हास्य व्यंग्य

गड्ढे में गिरा बच्चा

गिरना प्रकृति का शाश्वत नियम है, इसलिए गिरनेवाला कहीं से भी गिर सकता है। सायकिल से, छत से, झाड़ से और कहीं से भी! कभी-कभी तो कोई आसमान से गिरता है, और कोई नज़रों से! आसमान से गिरनेवाले को कोई खतरा नहीं। अरे! आप चैंकिए नहीं। आसमान से गिरनेवाले को, खजूर में लटकने का एक चांस मिल सकता है-आसमान से गिरे, खजूर में लटके। सुना है न आपने? किन्तु किसी की नज़रों से कभी मत गिरिएगा। नज़रों से गिरना बड़ा खतरनाक है। अतः गिरने की स्थिति बने तो, ऊँचाई की अधिकता को नज़रंदाज करते हुए, मैं आपको आसमान से गिरने की सलाह ही दूँगा। कम से कम खजूर में अटक तो सकोगे। यदि नज़रों से गिरे तो, उसके नीचे, सीधे नाक है। अटकने या लटकने का कोई चांस नहीं। और उसी समय नज़र से गिरानेवाले ने यदि छींक दिया,तो भगवान मालिक। आगे आपकी मर्ज़ी। आप जाने और आपका काम।
किन्तु हमारे देश में एक चीज़ ऐसी है जो इस गिरने की अपवाद है। बताऊँ क्या?-महंगाई। प्रहलाद का नाम यदि महंगाई होता तो, हिरण्यकश्यप के चमचों द्वारा, पहाड़ी पर से फेंके जाने पर वह नीचे नहीं आता, ऊपर जाता-ऊपर ही ऊपर। महंगाई कभी नहीं गिरती-न नज़र से, न आसमान से। वह चढ़ती जाती है-ऊपर-ऊपर, और ऊपर सबसे ऊपर। इस मामले में उसका स्थान, भगवान से भी ऊँचा है। चढ़ती जवानी एक दिन ढल जाती है, उतर जाती है। पर किसके बाप में दम है जो महंगाई को नीचे गिरा दे। है कोई माई का लाल, बहन का भाई!!
मेरी सेव यानि कि एपल खाने की बड़ी इच्छा होती है, किन्तु महंगाई के कारण वह मेरे हाथ नहीं आता। मैं उसे पकड़ने की कोशिश करता हूँ, और वह है कि कमबख़्त अपने भाव के साथ ऊपर चढ़ जाता है। मैं जैसे ही नोटों के स्टूल पर खड़ा होता हूँ, महंगाई उसे और ऊँचा उठा देती है। मैं सेव के बारे में सिर्फ सोच सकता हूँ। एक सामान्य भारतीय सोचने के अलावा और कर ही क्या सकता है? सोच सकता है। मैं भी सोचता हूँ। सोचता हूँ कि-कितना संदर सेव है, लाल-लाल, शायद कड़वा होगा! या फिर यह कि क्या हनुमान जी को कलर ब्लाइंडनेस था, जो सूरज और सेव में अंतर न कर पाए जो, सूर्य को सेव समझकर मुँह में भर लिया था। लोग तो कहते हैं वे तो बड़े ब्रिलिएण्ट थे! या फिर यह भी सोचता कि-मैं कश्मीर में पैदा क्यों न हुआ? भले ही आतंकवादियों की गोलियों का खतरा सिर पर सवार रहता, किन्तु कम-से-कम, झाड़ में लगे सेवों को पत्थर से गिराने का आनंद तो मिलता। वगैरह-वगैरह। आपको पता है यदि सेव झाड़ से टूटकर जमीन पर न गिरता तो क्या होता?-न्यूटन, वैज्ञानिक न बन पाता। वैसे एक बात और है कि सेव हमारे देश में भी पैदा होते है, पेड़ से टूटकर जमीन पर भी गिरते हैं। पर अफसोस कि हम न्यूटन न पैदा कर सके।
पिछले कुछ वर्षों में हमारे देश में गिरने का एक नया अध्याय आरंभ हुआ है-बच्चों के गिरने का। कोई बच्चा कुरूक्षेत्र में गिर रहा है तो, कोई कटनी में और कोई आगरा में, – कोई कहीं तो, कोई कहीं। कथन सत्य ही है कि बच्चे बड़े भोले-भाले होते हैं। इन्हें यह भी नहीं समझता कि गिरना उन लोगों का काम नहीं। कम-से-कम गड्ढे में तो बिल्कुल ही नहीं। गड्ढों मंे गिरने का काम, इस देश की भोली-भाली जनता का है। पर बच्चे हैं कि मानते नहीं। पहुँच जाते हैं-गड्ढों के पास और गिर जाते हैं। अब सरकार को कितना परेशान होना पड़ता है देखो न! ये बच्चे नहीं जानते कि वित्तमंत्री गड्ढे में गिरनेवाले बच्चों के लिए बजट में कोई हिस्सा नहीं रखते।
उस दिन चैराहे पद भीड़ लगी थी। फिर एक बच्चा गड्ढे में गिरा पड़ा था। लाखो-करोडा़ें निग़ाहें टकटकी बांधे उसे टेलीविजन पर देख रही थी। समाचार चेनलवाले खुष थे। चलो, कुछ तो नया मिला, टी.आर.पी. बढ़ाने को। वहाँ खड़े लोगों के पास कुछ न था करने को। वैसे भी भीड़ के पास करने को क्या होता है! इंजीनियरों की फौज आधुनिक साधनों के साथ उसे बचाने में जुटी थी। पुलिस-विभाग मुस्तैद था। वहाँ आईजी. से लेकर बाई जी तक, नेता और मंत्री, चमचों सहित हाजिर थे। प्रशासन का छोटे से लेकर बड़ा अधिकारी लगा हुआ था। पंडित जी मंत्र पढ़ रहे थे और, मौलवी साहब दुआ कर रहे थे। उद्योगपति और बिजनेसस टाइफून उसे बचाने के लिए फाइनेन्स कर रहे थे। पत्रकार और टी.वी. चेनलवाले, लगातार इस प्रयास में थे कि बच्चा बाहर आए तो उसकी ‘ओरिजनल’ सूरत जनता को दिखाएँ। वहीं पर एक फटे हाल बू़ढ़ा बैठा था। मैंने पूछा-”बाबा! कितना गहरा गड्ढा है, जो इतने महान लोगो के महान प्रयासों और परिश्रम के बावजूद बच्चा बाहर नहीं आ रहा है।“
गोल चश्मा और लंगोटी लगाए बैठा वह बूढ़ा, मुझे किसी तस्वीर का हमशक्ल लग रहा था। अपनी लाठी से इशारा कर वह बोला-”गहराई तो पूछो मत भैया, अथाह गहराई है। लगता है रसातल में पहुँच गया है -गड्ढा। हाँ, मैंने और कुछ मनचले जवान उसे थोड़ा बाहर निकालने में सफल अवश्य हुए थे। पर……..।“
”पर क्या बाबा! कब से गिरा पड़ा है यह बच्चा इस अथाह गड़ढे में?“ मैंने पूछा।
”अब तो सढ़सठ साल से ज्यादा हो गये बेटा।“ वह बूढ़ा लंबी साँस खींच कर बोला।
”सढ़सठ साल से ज्यादा!“ मुझे आश्चर्य हुआ। ऐसा लगा यह बूढ़ा पगला गया है जो सढ़सठ साल पहले गड्ढे में गिरे बच्चे को आज भी जीवित निकलने की आस लगाए बैठा है। मेरी उत्सुकता अपने चरम और परम पर थी। वह उस बच्चे के समान गिरना नहीं चाहती थी। वह जानना चाहती थी कि क्या कारण है, जो इतने सारे मंत्री, नेता, पुलिस अधिकारी, इंजीनियर, अधिकरी, उद्योगपति, धर्मगुरू भी मिलकर उस बच्चे को गड्ढे से निकाल नही पा रहे। मेरे अंतिम प्रश्न का उत्तर मिलते ही मैं अब तक उस बच्चे के गड्ढे में पडे़ रहने का कारण समझ गया। मेरा अंतिम प्रश्न पूछा-”बाबा, क्या नाम है इस अभागे बच्चे का?“
बाबा के चेहरे पर वेदना की गहरी रेखाएँ उभरी और जवाब मिला-”भारत।“

One thought on “गड्ढे में गिरा बच्चा

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    बेजोड़ लेखन

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