गीतिका/ग़ज़ल

गज़ल

आपसी रुसवाई के किस्से पुराने हो गये

आ गई बहार अब मौसम सुहाने हो गये

 

अपने-पराये का भेद ना जानते थे हम कभी

भोले-भाले थे मगर अब हम सयाने हो गये

 

काम कुछ ना फिर भी ढूँढ लेते काम हम

तेरी गली में आने-जाने के बहाने हो गये

 

जिन्दगी मेरी कभी नीरस और वीरान थी

उनसे मिलने के बाद हर पल तराने हो गये

 

जो कभी थे दूर हमसे देखिए जी रूठ कर

कैसा मंजर आज वो अपने सिरहाने हो गये

 

वाह कैसा असर हुआ मौसमें बहार का

‘व्यग्र’ भी अब देखिए खुशियों के माने हो गये

 

— विश्वम्भर पाण्डेय ‘व्यग्र’

विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'

विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र' कर्मचारी कालोनी, गंगापुर सिटी,स.मा. (राज.)322201

3 thoughts on “गज़ल

  • विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'

    आद .बहुत-2 धन्यवाद !

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    बहुत बढियाँ गज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत सुन्दर ग़ज़ल !

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