गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

 

आप कह दो मिरी खता क्या है ।
दरमियां अपने अब रखा क्या है ।

इश्क का रोग लग गया मुझको
दर्दे-दिल की मिरे दवा क्या है ।

भेजना चाहता हूँ खत उनको
मेरे महबूब का पता क्या है ।

मोल मत कीजिये मुहब्बत का
प्यार के सामने पैसा क्या है ।

जख्म पे जख्म दे रहा मुझको
मेरे अंदर उसे दिखा क्या है ।

ख्वाब में रात कट रही मेरी
तू बता दे मुझे हुआ क्या है ।

धर्म बेदर्द क्यों हुए इतने
मुझसे कह दो माजरा क्या है ।

— धर्म पाण्डेय

One thought on “ग़ज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    बेहतरीन ग़ज़ल !

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