लघुकथा

सम्मान

चौधरी साहब लगातार बड़बड़ा रहे थे, इधर कुआँ उधर खाई। मना किया था बाहर निकलने को पर आधुनिक बनने चलीं थीं माँ बेटी।लो और निकलो।साहब के आवारा लड़के की नजर पड़ी और शादी का पैगाम आ गया।नहीं कहूँगा तो पार्टी से,पद से हाथ धोना पड़ेगा। कर दूँ तो बेटी का जीवन हराम।
अंततः डर हावी हो गया। शादी की शहनाई बजने लगी। बारात दरवाजे आ लगी। दूल्हा नशे में सराबोर देख सबके सामने लड़की ने वरमाला तोड़ कर फेंक दी।मैं नहीं करती ऐसे लड़के से शादी। नेता जी कुछ बोलते इससे पहले ही लड़की की सहेली जिसके मार्फत लड़की ने अपने बचाव के लिए स्त्री सम्मान प्रकोष्ठ में सुरक्षा हेतु याचिका भेजी थी, ने महिला पुलिस को इशारा कर दिया।सादे वस्त्रों में महिला पुलिस दीवार बनकर खड़ी हो गयी।
“सौरी पापा, आपने मेरा सम्मान किया होता तो मैं भी आपका मान रखती”, कहते हुए लड़की सुरक्षित निकल गयी।

#निवेदिता

One thought on “सम्मान

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छा और प्रेरक लघुकथा.

Comments are closed.