धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता…

हरि अनंत हैं और सृष्टि अनंत हैं | इस अनंतता के वर्णन में कोई भी सक्षम नहीं है | परन्तु मन-मानस में मनन/अनुभूति रूपी जो अनंत प्रवाह उद्भूत होते रहते हैं वे विचार रूपी अनंत ब्रहम का सृजन करते हैं| जब एक अनंत स्वयं अनंत के बारे में अनंत समय तक अनंत प्रकार से मनन करता है तो स्मृतियों की संरचना होती है और सृष्टि की संरचना होने लगती है यह उस अनंत की ही माया है जो स्वयं अनंत है एवं उसी अनंत ब्रह्म की प्रेरणा से उद्भूत है| इस अनंत माया, अनंत सृष्टि के वर्णन का प्रत्येक मन अपनी अपनी भाँति से प्रयत्न करता है तो अनंत स्मृतियों की सृष्टि होती है | दर्शन, धर्म, मनोविज्ञान, विज्ञान इन्हीं मनन-चिंतन आदि के प्रतिफल हैं| सब कुछ उसी अनंत से उद्भूत है और उसी में समाहित होजाता है | इस प्रक्रिया के मध्य विचार, ज्ञान व कर्म का जो माया उद्भूत चक्र है, वह सृष्टि है संसार है, जीवन है | इस अनंत व अनंतता को किसी कथा व पन्नों में समेटना एक धृष्टता ही है |

विश्व व भारत के भूगोल, भौगोलिक संरचना, वेद-पुराण, मनु व जलप्रलय, इतिहास, साहित्य, वैज्ञानिक खोजों से प्राप्त ज्ञान, नृवंशशास्त्र व हेरीडिटी सम्बंधित नवीन शोधों,  नृतत्व शास्त्र, भाषा व लिपि, जातियों के उत्थान-पतन के इतिहास, सभ्यता, समाज के उद्भव, दर्शन, धर्म, ज्योतिष, समय के कल्प विभाजन, युद्धों आदि की वर्त्तमान व भूतकालीन घटनाओं, ज्ञान के प्रवाह से उद्भूत कल्पनाओं के आधार रूपी विशाल फलक पर मेरे मन में ब्रह्माण्ड व सृष्टि की उत्पत्ति व संरचना की जो कथा उभरती है उसके अनुसार इस अनंत विषय को दो विभागों में वर्णित किया जायगा |

भाग क –सृष्टि व ब्रह्माण्ड का आविर्भाव

भाग ख- जीवन का प्रादुर्भाव

भाग –क -सृष्टि व ब्रह्माण्ड का आविर्भाव

आधुनिक विज्ञान  इसे यूं वर्णित करता है —- उत्पत्ति का मूल “बिग-बैंग सिद्धांत” है। प्रारंभ में ब्रह्माण्ड एकात्मकता स्थिति (सिंगुलारिटी) में, शून्य आकार व अनंत ताप रूप (infinite hot ) था।
१ अचानक एक विष्फोट हुआ -बिग-बैंग , और १/१०० सेकंड में तापक्रम सौ बिलियन सेंटीग्रेड हो गया। उपस्थित स्वतंत्र -ऊर्जा एवं विकिरण से असंख्य उप-कण उत्पन्न होकर अनंत ताप के कारण एक दूसरे से बिखंडित होकर तीब्रता से दूर होने लगे। ये सब हलके उपकण इलेक्ट्रोन, पोज़िट्रान, व न्‍यूट्रान थे । जो शून्य भार, शून्य चार्ज थे एवं फ्री-ऊर्जा से लगातार बनते जा रहे थे।
२- एनिहिलेसन स्टेज -कणों के एक दूसरे से दूर जाने से तापमान कम होने पर भारी कण बनने लगे जो १००० से १ के अनुपात से बने। वे मुख्यतया इलेक्ट्रोन, प्रोटोन, न्‍युट्रोन व फोटोन (प्रकाश कण) थे। ये ऎटम- पूर्व कण बने। साथ ही भारी मात्रा में स्वतंत्र ऊर्जा भी थी।
३- स्वतंत्र केन्द्रक (न्युक्लिअस) १४ वे सेकंड में तीब्र एनिहिलाशन (सान्द्री करण) से काम्प्लेक्स न्युक्लिअस के बनने पर १ प्रोटोन व १ न्युत्रोन से हाइड्रोजन व २ प्रोटोन+ २ न्युत्रोन से हीलियम के अणु पूर्व कण बनने लगे।
४- तीन मिनट के अंत में शेष हलके कण, न्‍यूट्रान्‍स, प्रति-न्यूट्रान्‍स, लघु केन्द्रक कण के साथ ही ७३% हाइड्रोजन व २७ % हीलियम मौजूद थे। कोई एलेक्ट्रान शेष नहीं थे।   अतः ठंडे होने की प्रक्रिया लाखों सालों तक रुकी रही। हाँ उपस्थित कणों के एकत्रीकरण (क्लाम्पिंग) की प्रक्रिया से गेलेक्सी (आकाश गंगाएं) व तारे आदि बनने की प्रक्रिया प्रारम्‍भ हो गयी थी।
५- ताप जब और गिरने से बहुत अधिक ठंडा होने पर पुनः ऊर्जा के निस्रत होने पर प्रोटोन न्युक्लयूस के साथ मिलकर केन्द्र में स्थित होने पर न्युत्रांस उसके चारों और एकत्र होगये एवं प्रथम परमाणु (एटम) का निर्माण हुआ जो हाइड्रोजन व हीलियम गैस बने। ये एटम ऊर्जा के साथ भारी पदार्थ व गेलेक्शी बनाने लगे। इस प्रकार भारी पदार्थ, हीलियम, हाइड्रोजन, हलके-कण व ऊर्जा मिलकर विभिन्न पदार्थ बनने की प्रक्रिया प्रारंभ हुई।
-न्यूट्रिनो +एंटी-न्यूट्रिनो + चार्ज भारी-इलेक्ट्रोन =ठोस पदार्थ ( सोलिड्स), तारे, ग्रह ,पिंड आदि।
-बाकी एलेक्ट्रोन + पोजित्रोन+ ऊर्जा =तरल पदार्थ ( लिक्विड) ,जल आदि।
-फोटोन ( प्रकाश कण )+बाकी ऊर्जा =कम घनत्व के पदार्थ- नेबुला, गैलेक्सी आदि।

और फिर किसी रासायनिक क्रिया से अमीनो एसिड , प्रोटीन आदि के संयोग से जीव बना और विकसित होता गया मानव तक |  इस प्रकार सारा ब्रह्माण्ड बनता चला गया। विभिन्न अणुओं से विभिन्न समस्त पदार्थ बने। और ब्रह्म का माया संसार चलने लगा |
और वैदिक विज्ञान, जो वस्तुतः संसार के धर्म, दर्शन की रीढ़ हैं, अतः दार्शनिक, धार्मिक समाज इसी को इस प्रकार कहते हैं—- अज्ञान-अनाचार के अन्धकार में यह ब्रह्माण्ड हमत कल्प में —अन्धेन तमसावृता …. —सृष्टि व मानव का रचयिता “परब्रह्म” ईश्वर है । १.सृष्टि पूर्व –ऋग्वेद के नासदीय सूत्र (१०/१२९/१ व २ ) के अनुसार —

“न सदासीन्नो,सदासीत्त दानी । न सीद्र्जो नो व्योमा परोयत ॥  ….एवं

“आनंदी सूत स्वधया तदेकं । तस्माद्वायान्न परःकिन्चनासि ॥”

–अर्थात प्रारंभ में न सत् था न असत ,न परम व्योम व व्योम से परे लोकादि सिर्फ़ वह एक अकेला ही स्वयं की शक्ति से (स्वयाम्भाव ) गति शून्य होकर स्थित था, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं था। तथा-

“अशब्दम स्पर्शमरूपमव्ययम तथा रसं नित्यं गन्ध्वच्च यत” (कठोपनिषद -१/३/१५)

-अर्थात वह वह ईश्वर अशब्द, अस्पर्श, अरूप, अव्यय, नित्य व अनादि है। भार रहित व गति रहित,स्वयम्भू है, कारणों का कारण, कारण-ब्रह्म है। उसे ऋषियों ने आत्मानुभूति से जाना व वेदों में गाया।

२. परब्रह्म का भाव संकल्प- उस परब्रह्म ने अहेतुकी सृष्टि-प्रवृत्ति से, सृष्टि हित भाव संकल्प किया तथा ॐ के रूप में मूल अनाहत नाद स्वर अवतरित होकर भाव संकल्प से अवतरित व्यक्त साम्य अर्णव (महाकाश, मनोआकाश, गगन या ईथर या परम व्योम) में उच्चरित होकर गुंजायमान हुआ, जिससे अक्रिय ,असत,निर्गुण व अव्यक्त असद परब्रह्म — सक्रिय, सत्, सगुण व सद् व्यक्त परब्रह्म हिरण्यगर्भ (जिसके गर्भ में स्वर्ण अर्थात सब कुछ है) के रूप में प्रकट हुआ। जो स्वयम्भू  (जिसमें सबकुछ- जीव, जड़, प्रकृति, चेतनसब कुछ स्थित है)

३.एकोहम बहुस्यामः -व्यक्त ब्रह्म -हिरण्यगर्भ की सृष्टि हित -ईषत इच्छा, एकोहं बहुस्यामः (अब में एक से बहुत हो जाऊँ, जो सृष्टि का प्रथम काम संकल्प-मनो रेतः संकल्प था); उस साम्य अर्णव में ॐ के अनाहत नाद में स्पंदित हुई। प्रतिध्वनित स्पंदन से महाकाश की साम्यावस्था भंग होने से अक्रिय अपः (अर्णव में उपस्थित अव्यक्त मूल इच्छा तत्व) सक्रिय होकर व्यक्त हुआ व उसके कणों में हलचल से आदिमूल अक्रिय ऊर्जा, सक्रिय ऊर्जा में प्रकट हुई व उसके कणों में भी स्पंदन होने लगा। कणों के इस द्वंद्व -भाव से , महाकाश में एक असाम्यावस्था व अशांति की स्थिति उत्पन्न हो गई।

४.अशांत अर्णव (परम व्योम) आकाश में मूल अपः तत्व के कणों की टक्कर व द्वंद्व से ऊर्जा की अधिकायत मात्रा उत्पन्न होने लगी, साथ ही साथ ऊर्जा व आदि अपः कणों से परमाणु पूर्व कण तो बनने लगे परन्तु कोई निश्चित सततः प्रक्रिया नहीं थी।

५.नाभिकीय ऊर्जा (न्यूक्लीयर इनर्जी)- ऊर्जा व कणों की अधिक उपलब्धता से, प्रति १००० इकाई ऊर्जा से एक इकाई नाभिकीय ऊर्जा की उत्पत्ति होने लगी, जिससे ऋणात्मक, धनात्मक, अनावेषित व अति-सूक्ष्म केन्द्रक कण आदि परमाणु पूर्व कण बनने लगे। पुनः विभिन्न प्रक्रियाओं (रासायनिक व भौतिक संयोग या यज्ञ) द्वारा असमान धर्मा कणों से विभिन्न नए नए कण व समान धर्मा कण स्वतंत्र रूप से (क्योंकि समान धर्मा कण आपस में संयोग नहीं करते, यम्-यमी आख्यान -ऋग्वेद) महाकाश में उत्पन्न होते जा रहे थे।

६.रूप सृष्टि कण –उपस्थित ऊर्जा एवं परमाणु पूर्व कणों से विभिन्न अदृश्य व अश्रव्य रूप कण (भूत कण -पदार्थ कण )बने जो अर्यमा (सप्तवर्ण -प्रकाश व ध्वनिकण,सप्त होत्र (सात इलेक्ट्रोनवाले असन्त्रप्त) अजैविक (इनोर्गेनिक ) व अष्ट बसु (८ इले .वाले संतृप्त ) जैविक (ओरगेनिक ) कण थे।

७.त्रिआयामी रूप सृष्टि कण- उपरोक्त रूप कण व अधिक ऊर्जा के संयोग से विभिन्न त्रिआयामी कणों का आविर्भाव हुआ, जो वस्तुतः दृश्य रूप कण, अणु, परमाणु थे जिनसे विभिन्न रासायनिक, भौतिक, नाभिकीय आदि प्रक्रियाओं (इन्द्र व अन्य ऋषियों की यज्ञों) से समस्त भूत कण, ऊर्जा व पदार्थ बने।

८.चेतन तत्व का प्रवेश- वैदिक विज्ञान के अनुसार- वह चेतन परब्रह्म ही सचेतन भाव व प्रत्येक कण का क्रियात्मक भाव तत्व बन कर उनमें प्रवेश करता है ताकि आगे जीव-सृष्टि तक का विस्तार हो पाये। इसी को दर्शन में प्रत्येक बस्तु का अभिमानी देव कहा जाता है, यह ब्रह्म   ही चेतन प्राण तत्व है जो सदैव ही उपस्थित रहता है और जीवन की उत्पत्ति करता है। इसीलिए कण-कण में भगवान कहा जाता है।

इस प्रकार ये सभी कण महाकाश में प्रवाहित हो रहे थे ऊर्जा के सहित। इसी कण-प्रवाह को वायु- नाम से सर्व प्रथम उत्पन्न तत्व माना गया, कणों के मध्य स्थित विद्युत विभव अग्नि (क्रियात्मक ऊर्जा) हुआ। भारी कणों से जल तत्व की उत्पत्ति हुई । जिनसे आगे ——-जल -से सारे जड़ पदार्थ -ठोस ,तरल ,गैसीय आदि। —–अग्नि -से सब ऊर्जाएं। —–वायु -से मन-भाव, बुद्धि, अहम्, शब्द आदि।

९.विश्वोदन अजः (पंचौदन अजः)- अजः =अजन्मा तत्व, जन्म-मरण से परे। ये सभी तत्व, ऊर्जाएं, सभी में सत्, तम्, रज रूपी गुण, व चेतन देव- संयुक्त सृष्टि निर्माण का मूल पदार्थ (विश्वोदन अजः –सृष्टि कुम्भकार ब्रह्मा की गूंथी हुई माटी) सारे अन्तरिक्ष में तैयार था, सृष्टि रचना हेतु।

१०.मूल चेतन आत्म भाव (३३ देव)- चेतन जो प्रत्येक कण का मूल क्रिया भाव बनाकर उसमें बसा, वे ३३ भाव-रूप थे, जो ३३ देव कहलाये। ये भाव-देव है–११ रुद्र –भिभिन्न प्रक्रियाओं के नियामक; १२ आदित्य-प्रकृति चलाने वाले नीति निर्देशक; ८ बसु- मूल सेद्धान्तिक रूप, बल, वर्ण, नीति नियामक; इन्द्र- संयोजक व विघटक, नियमन व प्रजापति- सब का आपस में संयोजक व समायोजक भाव- ये सभी भाव तत्व पदार्थ, सिन्धु- (महाकाश, अन्तरिक्ष) में पड़े थे। विश्वोदन अजः के साथ।

११.भाव पदार्थ निर्माण (विक्रतियां या भाव रूप श्रष्टि—सभी भाव मूल रूप से अहं (सत,तम.रज गुणों सहित) के परिवर्तित रूप से बने-

–अहं के तामस भाव से–शब्द, आकाश, धारण, ध्यान, विचार, स्वार्थ, लोभ, मोह, भय, सुख-दुख आदि।

–अहं के राजस-भाव से –५ ग्यानेन्द्रियां-कान, नाक, नेत्र, जिव्हा, त्वचा–५ कर्मेन्द्रियां –वाणी, हाथ, पैर, गुदा, उपस्थ व रूप भाव से तैजस (वस्तु का रसना भाव)जिससे जल के सन्योग से गन्ध सुगन्ध आदि बने।

–अहं के सत भाव से —मन (११वीं इन्द्रिय), ५ तन्मात्रायें(ग्यानेन्द्रियों के भाव- शब्द, रूप, स्पर्श,गन्ध, रस) एवम १० इन्द्रियों के अधिष्ठाता देव ।

१२.समय ( काल )– अन्तरिक्ष में स्थित बहुत से भारी कणो ने, मूल स्थितिक ऊर्जा, नाभीय व विकिरित ऊर्ज़ा, प्रकाश कणों को अत्य्धिक मात्रा में मिलाकर कठोर-बन्धनों वाले कण-प्रतिकण (राक्षस) बनालिये थे. वे ऊर्जा का उपयोग रोक कर प्रगति रोके हुए थे। पर्याप्त समय बाद क्रोधित इन्द्र ( रासायनिक प्रक्रिया–यग्य) ने बज्र (विभिन्न उत्प्रेरक तत्वों) के प्रयोग से उन को तोडा। वे बिखरे हुए कण-काल कान्ज या समय के अणु कहलाये। इन सभी कणों से—–

१.—विभिन्न ऊर्जायें, हल्के कण व प्रकाश कण मिल्कर विरल पिन्ड (अन्तरिक्ष के शुन) कहलाये जिनमें नाभिकीय ऊर्ज़ा के कारण सन्योजन व विखन्ड्न (फ़िज़न व फ़्यूज़न) के गुण थे, उनसे सारे नक्षत्र (सूर्य तारे आदि),आकाश गंगायें(गेलेक्सी) व नीहारिकायें(नेब्युला) आदि बने।

२.—मूल स्थितिक ऊर्ज़ा, भारी व कठोर कण मिलाकर, जिनमें उच्च ताप भी था, अन्तरिक्ष के कठोर पिन्ड, ग्रह, उप ग्रह, प्रथ्वी आदि बने। –क्योंकि ये सर्व प्रथम द्रश्य ग्यान के रचना-पिन्ड थे व एक दूसरे के सापेक्ष घूम रहे थे ,इसके बाद ही अन्य द्रश्य रचनायें हुईं अतः समय की गणना यहीं से प्रारम्भ मानी गई।

(शायद इन्हीं काल-कान्ज कणों को विज्ञान के बिग-बेन्ग -विष्फ़ोट वाला कण कहा जा सकता है। आधुनिक विज्ञान यहां से अपनी श्रष्टि-निर्माण यात्रा प्रारम्भ करता है।)

१३.जीव-श्रष्टि की भाव संरचना– वह चेतन परब्रह्म, परात्पर-ब्रह्म, जड व जीव दोनों में ही निवास करता है उस ब्रह्म का भूः रूप (सावित्री रूप) जड श्रष्टि करता है एवम भुवः (गायत्री रूप) जीव श्रष्टि की रचना करता है। इस प्रकार—

—परात्पर (अव्यक्त) से- परा शक्ति (आदि-शंभु-अव्यक्त) एवम अपरा शक्ति (आदि-माया-अव्यक्त) इन दोनों के संयोग से महत-तत्व (आदि-जीव-तत्व–व्यक्त)।

महत्तत्व से =आदि विष्णु (व्यक्त पुरुष) व आदि माया (व्यक्त अपरा शक्ति)।

—-आदि विष्णु से–महा विष्णु, महा शिव, व महा ब्रह्मा- क्रमशः-पालक, संहारक व धारक तत्व, एवम –

—आदि माया से– रमा-उमा व सावित्री, क्रमशः- सर्जक, संहारक व स्फ़ुरण तत्व बने।

महा विष्णु व रमा के संयोग (सक्रिय तत्व कण व स्रजक ऊर्जा के संयोग) से अनन्त चिदबीज या हेमांड या ब्रह्मान्ड या अन्डाणु उत्पत्ति हुई,जो असन्ख्य व अनन्त संख्या में महाविष्णु (अनन्त अंतरिक्ष में) के रोम-रोम में (सब ओर बिखरे हुए) व्याप्त थे। प्रत्येक हेमान्ड की स्वतन्त्र सत्ता थी। प्रत्येक हेमान्ड में- महाविष्णु से उत्पन्न, विष्णु-चतुर्भुज, (स्वयम भाव) व लिंग महेश्वर और ब्रह्मा (विभिन्नान्श), तीनों देव (त्रिआयामी जीव सत्ता) ने प्रवेश किया। इस प्रकार इस हेमान्ड में– त्रिदेव, माया, परा-अपरा ऊर्जा, द्रव्य प्रक्रति व उपस्थित विश्वोदन अजः उपस्थित थे, श्रष्टि रूप में उद्भूत होने के लिये।  (अब आधुनिक विज्ञान भी यही मानता है कि अन्तरिक्ष में अनन्त-अनन्त आकाश गंगायें, अपने-अपने अनन्त सौर-मन्डल व सूर्य, ग्रह आदि के साथ, जो प्रत्येक अपनी स्वतन्त्र सत्तायें हैं।

१४. श्रष्टि-निर्माण ग्यान भूला हुआ ब्रह्मा- (निर्माण में रुकावट)- लगभग एक वर्ष तक (ब्रह्मा का एक वर्ष=मानव के करोडों वर्ष) ब्रह्मा- जिसे श्रष्टि निर्माण करना था, उस हेमान्ड में घूमता रहा। वह निर्माण-प्रक्रिया समझ नहीं पा रहा था। (आधुनिक विज्ञान के अनुसार- हाइड्रोजन, हीलियम- समाप्त होने पर निर्माण क्रम युगों तक रुका रहा, फ़िर अत्यधिक शीत होने पर ऊर्जा बनने पर ये क्रिया पुनः प्रारम्भ हुई।)

—-जब ब्रह्मा ने विष्णु की प्रार्थना की तथा क्षीर सागर (अन्तरिक्ष, महाकाश, ईथर) में उपस्थित, शेष-शय्या (बची हुई मूल संरक्षित ऊर्जा) पर लेटे नारायण (नार= जल, अन्तरिक्ष; अयन= निवास, स्थित ,विष्णु) की नाभि (नाभिक ऊर्जा) से स्वर्ण कमल (सत, तप, श्रद्धा रूप आसन) पर वह ब्रह्मा

(कार्य रूप) अवतरित हुआ। आदि माया सरस्वती (ज्ञान भाव) का रूप धर वीणा बजाती हुई (ज्ञान के आख्यानों सहित) प्रकट हुई एवम ब्रह्मा के ह्रदय में प्रविष्ट हुई, और उसे श्रष्टि निर्माण क्रिया का ज्ञान हुआ।

१५. ब्रह्मा द्वारा श्रष्टि रचना का मूल सन्क्षिप्त क्रम- चार चरणों में रचना—–

—प्रथम चरण (सावित्री परिकर)– मूल जड-श्रष्टि कि रचना–जो निर्धारित, निश्चित अनुशासन (कठोर रासायनिक व भौतिक नियमों) पर चलें, व सततः गतिशील व परिवर्तन शील रहें।

–तीनचरण( गायत्री परिकर) जीव सत्ता जो-

१.देव- सदा देते रहने वाले, परमार्थ-भाव से युक्त- प्रथ्वी, अग्नि, पवन, वरुण एवम वृक्ष (वनस्पति जगत)

२.मानव—आत्म-बोध से युक्त, ज्ञान-कर्म मय पुरुषार्थ युक्त, जो पृथ्वी का सर्वश्रेष्ठ तत्व हुआ।

३.प्राणि जगत- प्रक्रति के अनुसार, सुविधा भव से जीने वाले, व मानव एवम वनस्पति व भौतिक जगत के मध्य सन्तुलन रख्ने वाले जीव।

—-क्या यह एक संयोग नहीं है कि विज्ञान जीवन को संयोग से मानता है (बाइ चांस) वहीं वेद उसे महा विष्णु व रमा (पुरुष व प्रक्रति) के संयोग से कहता है। हां यह संयोग ही है।

१६-श्रिष्टि-विनिर्माण प्रक्रिया व लय— प्रत्येक हेमांड (ब्रह्माण्ड या गेलेक्सी) समस्त प्रादुर्भूत मूल तत्वों सहित स्वतंत्र सत्ता की भांति -महाकाश, अन्तरिक्ष में उपस्थित था। ब्रह्मा को सृष्टि निर्माण का ज्ञान होने पर उसने समस्त तत्वों को एकत्र करके सृष्टि को रूप देना प्रारंभ किया। इसे विश्व संगठन प्रक्रिया कह सकते हैं। ब्रह्मा ने हेमांड को दो भागों में विभाजित किया! —ऊपरी भाग में हलके तत्व एकत्र हुए जो आकाश भावः कहलाया। जिससे समय, गति, शब्द, गुण, वायु, महतत्व, मन, तन्मात्राएँ, अहं, वेद (ज्ञान) आदि रचित हुए।
—-मध्य भाग दोनों का मिश्रण जल भाव हुआ जिससे जलीय, रसीय, तरल तत्व, इन्द्रियाँ, कर्म, अकर्म, सुख-दुःख व प्राण आदि का संगठन हुआ।
—-नीचे का भाग भारी तत्व भाव था जो पृथ्वी भाव हुआ जिससे, पदार्थ तत्व, जड़, जीव, ऊर्जा, ग्रह, पृथ्वी, प्रकृति, दिशाएँ, लोक, निश्चित रूप भाव वाले रचित हुए। ऊर्जा व वाणी, प्रकाश, त्रिआयामी पदार्थ कण से नभ, भू, जल के प्राणी हुए। संगठित तत्व बिखरें नहीं इस   हेतु  नियमन शक्तियों का निर्माण- किया गया- ये नियामक थे- संगठक शक्ति का भार इन्द्र को, पालक का -इन्द्र, सरस्वती, भारती, अग्नि, सूर्य आदि देवों व ऊर्जाओं को पोषण के लिए -वातोष्पति, रूप गठन को त्वष्टा, कार्य नियमन को -अश्वनी द्वय (वैद्य व पंचम वेद आयुर्वेद -ब्रह्मा के पंचम मुख से) तथा कर्म नियमन को चार वेद -अपने चारों मुख से -ज्ञान एवं यम्, नियम, विधान
१७.रूप सृष्टि –ब्रह्मा के स्वयं के विविध भाव, रूप, गुण से, शरीर से व शरीर त्याग से -क्रमिक रूप में अन्य विविध सृष्टि की रचना हुई। ( इसे विज्ञान की भाषा में इस तरह लिया जासकता है कि ब्रह्मा = ज्ञान व मन की शक्ति — के भावानुसार -क्रमिक विकास होता गया …..)
१. तमोगुणी –सोते समय की सृष्टि, तमोगुणी हुई, जो तिर्यक –अज्ञानी, भोगी, इच्छा वसी, क्रोध वश, विवेक शून्य, भ्रष्ट आचरण वाले –पशु पक्षी, पुरुषार्थ के अयोग्य ।
२.सत्व गुणी–देव -ज्ञान वान, विषय प्रेमी, दिव्य ये भी पुरुषार्थ के अयोग्य थे।
३.रजोगुणी –त़प व साधना के भाव में –मानव की रचना -जो अति -विक्सित प्राणी, क्रियाशील, साधन शील, तीनों गुणों युक्त-सत्, तम, रज,कर्म व  लक्ष्योन्मुख, सुख-दुःख रूप, समस्त पुरुषार्थ-श्रेय-प्रेय के योग्य,  द्वंद्व युक्त,  ब्रह्म का सबसे उत्तम साधक हुआ।  इस प्रकार हरि का माया-व्यवहार संसार चलने लगा |

भूविज्ञान एवं भूगर्भीय शास्त्र के अनुसार कथा इस प्रकार कही जा सकती है —– भारतीय भूखंड संयुक्त गोंडवाना लेंड व अन्टार्कटिका तथा आस्ट्रेलियन भूखंड से पृथक होकर उत्तर-पश्चिम की ओर बढ़ते हुए यूरेशियन टेक्टोनिक प्लेट के तिब्बतीय भाग से टकराकर, टेथिस सागर( दिति सागर–कश्यप ऋषि की एक पत्नी व दैत्यों की माता ) की विलुप्ति प्रारम्भ हो चुकी थी एवं ईरान, अरब आदि मध्य एशिया, तिब्बत व उत्तरापथ बन चुके थे परन्तु केवल लवणीय बालू के मैदान थे जो टेथिस सागर के निक्षेप से बने थे| उत्तरी हिम प्रदेश स्थित समस्त यूरेशिया, तिब्बत व भारतीय प्रायद्वीप, हिंदूकुश का पर्वतीय भाग का सम्मिलित भूभाग पर जो देव-लोक कहलाया —पौराणिक हमत, हिरण्यगर्भ, ब्राह्म व पद्म कल्पों .से होते हुए ब्रह्माण्ड व पृथ्वी के सृजन उपरान्त वाराह कल्प में मानव अवतरित होचुका था |…जहां कैलाश, सुमेरु, पामीर, स्वर्ग, क्ष्रीरसागर आदि थे |

गोंडवाना लेंड में उत्पन्न भारतीय प्रायद्वीप स्थित नर्मदा घाटी में विक्सित एवं उत्तर भारत तक विकास करते हुए आये ( शिव के समर्थक- ) मानव एवं उत्तर भारतीय भूभाग त्रिविष्टप ( तिब्बत ) एवं सरस्वती–दृषवती के सप्तसिंधु क्षेत्र सप्तचरुतीर्थ में विक्सित ( विष्णु- इंद्र के समर्थक ) मानव ( नियंडरथलàहोमो सेपियंस समस्त विश्व में फ़ैल चुके भारतीय देव-मानव  ) उन्नत हुए –प्राणी ( ज्युरासिक एवं अन्य सभी प्रकार के जीव-जंतु आदि )  व मानव..(होमो सेपियंस.) द्वारा एक सम्मिलित सभ्यता — ब्रह्मा-विष्णु-महेश-स्वय्म्भाव मनु, दक्ष, कश्यप-अदिति-दिति द्वारा स्थापित विविध प्रकार के आदि-प्राणी सभ्यता.. ( कश्यप ऋषि की विविध पत्नियों से उत्पन्न विश्व  की मानवेतर संतानें नाग, पशु, पक्षी, दानव, गन्धर्व, वनस्पति इत्यादि ) एवं देव.असुर सभ्यता आदि का निर्माण किया |  मूल भारतीय प्रायद्वीप से स्वर्ग व देवलोक ( पामीर, सुमेरु, जम्बू द्वीप,(-कैलाश  में दक्षिण–प्रायद्वीप से उत्तरापथ एवं हिमालय की मनुष्य के लिए गम्य(टेथिस सागर की विलुप्ति व हिमालय के ऊंचा उठने से पूर्व ) ..नीची श्रेणियों से होकर मानव का आना जाना बना रहता था… यही सभ्यता कश्यप ऋषि की संतानों – देव-दानव-असुर आदि विभिन्न जीवों व प्राणियों के रूप में समस्त भारत एवं विश्व में फ़ैली एवं विश्व की सर्वप्रथम स्थापित सभ्यता देव-मानव सभ्यता कहलाई | स्वर्ग, इन्द्रलोक, विष्णुलोक, शिवलोक, ब्रह्मलोक..सुमेरु-कैलाश..पामीर –आदि पर्वतीय प्रदेशों में एवं स्वयंभाव मनु के पुत्र-पौत्रों आदि द्वारा ,काशी, अयोध्या आदि महान नगर आदि से पृथ्वी को बसाया जा चुका था | विश्व भर में विविध संस्कृतियाँ  नाग, दानव, गन्धर्व, असुर आदि बस चुकी थीं | हिमालय के दक्षिण का समस्त प्रदेश  द्रविड़ प्रदेश कहलाता था..जो सुदूर उत्तर तक व्यापार हेतु आया-जाया करते थे |

इस प्रकार….समस्त सुमेरु या जम्बू द्वीप देव-सभ्यता का प्रदेश था | यहीं स्वर्ग में गंगा आदि नदियाँ बहती थीं,.यहीं ब्रह्मा-विष्णु व शिव, इंद्र आदि के देवलोक थे…शिव का कैलाश, कश्यप का केश्पियन सागर, स्वर्ग, इन्द्रलोक  आदि ..यहीं थे जो अति उन्नत सभ्यता थी –– जीव सृष्टि के सृजनकर्ता प्रथम मनु स्वयंभाव मनु व कश्यप की सभी संतानें ..भाई-भाई होने पर भी स्वभव व आचरण में भिन्न थे | विविध मानव एवं असुर आदि मानवेतर जातिया साथ साथ ही निवास करती थीं | भारतीय भूखंड में उत्पन्न व विकसित मानव स्वर्ग –शिवलोक कैलाश अदि आया जाया करते थे …देवों से सहस्थिति थी …जबकि अमेरिकी भूखंड (पाताल लोक) व अन्य सुदूर एशिया –अफ्रीका के असुर आदि मानवेतर जातियों को अपने क्रूर कृत्यों के कारण अधर्मी माना जाता था | युद्ध होते रहते थे | शिव जो स्वयं वनांचल सभ्यता के हामी एवं मूल रूप से दक्षिणी भारतीय प्रायद्वीपीय भाग के देवता थे किन्तु मानवों तथा भारतीय एकीकरण के महान समर्थक के रूप में ब्रह्मा-विष्णु-इंद्र आदि उत्तरी भाग के देवों के साथ कार्य करने हेतु कैलाश पर बस गए एवं दक्ष पुत्री सती ..तत्पश्चात हिमवान की पुत्री पार्वती से विवाह किया | वे सभी जीव व प्राणियों –मानवों आदि के लिए समभाव रहते थे अतः देवाधिदेव कहलाये | यहाँ की भाषा देव भाषा – आदि-संस्कृत -देव संस्कृत थी जो.. आदिवासी, वनान्चलीय, स्थानीय कबीलाई व दक्षिण भारतीय जन जातियों की भाषा आदि प्राचीन भारतीय भाषाओं से संस्कारित होकर बनी थी |

आधुनिक भाषा विज्ञानियों का कथन है …”विश्व भर में भाषाओं के आश्‍चर्यजनक साम्‍य से यह निष्‍कर्ष निकलता है कि आर्य किसी एक स्‍थान, जैसे भारत से पश्चिमी एशिया और यूरोप में फैले। संस्‍कृत संसार की प्राचीनतम और समृद्धतम भाषा है। हर प्रकार के साहित्‍य का, जिनमें वेद-पुराण प्रमुख हैं, बहुत बड़ा भंडार उसके पास है और है शब्‍द बनाने तथा भाव व्‍यक्‍त करने का सरल एवं अनुपम ढंग तथा विश्‍व भाषा बनने की क्षमता। ऐसी दशा में संस्‍कृत यदि आर्य-सभ्‍यता की पूर्व की  मूल प्रचलित भाषा रही हो तो आश्चर्य क्या |” यही तथाकथित आर्य सभ्यता पूर्व की मूल प्रचलित भाषा देव-संस्कृति ..देव-लोक की भाषा –आदि संस्कृत थी जिसे देव-वाणी कहा जाता है | वेदों की रचना इसी देव भाषा में एवं इसी देवभूमि पर हुई जिन्हें शिव ने चार विभागों में किया, जिनके अवशेष लेकर प्रलयोपरांत मानवों की प्रथम-पीढी वैवस्वत मनु के नेतृत्व में तिब्बत से भारतीय क्षेत्रों में उतरी |

अर्थात भारतीय दक्षिण प्रायद्वीप पर, हिमालय से पूर्व जब उस समय न गंगा-सिन्धु का मैदान था, न उत्तर भारतीय क्षेत्र … इनके स्थान पर टेथिस सागर ( दिति सागर )का किनारा था जो बालू व खारे पानी का मैदान था …उस समय भी भारत में आदि-मानव रहता था जो गोंडवाना लेंड बनने के साथ ही उत्पन्न हो चुका था | अतः महाद्वीपों के पृथक होने पर भारतीय प्रायद्वीप पर विक्सित आदि-मानव के मस्तिष्क में प्राच्य गोंडवाना लेंड आदि की सारी स्मृतियाँ बनी रहीं | नर्मदा नदी की घाटी में डायनासोरों के कंकाल, अवशेष, जीवाश्म व अंडे प्राप्त हुए हैं | भारत के नर्मदा घाटी, जावा सुमात्रा, दक्षिण अफ्रिका के रोडेसिया, क्रोमन्यान और ग्रीनाल्डी में आदि मानव के अवशेष पुरातत्वविदों को प्राप्त हुए हैं. उक्त सभी स्थल गोंडवाना द्वीप समूह से हैं और साधारण रूप से पृथ्वी के मध्य रेखा पर ही स्थित हैं |

हिमालय के उत्थान के साक्षी व जम्बूद्वीप एवं देव-असुर तथा अन्य सभी जीव सभ्यताओं के स्थापक भी यही भारतीय थे जो विकास के दौरान सरस्वती–दृषवती के सप्तसिंधु क्षेत्र सप्तचरुतीर्थ  से लेकर उत्तर के हिम-प्रदेश से तक समस्त विश्व में फैले | स्वयंभाव मनु के पुत्र-पौत्रों के बढ़ने पर उन्होंने पिता ब्रह्मा से पूछा की मानव के बसने हेतु कौन सा स्थान होगा | तब विष्णु ..आदि बाराह के रूप में जल में डूबी हुई पृथ्वी को बाहर निकाल कर लाये | जिस पर मानव बसा एवं समस्त सारी धरती पर फैला |

मध्य भारत एवं दक्षिण का भारतीय पठार विश्व का प्राचीनतम स्थल है ..चार अरब वर्ष प्राचीन जितनी स्वयं पृथ्वी की आयु निश्चित की गयी है | यहाँ का तुंगभद्रा नदी क्षेत्र धरती पर सबसे प्राचीन स्थल कहा जाता है एवं स्थानीय लोग इस भूदेवी का जन्म स्थान कहते हैं | यहाँ के मानव के स्मृति में आदि-ज्युरासिक काल के पशु भी बने रहे जो मूर्तियों व हस्त-चित्रों में दिखाई देते हैं|

शिव–महादेव-पशुपति (जायजनतोर राजाल = जीव जंतुओं के राजा )  तो सारे विश्व में आज भी… आदिदेव माने जाते हैं जो निश्चय ही शंभूसेक के परवर्तित रूप हैं |  शिव को मूल रूप से दक्षिण भारतीय देवता कहा जाता है जो बाद में उत्तर में कैलाश पर निवास हेतु चले गए जहां से सारे विश्व में उनका प्रभुत्व हुआ और वे देवाधिदेव कहलाये तथा परवर्ती काल में उन्होंने अपने पुत्रों कार्तिकेय व गणेश को पुनः दक्षिण भारत की उन्नति व विकास हेतु प्रायद्वीप में भेजा |

गोंडवाना हिमयुग में गोंडवाना लेंड से भारत के विघटन व अफ्रीकी भू भाग के यूरोपियन प्लेट से जुड़ने व टेथिस सागर ( दिति सागर ) के पश्चिमी-मध्य भाग के विलुप्त होने के समय यहाँ आदि गोंड वर्णनों द्वारा वर्णित भारत के नर्मदा क्षेत्र में .प्रथम जलप्रलय हुआ जिसमें दक्षिण प्रायद्वीप के पर्वत व नदियाँ पुनः परावर्तित होकर वर्तमान अवस्था को प्राप्त हुए एवं विनाश को प्राप्त मानव का पुनः विकास हुआ जो संभवतया नियंडरथल, क्रो-मेग्नन, होमो-इरेक्टस थे एवं हिमालय से रक्षित उत्तरी भूभाग की ओर बढ़ने लगे |

हिमालय उत्थान के परवर्ती लगभग अंतिम काल के अभिनूतन युग के हिमयुग में महान हिमालय में उत्पन्न भूगर्भीय हलचल से हुई जल-प्रलय (–मनु की नौका घटना )  में देव-सभ्यता के विनाश पर वैवस्वत मनु ने इन्हीं वेदों के अवशेषों को लेकर तिब्बतीय क्षेत्र से भारत में प्रवेश किया ( इसीलिए वेदों में बार बार पुरा-उक्थों व वृहद् सामगायन का वर्णन आता है )  एवं मानव एक बार पुनः भारतीय भूभाग से समस्त विश्व में फैले जिसे योरोपीय विद्वान् भ्रमवश आर्यों का बाहर से आना कहते हैं |

इस प्रकार प्रारम्भ हुई अनंत हरि, अनंत सृष्टि की अनंत कथा – गाथा जो आज के पाश्चात्य तथाकथित विद्वानों के लिए एक अनुत्तरित उत्तर है |

भाग ख- जीवन का प्रादुर्भाव

इस भाग में इस विषय के सबसे महत्वपूर्ण तत्व पर विविध मत प्रस्तुत् किये जायेंगे जो अब तक की व्याख्या का परिणामी-फल एवं माया व ब्रह्म की अनंतता का मूल कारक है यथा— १. जीवन का आरम्भ कैसे हुआ ?

२.जीव में गति , आकार वर्धन व संतति वर्धन (रीप्रोडक्शन) कैसे प्रारम्भ हुआ?,

३.स्लिंगीय भिन्नता भाव् ( सेक्सुअल सिलेक्शन) कैसे हुआ |

४. संततिवर्धन की लिन्गीय-स्वचालित प्रक्रिया कैसे  प्रारम्भ् हुई ?  (से़क्सुअल् ओटोमेशन फ़ोर रीप्रोडक्शन)

५.प्राणी व मानव का विकास-क्रम।

आधुनिक विज्ञान के अनुसार ऑक्सिजन न होने से पृथ्वी पर जीवन नहीं था। शायद जल में ऑक्सिजन के परमाणु किसी तरह से माइक्रो-मोल्युकूल बने और जल में अपने आप को पुनः वर्धित (रीप्रोडूस) करके प्रथम एक कोशीय जीव, फ़िर अन्य जीव व क्रमिक बिकास से मानव तक बना। अथवा धूमकेतु आदि के साथ पृथ्वी पर जीवन आया और विकसित हुआ |

आधुनिक् विग्यान्, मूलतः डार्विन की थ्योरी (चार्ल्स डार्विन १२-२-१८०९—१९-४-१८८२ ई—ओरीजिन् ओफ़् स्पेसीज़ १८५९) पर् केन्द्रित् है। वस्तुतः डार्विन् की थ्योरी कोई अपनी नई खोज् नहीं थी अपितु, प्राचीन् ग्रीक धारणा,  अरस्तू, लेओनार्दो डा विन्सी,  अल्फ़्रेड् रसेल आदि के दार्शनिक विचारों की पुष्टि ही थी। वस्तुतः विज्ञान,, दर्शन से ही प्रारम्भ् होता है।

गीक् दार्शनिक् –एनाक्सीमेन्डर् ने (ई.पू.६१० से ५४६ ई.पू.) बताया था कि जीवन् जल् की नमी से, सर्वप्रथम् जल में हुआ, फ़िर् सिम्पल (सरल्) से कम्पलेक्स (जटिल्)प्राणी,  मछली व इस प्रकार अन्त में मानव बना।  ब्रह्मान्ड ( यह् शब्द वेदिक देन है ) एक प्रारम्भिक अन्ड् (प्राइमोर्डिअल् ऊज़्- कोस्मोस्) से बना। अरस्तू के अनुसार् प्राणी- रौक- अर्थात् कण (एटम्) से बना । इसी दर्शन को डार्विन ने प्रयोगों, अनुभवों द्वारा अपनी थ्योरी का आधार बनाया। वस्तुतः ये प्राचीन दर्शन् वैज्ञानिक, मानवतावादी व अनीश्वरवादी थे। (वैदिक् दर्शन्-वैज्ञानिक्, मानववादी के साथ्-साथ् ईश्वर्वादी व समाजवादी दर्शन् है)।  वह् तो बाद में कठोर ईश्वरवादी धर्मों– क्रिश्चियन व इस्लाम् में सब् कुछ् गोड् व खुदा द्वारा ६या ७ दिन् में बनाया गया बताया है। जो इवोल्यूसन् में विश्वास् नहीं रख्ते थे।

जीवन् का प्रारम्भ्—

—–अ.उल्काओं की वर्षा या धूम्रकेतु के साथ जीवन प्रथ्वी पर जल व महासागरों में आया

——ब उल्का या धूम्रकेतु आदि के पृथ्वी पर स्थित, जल में गिरने पर तीब्र ताप आदि की प्रतिक्रियाओं से उपस्थित् कणॊं में जीवन की उत्पत्ति हुई।

——१९५०  ई में, स्टेनले लायड् मिलर् के अनुसार अमोनिया, हाइड्रोजन व मीथेन है, तीनों गेसों के मिश्रण में जलवाष्प की उपस्थिति में विध्युत- ऊर्जा प्रवाहित करने पर अमीनोएसिड जैसा पदार्थ बनता है  जो न्यूक्लिअक-अम्ल बनाने में अहम् भूमिका निभाता है एवं प्रत्येक जीव कोशिका का मुख्य भाग है। मिल्लर के अनुसार् प्रथ्वी पर प्रथम जीवन् उत्पत्ति का यह् कारण हो सकता है। अर्थात सब कुछ आकस्मिक व संयोग् से हुआ।

इस प्रकार प्रथम जीवन जो एक जीवाण् (बेक्टीरिया) के रूप् में आया जो आज् भी वनस्पति जगत व प्राणि जगत् दोनों में माना जाता है, जिससे एक कोशीय प्राणी( अमीवा) व एक कोशीय–पौधे (स्पाइरोगाइरा,यूलोथ्रिक्स् आदि) फ़िर क्रमश: वनस्पति व प्राणी व मानव् वने ।

गति, वर्धन व सन्ततिवर्धन, लिन्ग-भिन्नता, सेक्सुअल-स्वचालित प्राणी सन्तति प्रक्रिया के  अस्तित्व् में आने को आधुनिक-विज्ञान प्रायः संयोग ही मानता है । कोई  निश्चित मान्यता नहीं है। डार्विनिस्म् के अनुसार एक-कोशीय प्राणी से क्रमिक विकास द्वारा बहु-कोशीय प्राणी, जलचर, जल-स्थलचर, कीट्, सरीस्रप, पक्षी, स्तनधारी, वानर व मानव बना

प्राणी व मानव का विकास क्रम–जैसा ऊपर बताया गयाहै, डार्विन् के अनुसार आधुनिक् मानव उपरोक्त बिन्दुओं के अनुसार मत्स्य् से सरीस्रप्, फ़िर वानर, चिम्पेन्जी, गोरिल्ला से क्रमिक विकास से मानव बना ।

वैदिक विज्ञान के अनुसार– ब्रह्मा ने समस्त प्राणियों,-देव, असुर, वनस्पति के साथ ही मानव का निर्माण किया, यह सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ कृति थी जिसे सभी पुरुषार्थ ,धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष ) के योग्य पाया गया | यह क्रम इस प्रकार था—–अ. मानस सृष्टि —-बी. संकल्प सृष्टि—-स. काम संकल्प सृष्टि—-द. मैथुनी (माहेश्वरी प्रजा
१सर्वप्रथम ब्रह्मा ने- -सनक,सनंदन ,सनातन व सनत्कुमार –चार मानस पुत्र बनाए जो योग साधना हेतु रम गए।
२. पुनः संकल्प से — नारद, भृगु, कर्म, प्रचेतस,पुलह, अन्गिरिसि, क्रतु, पुलस्त्य, अत्री, मरीचि –१० प्रजापति बनाए
३.पुनः संकल्प द्वारा –९ पुत्र- भृगु, मरीचि, पुलस्त्य, अन्गिरा , क्रतु, अत्रि, वशिष्ठ, दक्ष, पुलह एवं  ९ पुत्रियाँ –ख्याति, भूति, सम्भूति, प्रीति, क्षमा, प्रसूति आदि उत्पन्न कीं |
ये सब संकल्प द्वारा संतति प्रवृत्त थे परन्तु कोई निश्चित, सतत स्व- चालित प्रक्रिया व क्रम नहीं था ( सब एकान्गी थे–प्राणियों व वनस्पतियों में भी ), अतः ब्रह्मा का सृष्टि-क्रम व कार्य  समाप्त नही हो  पारहा था | ब्रह्मा ने पुनः प्रभु का स्मरण किया, तब अर्ध नारीश्वर( द्विलिन्गी) रूप में, रुद्रदेव -जो शम्भु-महेश्वर व माया का सम्मिलित रूप था- प्रकट हुए। जिसने स्वयं को –क्रूर-सौम्या; शान्त-अशान्त; श्यामा-गौरी; शीला-अशीला आदि ११ नारीभाव एवम ११ पुरुष भावों में विभक्त किया। रुद्रदेव के ये सभी ११-११ स्त्री-पुरुष भाव सभी जीवों में समाहित हुए। इस प्रकार काम सृष्टि का प्रादुर्भाव हुआ।
४. ब्रह्मा ने स्वयं के दायें भाग से मनु व बाएं भाग से शतरूपा को प्रकट किया, जिनमें रुद्रदेव के ११-११ नर-नारी भाव समाहित होने से वे प्रथम मानव युगल हुए। वे मानस, सन्कल्प व काम-सन्कल्प विधियों से सन्तति उत्पत्ति में प्रव्रत्त थे, परन्तु अभी भी पूर्ण स्वचालित प्रक्रिया नहीं थी।
५.पुनः ब्रह्मा ने मनु की काम-सन्कल्प पुत्रियां-आकूति व प्रसूतिको दक्ष को दिया । दक्ष को मानस सृष्टि फ़लित नहीं थी अतः उसने काम-प्रक्रिया से १०००० वक ५०० उत्पन्न किये,परन्तु सब नारद के उपदेश से तपस्या को चले गये । दक्ष ने नारद को सदा घूमते रहने का श्राप देदिया।
६. पुनः  दक्ष ने प्रसूति के गर्भ से -सम्भोग, मैथुन-जन्य प्रक्रिया से  ६० पुत्रियों को जन्म दिया, जिन्हें सोम, अन्गिरा, धर्म, कश्यप व अरिष्ट्नमि आदि रिषियों को दिया गया। जिनसे मैथुनी-क्रिया द्वारा, सन्तति से आगे  स्वतः क्रमिक सृष्टि -क्रम चला व चल रहा है। अतः दक्ष से वास्तविक सृष्टि-क्रम माना जाता है। इस प्रकार ब्रह्मा का सृष्टि-क्रम सम्पूर्ण हुआ।
भला जब तक ब्रह्म, ब्रह्माण्ड व सृष्टि के क्रम में माया अर्थात नारी भाव की उत्पत्ति न होती स्वतःसृष्टि-क्रम कैसे पूरा हो सकता था?  इस प्रकार अनंत हरि, अनंत ब्रह्माण्ड के साथ अनंत माया की उत्पत्ति हुई और अनंत माया संसार की अनंतता का सृजन व सतत प्रचलन हुआ |

डॉ. श्याम गुप्त

नाम-- डा श्याम गुप्त जन्म---१० नवम्बर, १९४४ ई. पिता—स्व.श्री जगन्नाथ प्रसाद गुप्ता, माता—स्व.श्रीमती रामभेजीदेवी, पत्नी—सुषमा गुप्ता,एम्ए (हि.) जन्म स्थान—मिढाकुर, जि. आगरा, उ.प्र. . भारत शिक्षा—एम.बी.,बी.एस., एम.एस.(शल्य) व्यवसाय- डा एस बी गुप्ता एम् बी बी एस, एम् एस ( शल्य) , चिकित्सक (शल्य)-उ.रे.चिकित्सालय, लखनऊ से वरिष्ठ चिकित्सा अधीक्षक पद से सेवा निवृत । साहित्यिक गतिविधियां-विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं से संबद्ध, काव्य की सभी विधाओं—गीत, अगीत, गद्य निबंध, कथा, आलेख , समीक्षा आदि में लेखन। इन्टर्नेट पत्रिकाओं में लेखन प्रकाशित कृतियाँ -- १. काव्य दूत, २. काव्य निर्झरिणी ३. काव्य मुक्तामृत (काव्य सन्ग्रह) ४. सृष्टि –अगीत विधा महाकाव्य ५.प्रेम काव्य-गीति विधा महाकाव्य ६. शूर्पणखा महाकाव्य, ७. इन्द्रधनुष उपन्यास..८. अगीत साहित्य दर्पण..अगीत कविता का छंद विधान ..९.ब्रज बांसुरी ..ब्रज भाषा में विभिन्न काव्य विधाओं की रचनाओं का संग्रह ... शीघ्र प्रकाश्य- तुम तुम और तुम (गीत-सन्ग्रह), व गज़ल सन्ग्रह, कथा संग्रह । मेरे ब्लोग्स( इन्टर्नेट-चिट्ठे)—श्याम स्मृति (http://shyamthot.blogspot.com) , साहित्य श्याम (http://saahityshyam.blogspot.com) , अगीतायन, हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान, छिद्रान्वेषी एवं http://vijaanaati-vijaanaati-science सम्मान आदि—१.न.रा.का.स.,राजभाषा विभाग,(उ प्र) द्वारा राजभाषा सम्मान,(काव्यदूत व काव्य-निर्झरिणी हेतु). २.अभियान जबलपुर संस्था (म.प्र.) द्वारा हिन्दी भूषण सम्मान( महाकाव्य ‘सृष्टि’ हेतु ३.विन्ध्यवासिनी हिन्दी विकास संस्थान, नई दिल्ली द्वारा बावा दीप सिन्घ स्मृति सम्मान, ४. अ.भा.अगीत परिषद द्वारा अगीत-विधा महाकाव्य सम्मान(महाकाव्य सृष्टि हेतु) ५.’सृजन’’ संस्था लखनऊ द्वारा महाकवि सम्मान एवं सृजन-साधना वरिष्ठ कवि सम्मान. ६.शिक्षा साहित्य व कला विकास समिति,श्रावस्ती द्वारा श्री ब्रज बहादुर पांडे स्मृति सम्मान ७.अ.भा.साहित्य संगम, उदयपुर द्वारा राष्ट्रीय प्रतिभा सम्मान ( शूर्पणखा-काव्य-उपन्यास हेतु)८ .बिसारिया शिक्षा एवं सेवा समिति, लखनऊ द्वारा ‘अमृत-पुत्र पदक ९. कर्नाटक हिन्दी प्रचार समिति, बेंगालूरू द्वारा सारस्वत सम्मान(इन्द्रधनुष –उपन्यास हेतु) १०..विश्व हिन्दी साहित्य सेवा संस्थान,इलाहाबाद द्वारा ‘विहिसा-अलंकरण’-२०१२....आदि..

3 thoughts on “हरि अनंत हरि कथा अनंता…

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत जानकारीपूर्ण लेख !

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत जानकारीपूर्ण लेख !

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