लघुकथा : विश्वास की लौ
मंदिर की सीढ़ियों पर बैठे बैठे आज सुरेखा अतीत की यादों में खो गयी। उसे याद आ गया वो दिन जब पाँच वर्ष पूर्व वो इस मंदिर में पहुँची थी। मंदिर के पुजारी ने उसे सहारा न दिया होता तो आज वो न जाने कहाँ भटक रही होती।
पति की मृत्यु के कुछ समय बाद ही बेटे बहु को वो बोझ लगने लगी थी। उनकी ज्यादतियों से परेशान होकर उसने घर छोड़ने का फैसला लिया। सोचने लगी कहाँ जाऊँ, कोई भाई बहन या नज़दीकी रिश्तेदार भी पास नहीं। इतने पैसे भी नहीं कि कहीं दूर चली जाऊँ। लेकिन उसने मन में ठान लिया और जब घर के सब लोग अपने काम में व्यस्त थे, उसने कुछ जरुरत की चीज़ें अपनी पोटली में बाँधीं और नज़रें चुराकर घर से बाहर निकल गयी। कोई देख न ले इस डर से जल्दी जल्दी चलने लगी, उसे पता ही नहीं चला कि वो अपने गाँव से दूर कहाँ निकल आई है। उसमें इतनी हिम्मत आ गयी थी कि अँधेरे से व सूनसान राह पर भौंकते कुत्तों से भी डर नहीं लग रहा था। सोचने लगी पति जीवित होते तो ये दिन नहीं देखना पड़ता।
ऐसे ही सोचती मन में ईश्वर को याद करते करते वो बहुत दूर निकल गयी। देखते ही देखते अँधेरा गहरा होता चला गया। वो घबराने लगी पर हिम्मत न हारी। थोड़ी ही देर में उसको दूर एक टिमटिमाती रौशनी दिखाई दी। डूबते को तिनके का सहारा। वो खुश हो गयी। वो जल्दी से जल्दी उस रौशनी तक पहुँचना चाह रही थी।
पर ये क्या ! वो जितना आगे बढ़ती वो रौशनी उतनी ही दूर होती जाती। एक आस मन में लिए उस रौशनी के सहारे वो आगे बढ़ती गयी। देखते ही देखते सवेरा होने को आया। उसने देखा वो गॉव से बहुत दूर किसी शहर में पहुँच गयी है।
थोडा रूककर उसने चारों ओर देखा पर वो टिमटिमाती रौशनी कहीं भी नहीं दी। वो अवाक् रह गयी। वो समझ चुकी थी कि वो रौशनी और कुछ नहीं ईश्वर की दिखाई राह थी, उसका विश्वास था, एक आशा थी जिसने उसको मंज़िल तक पहुँचाया। थोडा आगे बढ़ी तो सामने मंदिर नज़र आया जहाँ सुबह की आरती हो रही थी।
तभी मंदिर के घंटे से उसकी तन्द्रा टूटी। अतीत से बाहर निकल मंदिर के अंदर चली गयी।
— नीरजा मेहता
बढ़िया !