कूंएं में गिर कर इस दुनिआ से चले गए। ठीक उसी दिन जब हम बेटे की सालगिरह मना रहे थे और उधर गाँव में हमारे घर में मातम छाया हुआ था।

चलता. . . . . . . . . .

2 thoughts on “मेरी कहानी 98

  • मनमोहन कुमार आर्य

    नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। लेख पूरा पढ़ा। स्वप्न एवं पिताजी के दुखद समाचार को पढ़ने से पूर्व मन की स्थिति प्रसन्नता की बनी हुई थी जो बाद में इन समाचारों को पढ़कर से दुःख में बदल गई। आपको जो स्वप्न आया वह इन्टुशन हुआ लगता है। पिता का होना एक छायादार वृक्ष की तरह होता है। जिसके माता पिता जीवित होते हैं वह निश्चिन्त रहता है। उनके जाने से जीवन में एक खालीपन सा आ जाता है जो काफी समय बाद दूर होता है। किसी अपने प्रिय के जाने से मन वैराग्य से भर जाता है। कुछ भी अच्छा नहीं लाग्र्ता। आपकी ही तरह मैने भी दिसम्बर १९७८ में पिता की मृत्यु का दुःख अनुभव किया था। आपके जीवन की इस दुखद घटना से इसके बाद के समाचार जानने की तीव्र इच्छा उत्पन्न हो गई है। अगली किश्त की प्रतीक्षा है। मेरा कंप्यूटर आज ही ठीक हुआ है। तुरंत मैंने अपने पिछले ६ दिनों के लेख अपलोड किये और आपकी आत्मकथा को पढ़ा। साइट खोलने से पहले पहले श्री विजयजी को साइट न खुलने की चिठ्ठी लिख कर तैयार कर ली थी। भेजने से पहले सोचा एक बार खोल कर देखता हूँ। साइट खुल गई और उस पत्र को डिलीट कर यह काम कर डाले। सादर।

    • मनमोहन भाई ,यह ख़ुशी की बात है कि जयविजय की साईट खुल गई वर्ना हर दम यही लगता है कि कुछ खो गिया है . आप ने मेरी आज की किश्त पडी और प्रतिक्रिया के धन्यावाद . मैं बहुत खुश था किओंकि अब बेटा हो गिया था जो पत्नी की चाहत थी और मेरी भी थी ,अगर बेटी हो जाती तो मुझ को तो कोई ख़ास फरक ना होता लेकिन पत्नी मुरझा जाती . इस के एक साल बाद ठीक उसी दिन जब बेटा एक वर्ष का हुआ ,पिता जी चले गए . कहते हैं कि जीवन एक संगर्ष ही है किओंकि इस में आख़री दम तक मुसीबतों का मुकाबला करते रहना पड़ता है .लेकिन यह तो विधि का विधान है ,एक दिन हम भी चल देंगे .आप ने भी देखा ही है कि पिता जाने के बाद कैसा महसूस होता है लेकिन धीरे धीरे जिंदगी के पहिये फिर से पथ पर चलने शुरू हो जाते हैं .

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