संस्मरण

मेरी कहानी 111

इंगलैंड में हालात कैसे भी रहे हों, हमारे लोग अपनी धुन में मस्त, सख्त काम करते ही रहे. उस समय एशियन और जमेकन लोग लग पग एक ही समय में आये थे लेकिन जमेकन लोगों का और हमारा अंतर बहुत था. हमारे लोग सख्त मिहनत करके और पैसे बचा कर अपने घर खरीद रहे थे लेकिन जमेकन लोग अपनी सख्त कमाई ऐयाशी पर खर्च कर देते थे. हर रोज़ प्ब्ब में जा कर समय गुजारते और डौमिनोज़ खेलते रहते। आयरश वेश्याएँ उन के इर्द गिर्द घूमती रहती और उन को बीयर के ग्लास भर भर के सर्व करती। जमेकन लोग ऐसी औरतों पर बहुत रोअब रखते थे और इन औरतों को भी ऐसे लोगों से अच्छी कमाई हो जाती थी। क्योंकि यह लोग लड़ने में बहुत आगे होते थे और गोरे भी उन से डरते थे और कोई बुरा लफ़ज़ उन को नहीं बोलते थे। जमेकन लोगों का आपसी भाईचारा बहुत अच्छा होता था और कभी किसी गोरे ने उन को कभी बुरा लफ़ज़ बोला तो एक दम सभी जमेकन इकठे हो जाते थे। इस के विपरीत हमारे लोगों में कोई इतफ़ाक नहीं होता था, इसी लिए गोरे लोग हमारे लोगों पर रोअब रखते थे और कभी हमारे लोगों को पीट भी जाते थे।

एक और बात भी थी कि जमेकन लोगों की ज़ुबांन इंग्लिश ही होती थी और हमारे लोग पहले तो ज़्यादा पड़े लिखे थे ही नहीं और पड़े लिखे थे भी तो इतनी इंग्लिश बोल नहीं सकते थे। एक और बात भी थी कि हम सभी एशियन सख्त मिहनत करने वाले थे और हमारा मकसद एक ही होता था कि अपना घर हो और पीछे भारत में अपने माँ बाप भाई बहनों को भी पैसे भेजते रहें। हम काम किसी भी हालत में छोड़ना नहीं चाहते थे , इसी लिए किसी झगडे से दूर रहने की कोशिश करते थे ताकि किसी झगडे में पढ़ कर अपना काम ना गँवा बैठे। जमेकन लोग झगड़ा करने से डरते नहीं थे और काम की परवाह भी नहीं करते थे। यही कारण था कि हमारे लोग जितनी जल्दी हो सके पैसे बचा कर अपना घर लेने की कोशिश करते थे, जब कि जमेकन लोग ऐसा नहीं सोचते थे। यह लोग एशियन घरों में ही किराए पर रहते थे और उस समय ज़्यादा तर जमेकन बच्चे एशियन घरों में ही पैदा हुए थे। जब एशियन लोगों के परिवार आ गए तो इन लोगों के पास कोई चारा नहीं था कि अपना घर ना लें।

अभी तक हमारे लोगों में यह ही विचार था कि किसी ना किसी दिन उन्होंने इंडिया जाना ही था, इसी लिए कई परिवारों के लोग पैसे बचा कर इंडिया में जमींन खरीदते या अपना मकान बनाते या बैंकों में बैलेंस बढ़ाते । हम दो बेड़िओं में सवार थे। बहुत से संयुकत परिवारों ने पैसे बचा कर ग्रॉसरी की दुकाने ले लीं थी। जमेकन लोगों ने बहुत कम इस ओर धियान दिया था क्योंकि उन के बच्चे भी काम करना नहीं चाहते थे और पहले पैसे मांगने लगते थे । हमारे संयुकत परिवार का फायदा यह ही था कि घर के सभी लोग इस काम में दिन रात एक कर देते थे, बहुत लोग बाहर फैक्ट्रियों में भी काम करते और काम से आ कर भी मदद करते थे। अभी तक हमारी औरतें बाहर काम नहीं करती थीं, सिर्फ बच्चों की देख भाल करती या घर का काम ही करतीं। अब कुछ कुछ लोग कपडे की ड्रैस्ज, जैसे बच्चों के कपडे या अनारैक बनाने शुरू करने लगे थे ।

यह अनारैक भी उस वक्त एक नया कोट इज़ाद हुआ था जो सर्दी से बचने के लिए बहुत मोटा कोट जैसा होता था, अब तो यह सारी दुनिआ में परचलत है लेकिन इस के लिए काम करने वाली औरतें चाहियें थी। यह अनारैक और अन्य कपडे बनाने के लिए इंडस्ट्रीयल मशीन की जरुरत होती थी। मेरा दोस्त टंडन जो अब नहीं है, उस की पत्नी तृप्ता के भाई ने यह काम शुरू किया था, उस का नाम वेद प्रकाश महन था और बसों पे भी काम करता था। दरअसल वेद प्रकाश एक बड़ा संयुकत परिवार था जिस के बहुत से सदस्य मानचैस्टर में रहते थे और यह कपडे का काम पहले ज़्यादा मानचैस्टर से ही शुरू हुआ था और वोह सभी यही काम करते थे । वेद प्रकाश की पत्नी मीना कुलवंत को जानती थी। महन और मीना मानचैस्टर से चार पांच सौ काटे हुए कपडे ले आते और और घरों में औरतों को दे आते और वोह सारा दिन घर में मशीन पर कपडे सीती रहती। घर में बैठी औरतें भी कुछ ना कुछ कमाई कर लेती। मीना ने कुलवंत को अनारैक सीने के लिए पुछा और कहा कि कैसे सीने हैं, वोह सिखा देगी। कुलवंत ने मुझ से पुछा तो मैंने उस को हाँ कह दिया क्योंकि मेरा खियाल था कि बिज़ी रहने से कुलवंत का धियाँन फज़ूल बातें सोचने से बंट जाएगा और कुछ पैसे भी आने लगेंगे।

बच्चों को स्कूल छोड़ कर कुलवंत वेंडनस्फील्ड को जो हम से तकरीबन तीन मील है, मीना के घर चले जाती और मीना उसे सिखाती रहती। पहले दिन ही कुलवंत जब घर आई तो उस ने मुझे कहा कि यह काम बहुत मुश्किल था और उस के हाथों में दर्द हो रहा था। कारण यह था कि अनारैक एक तो भारी बहुत होता था, दूसरे इस को फैशन वाली जेबें ही बहुत थीं और इस को खोलने बंद करने के लिए तकरीबन डेढ़ दो फ़ीट लंबी आगे की ज़िप होती थी। एक कोट सीने के लिए एक घंटे से भी ज़्यादा लग जाता था। मैंने कुलवंत को कहा कि अगर मुश्किल था तो वोह ना करें लेकिन कुलवंत हठी बहुत है, कहने लगी, “जो मर्ज़ी हो मैंने सीखना ही सीखना है” और वोह मीना के घर जाती रही और सब सीख लिया। अब हमें इंडस्ट्रीयल मशीन की जरुरत थी, नई मशीन तो बहुत महँघी थी, इस लिए सैकंड हैंड मशीन की तलाश करने लगे।

कुछ दिनों बाद तृप्ता ने ही बताया कि एक औरत मशीन बेच रही थी क्योंकि उस को जोड़ों का दर्द था और कपडे सीने से असमर्थ थी। हम दोनों सप्रिंग फील्ड रोड पर उस के घर गए, मशीन देखि जो काफी पुरानी थी लेकिन चलने में बहुत अच्छी थी। 25 पाउंड की उसने दे दी। मशीन को खोल कर हम ने कार में ही रख लिया और घर ले आये। अब मीना काटे हुए अनारैकों के बण्डल हमारे घर छोड़ जाती और कुलवंत जब भी वक्त हो अनारैक सीती रहती। एक बात और भी थी कि यह एक स्लेव लेबर की तरह ही होता था क्योंकि इतनी मिहनत से कोट बनाने के सिर्फ छै शिलिंग मिलते थे और कोई गोरी तो इतने कम पैसे पे काम करना सोच भी नहीं थी सकती। सोचता हूँ हमारी औरतों ने जो काम किया, उसका अंदाजा लगाना ही मुश्किल है, आज के बच्चे सुन कर ही मुंह दुसरी तरफ कर लेते हैं। कहीं लिखना भूल ना जाऊं कुलवंत ने जितना मेरा साथ दिया, उस को मैं कुछ भी दे नहीं सकता हूँ। उधर यही कहानी बहादर और उस की अर्धांगिनी कमल की थी। इस को हम लहू पसीने की कमाई कहेंगे तो कोई अत्कथनी नहीं होगी।

मेरे काम की शिफ्टें ऐसी थीं कि मुझे वक्त बहुत मिल जाता था। कभी मैं सुबह पांच वजे काम पे जाता तो वोह शिफ्ट एक दो वजे खत्म हो जाती, इसी तरह अगर मैं दो वजे काम पे जाता तो सुबह से दो वजे तक मेरे पास वक्त ही वक्त होता था। इस का फायदा हमें यह था कि कभी मैं बच्चों को स्कूल छोड़ आता या ले आता और इस से कुलवंत का टाइम बच जाता और वोह घर के सारे काम करके मशीन पे बैठ कर कपडे सीती रहती। लेकिन यह काम कोई रेगुलर नहीं था, कभी मीना काम दे जाती, और कभी उस के पास काम नहीं होता था और कुछ देर बाद मीना ने यह काम बंद कर दिया और वोह मार्किट में कपडे बेचने लगी. कुलवंत को अब काम चाहिए था. पता चला कि टेम्पल स्ट्रीट में एक इंडियन ने छोटी सी फैक्ट्री खोली है, कुलवंत,पिंकी रीटा को सकूल छोड़ कर संदीप को पुश चेअर में बिठा कर टैम्पल स्ट्रीट जा पहुंची जो टाऊन में थी और कुलवंत को वहां पहुँचने में एक घंटा लगा.

काम मिल गिया लेकिन यहाँ कपडे अलाएदा किसम के थे और इन को सीने के लिए ट्रेनिंग की जरुरत थी. कुलवंत वहां मशीन पर बैठ कर काम सीखने लगी और बेटा संदीप वहां खेलता रहता. कुलवंत को यह काम पसंद नहीं आया और वैसे भी रोज़ दो घंटे तो आने जाने में लग जाते थे, इस लिए एक हफ्ते बाद ही काम छोड़ दिया. अब पता चला कि बच्चों के सकूल के नज़दीक ही एक सिंह और उस की बीवी घर में ही कुछ मशीनें रख कर काम कर रहे थे. कुलवंत और मैं वहां जा पहुंचे और उनको तो वर्कर की जरुरत थी ही, उसी वक्त उन्होंने ट्रेनिंग देनी शुरू कर दी. यह लोग फर वाले मोटे कोट बना रहे थे. कुछ दिनों में ही कुलवंत ने यह काम सीख लिया और वोह लोग हमारे घर में ही कटपीस सप्लाई करने लगे. मशीन तो कुलवंत के पास थी ही, इस लिए वोह घर बैठी काम करती रहती. चार महीने कुलवंत ने यह काम किया और पैसे भी ठीक ठाक थे लेकिन जो फर वाले कोट थे उन में से डस्ट या धूल बहुत निकलती थी, और यह सिहत के लिए ख़ास कर बच्चों के लिए ठीक नहीं था, इस लिए सोच कर हम ने यह काम भी बंद कर दिया.

इस के बाद एक जगह और कुलवंत ने काम किया, और यह लोग सिंह थे लेकिन हेराफेरी करते थे और पैसे नहीं देते थे. यहाँ भी काम छोड़ दिया किओंकि वो पैसे नहीं देते थे, कहने को वोह कट्टर सिंह थे लेकिन हेराफेरी करते थे. कई महीने उन्होंने पैसे नहीं दिए, फिर मैंने गियानी जी को बताया. गियानी जी उनके घर गए और उनको बहुत कुछ कहा और आखर में उन्होंने पैसे दे दिए. कुछ देर बाद हमारे घर से पंदरां मिनट की दूरी पर एक इटैलियन ने फैक्ट्री खोली, जिस का नाम था “कर्मन घिया “. कुलवंत वहां जा पहुंची. उन्होंने उसी वक्त रख लिया. इस फैक्ट्री में जीनज़ की पैंटें और टॉप बनते थे. यह ट्राऊज़र्ज़ कम्प्लीट बनानी पड़ती थी और यह भारी होती थीं। कुछ हफ्ते काम किया लेकिन कुलवंत इस से तंग आ गई और छोड़ दिया। चार पांच महीनों के बाद कुलवंत को पता चला कि कर्मन घिया में अब ट्राऊज़र्ज़ और टॉप को कई हिसों में बनाना शुरू कर दिया है और पहले से आसान है। कुलवंत फिर वहां जा पहुंची और काम पर लग गई।

अब इस फैक्ट्री में कुलवंत ने बहुत काम किया और फैक्ट्री का मालक ऐंड्रिउ और उस की पत्नी रीटा कुलवंत का बहुत रिगार्ड करते थे और फोरमैन नील कुलवंत को कहता रहता कि “अपने जैसी काम करने वाली लड़किआं ले के आ” और कुलवंत ने बहुत औरतों को काम पे लगवाया। पांच साल बाद यह फैक्ट्री बंद हो गई क्योंकि बैंक का कर्ज़ा उन पर बहुत हो गिया था। कुछ देर कुलवंत बेकार रही, फिर मेरे साथ ही एक लड़का काम किया करता था, जिस का नाम बलबीर सिंह भंडाल था, उसने काम छोड़ कर पहले पहल बड़ी बड़ी मार्किटों में कपडे बेचने शुरू किये, फिर उस ने बैंक से लोन लेकर कपडे की फैक्ट्री कायम कर ली। उस को अब जरुरत थी काम करने वाली औरतों की, तो कुलवंत उस की फैक्ट्री में काम करने लगी। अब कुलवंत काम में सकिलड थी, जितना भी काम कर लो, उतने ही पैसे मिलते थे। यूं तो अपने लोगों की जितनी भी फैक्ट्रियां होती थीं, उन में पैसे कम ही मिलते थे, फिर भी इन फैक्टिओं में सब अपनी औरतें ही होती थी और हमारी औरतें यहां आदमी काम करते हों वहां काम नहीं करती थी। तन्खुआह बेशक कम थी लेकिन रैगुलर इनकम आ जाती थी और काम पर भी सभी अपनी औरतें होने के कारण हंस खेल कर काम करती रहती थीं, और इस से लोगों के फैमिली बजट में भी आसानी हो गई थी।

कुछ साल बाद यह फैक्ट्री भी घाटे में जाने लगी और बंद हो गई। अब कुलवंत रामे की फैक्ट्री में जा लगी। यह रामा पंडित अमृत लाल का लड़का था। अमृत लाल गियानी जी के साथ गुड ईयर फैक्ट्री में काम किया करता था। अमृत लाल कई भाई थे, जिनके बारे में मैं बहुत पहले लिख चुक्का हूँ क्योंकि अमृत लाल के दो छोटे भाई तो मेरे साथ ही रामगढ़िया स्कूल फगवाड़े में पड़ा करते थे। कुछ साल बाद यह फैक्ट्री भी बंद हो गई और कुलवंत दीप की फैक्ट्री में काम करने लगी, यह फैक्ट्री बिल्सटन रोड के नज़दीक थी। दीप या उस का डैडी सभी औरतों को हर सुबह घरों से ले जाता था और शाम को छोड़ जाता था। यहां भी कुलवंत ने कुछ साल काम किया लेकिन यह भी बंद हो गई क्योंकि यह फैक्ट्री भी फाइनैंशल डिफिकल्टीज़ में आ गई थी। अब कुलवंत बेकार हो गई थी।

कुछ महीनों बाद दीप ने स्टारब्रिज टाऊन में काउंसल का काम करना शुरू कर दिया और वोह हमारे घर आया और कुलवंत को वहां काम करने को बोला। कुलवंत और कुछ और औरतें अब स्टारब्रिज काम करने लगी। काउंसल अच्छे पैसे देती थी लेकिन छै महीने बाद यह काम भी बंद हो गिया। कुछ महीने बाद लैस्टर के एक बिज़नेस मैंन ने हमारे टाऊन की डडली रोड के नज़दीक कपडे की फैक्ट्री खोली जिस का नाम था अकांटो टैक्सटाइल। कुलवंत अब वहां काम करने लगी। कुछ साल उसने काम किया। एक दिन एक भारी बंडल था कपड़ों का, उसको उठाते ही कुलवंत की पीठ में इतना दर्द हुआ कि उसकी चीखें निकलने लगीं। फैक्ट्री वाले कुलवंत को गाड़ी में बिठा कर घर छोड़ गए। मैं घर में ही था। उसी वक्त मैं कुलवंत को गाड़ी में बिठा कर हस्पताल ले गिया। वहां उन्होंने एक्सरे और एमआरआई स्कैन किये और पता चला लोअर बैक की एक तरफ से हड्डी सलिप हो गई थी। बहुत कुछ किया गिया, फ़िज़िओथेरपी भी की गई लेकिन ठीक नहीं हुई और डाक्टरों ने अनफिट कर दिया।

छै साल तक हकूमत की ओर से कुलवंत को इंनकपैस्टी फैनिफिट मिलता रहा, जितने पैसे कुलवंत काम करके ले आती थी, उस से कुछ कम उस को हकूमत की तरफ से मिलते ही रहे और इस के बाद 60 साल की उमर होने पर उस को स्टेट पेंशन मिलनी शुरू हो गई जो सब का हक़ है और अब ज़िंदगी के आख़री सांस तक मिलती रहेगी। कुलवंत की ज़िंदगी का मैंने सारांश ही लिखा है लेकिन इस के बीच बहुत कुछ हुआ और बच्चों को हम ने कैसे संभाला, आगे के एपिसोड में लिखूंगा कि वलाएत की ज़िंदगी फूलों की सेज नहीं थी बल्कि काँटों की सेज थी लेकिन हम जवांन थे और हँसते हँसते वोह दिन बिता दिए और अब आराम से बज़ुर्गी का मज़ा ले रहे हैं।

चलता. . . . . . .

12 thoughts on “मेरी कहानी 111

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    मनमोहन भाई , धन्यवाद .

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते श्री गुरमेल सिंह जी। आपने जीवन की घटनाओं का सजीव चित्रण किया है जो रोचक और प्रभावशाली है। आज की किश्त अच्छी लगी। हार्दिक धन्यवाद। सादर।

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते श्री गुरमेल सिंह जी। आपने जीवन की घटनाओं का सजीव चित्रण किया है जो रोचक और प्रभावशाली है। आज की किश्त अच्छी लगी। हार्दिक धन्यवाद। सादर।

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    भाभी जी के समकालीन महिलाओं के श्रम के पसंगा भी हमारे समय की महिलायें नहीं की अब की महिलायें तो सोच भी नहीं सकती भाभी जी को मेरा प्रणाम पहुंचे

    बारीकी से लिखा आलेख
    बहुत अच्छा लगता है आपका लेखन पढ़ना

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      बहन जी , आप का बहुत बहुत धन्यवाद . आज यहाँ भी बहुत बदल गिया है और आज की महलाएं इस बात को सुनना भी नहीं चाहतीं . इन बातों को मैं इतहास जान कर लिख रहा हूँ किओंकि यह बात अब नहीं है . उस समय के हालात लिखने के लिए बहुत वक्त चाहिए . हम एक ऐसे देश में आये थे जो हम से बिलकुल ही इलग्ग था ,यहाँ के वातावरण ने हमें बहुत कुछ सहने को मजबूर कर दिया .कुछ बातें अच्छी भी हुई हैं किओंकि यहाँ के बच्चे जात पात की परवाह ना करते हुए आपस में शादिआन करा रहे हैं और हम लोग इसे accept कर रहे हैं .

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      बहन जी ,आप का परणाम कुलवंत को पहुंचा दिया है और वोह आप का धन्याद करती है ,कृपा ग्रहण करें .

  • विजय कुमार सिंघल

    भाई साहब, भाभी जी ने अपने परिवार के लिए इतने कष्ट उठाये और परिश्रम किया, यह पढ़कर सिर श्रृद्धा से झुक गया. उनकी हालत अब कैसी है? आशा है अब वे स्वस्थ होंगी.

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      विजय भाई , उस समय जब भी हम इंडिया आते तो लोगों को सही सही बताया करते थे लेकिन लोग मानते ही नहीं थे ,उन के खियाल से तो हम फल फ्रूट तोड़ कर पैसे बनाते थे. यह ठीक है कि बाद में लोगों ने उन्ती भी बहुत की लेकिन जो हमारे जैसे अकेले थे उन्होंने बहुत परिश्रम किया था . कुलवंत ने अपनी सिहत के लिए भी बहुत तपस्य की ,रेगुलर ऐक्सर्साइज़ करती रही ,अब भी वोह तीन दफा हफ्ते में पार्क जाती है और औरतों के ग्रुप के साथ चार मील तेज चलने जाती है जिस के लिए टाऊन का मेअर इन औरतों को सन्मान पत्र हर साल देके हौसला अफजाई करता है . इस साल वोह 70 वर्ष की हो जायेगी लेकिन अपनी मिहनत से उस ने अपनी बैक बिलकुल ठीक कर ली है .इस उम्र में बुढापे के रोग तो हो ही जाते हैं लेकिन सिहत के लिए उस की अपनी कोशिश बहुत है ,इस लिए ज़िन्दगी सही रास्ते पर चल रही है ,भगवान् का शुकर है .

  • लीला तिवानी

    प्रिय गुरमैल भाई जी, कहानी कुलवंत कौर की बहुत रोचक और मज़ेदार लगी. एक बेहतरीन एपीसोड के लिए आभार.

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      धन्यावाद लीला बहन .

      • लीला तिवानी

        प्रिय गुरमैल भाई जी, आपके लेखन में कुलवंत जी की इतनी मेहनत करने की पीड़ा स्पष्ट झलक रही है, हालांकि आपने बहुत सहज होकर लिखने की कोशिश की है. यह एक सफल लेखक की महानता का संकेत है. एक अच्छे एपीसोड के लिए आभार.

        • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

          लीला बहन , आप ने ठीक ही लिखा है ,ऐसी बातें किसी को बताने की नहीं होतीं किओंकि यह पीड़ा तो खुद को ही सहन करनी होती है लेकिन किसी को बता कर दिल का बोझ कुछ कम हो जाता है . दिल से मेरा यह एपिसोड पड़ने के लिए आप का बहुत बहुत धन्यवाद .

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