सामाजिक

हिन्दी के महत्त्व को समझें

उन्नीसवीं सदी के शुरु में ही मैकाले की शिक्षा-नीतियों का अनुकरण करते हुए व उनका सम्मान करते हुए अनेक पाश्चात्य विद्वानों यथा विलियम जोंस, मैक्नाॅल्ड, राॅथ, व्हिटनी, मैक्समूलर, कीथ आदि ने संस्कृत भाषा को कड़ी मेहनत, लगन व मनोयोग से सीखा और देवभाषा संस्कृत को सीखने का कारण केवल एक ही था कि इससे भारतीयों की सभ्यता, संस्कृति, धर्म, दर्शन, सोच, जीवनशैली आदि पर चोटें की जा सके। जानकार लोग कहते हैं कि यदि किसी देश की सभ्यता व संस्कृति को नष्ट करना है तो अन्य आक्रमणों की जरूरत नहीं है अपितु उस देश के लोगों को स्वयं की नजरों में नीचे गिरा दो। यही कार्य इन पाश्चात्य विद्वानों ने संस्कृत भाषा को सीखकर किया। वेद, उपनिषद्, दर्शन, ब्राह्मण, व्याकरण, नीति, रामायण, महाभारत आदि की इन्होंने मनमानी व्याख्याएँ करके भारतीयों को भ्रमित करना शुरु कर दिया। पिफर इन पाश्चात्यों का अनुकरण करके अनेक भारतीय विद्वानों ने भी पाश्चात्य-विद्वानों की भाषा में बातेें करना शुरु कर दिया। ये भारतीय भी भारतीय सभ्यता व संस्कृति को अवैज्ञानिक, पाखंडी एवं निराशावादी मानने लगे तथा पाश्चात्य सभ्यता, संस्कृति एवं वहाँ की भाषा व अंग्रेजों को सभ्य, सुसंस्कृत, वैज्ञानिक, विकसित एवं आधुनिक भारत हेतु जरूरी मानने लगे। यानि मैकाले का भारतीय सभ्यता व संस्कृति को अपमानित करने व पाश्चात्य सभ्यता व संस्कृति को सम्मानित करने का कार्य अब भी चल रहा है। इस अवसर पर हमारा उद्देश्य हिंदी भाषा के सम्बन्ध में विचार करना ही है।

भारतीय जनता पार्टी से पहले लोगों को काफी आशाएँ थी कि यह हिंदी भाषा हेतु कुछ करेगी क्योंकि यह पार्टी शुरु से ही हिंदी भाषा, हिंदू धर्म, स्वदेशी आदि का नारा देती रही है। लेकिन सत्ता में आते ही इसने भी हिंदी की उपेक्षा करनी शुरु कर दी। इसके नेता भी अंग्रेजी बोलने में अपने आपको गौरवान्वित महसूस करने लगे तथा हिंदी में बातें करने में इनको शायद शर्म आने लगी। कांग्रेस पार्टी यही सब पिछले छह दशकों से करती आई है।

जो विद्वान व सभ्यजन अपने को आधुनिक वैज्ञानिक सभ्यता व संस्कृति का सदस्य मानते हैं वे भी सब भूल जाते हैं कि मातृभाषा व राष्ट्रभाषा का एक व्यक्ति के जीवन में क्या स्थान होता है। यहाँ पर वे भी अवैज्ञानिक, पाखंडी एवं अंधे अनुयायी बन जाते हैं। वैज्ञानिक रूप से किसी भी बच्चे को मातृभाषा की बजाय एक विदेशी भाषा में शिक्षा देना उसकी सुप्त क्षमताओं को और भी गहरे तलों पर दमित कर देना है। बच्चों की क्षमताओं को नष्ट कर देना मातृविहीन भाषा का एक खतरनाक एवं घातक दोष है। अंग्रेजी भाषा में विज्ञान व चिकित्सा तथा तकनीकी शिक्षा होने के कारण भारत का बहुत बड़ा वर्ग इनकी शिक्षाओं से वंचित रह जाता है। अंग्रेजी भाषा को न जानने का कारण वे ज्ञान-विज्ञान से वंचित रह जाते हैं। इसके बारे में ये मूढ़ राजनीतिज्ञ व शिक्षाशास्त्री क्यों नहीं विचार करते हैं ?

अंग्रेजी भाषा का गुणगान करने वाले यह जान लें कि महाकवि तुलसीदास ने अपने साहित्य में छत्तीस हजार शब्दों का प्रयोग किया है, जबकि अंग्रेजी भाषा के अग्रणी कवि शैक्सपियर ने अपने साहित्य में पैंतीस हजार शब्दों का प्रयोग किया है। जिस तरह अनपढ़ ग्रामीणों तक, चरवाहों तक व सामान्य जन तक तुलसी की चैपाईयों व दोहों की पहुँच व पकड़ है, वह शैक्सपियर की नहीं है – न पश्चिमी देशो में न अन्य देशों में। कबीर, रहीम, नितानंद, गरीबदास आदि के सम्बन्ध में भी यही बात है। इस समय भी पूरे विश्व में हिन्दी को मातृभाषा लिखवाने वालों की संख्या 36 करोड़ तथा अंग्रेजी को मातृभाषा लिखवाने वालों की संख्या 35 करोड़ हैं पूरे विश्व में हिन्दी भाषी लोगों की संख्या 50 करोड़ है व अंग्रेजी भाषी लोगोें की संख्या 40 करोड़ है। विश्व में सबसे अधिक बोले जाने वाली भाषा चीनी या मंदारिन है। दूसरा स्थान हिंदी का व तीसरा अंग्रेजी का है। इसमें भी चीनी भाषा की हालत यह है कि दो स्थानों के चीनी भाषी लोग एक दूसरे नहीं समझ सकते, हिंदी में यह दुविधा नहीं है।

अंग्रेजी ने जो विश्व में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाया है, वह उसके वैज्ञानिक होने के कारण या सर्वगुणसंपन्न होने के कारण नहीं, अपितु उपनिवेशवाद ही उसका कारण है। इस भाषा को जबरदस्ती थोपा गया था। कभी ऐसा फ्रेंच भाषा के साथ भी था जब फ़्रांस सर्वोच्च महाशक्ति हुआ करता था। हिंदी को सरकारी संरक्षण न कभी पहले मिला व न वर्तमान में मिल रहा है। फिर भी अपनी कुछ स्वयं सेवी संस्थाओं तथा अपनी वैज्ञानिक व सरल पद्धति के बल पर हिंदी भाषा ने संपर्वफ भाषा का स्थान प्राप्त किया है तथा विदेशों में भी यह पफल-पूफल रही है। हिंदी का भविष्य उज्ज्वल है – यह राष्ट्रीय ही नहीं, अपितु अंतर्राष्ट्रीय भाषा का स्थान बना चुकी है। यदि सरकारी रुकावटें इसमें आड़े न आएँ, तो हिंदी का प्रचार-प्रसार सरलता से हो जाए।

यह भी एक हास्यास्पद एवं मूढ़तापूर्ण बात है कि दो शताब्दियों के अंग्रेजों के प्रयास एवं पिछले साठ वर्ष के भारतीय राजनीतिज्ञों एवं पाश्चात्य सभ्यता के समर्थकों के प्रयास के बावजूद भारत की कुल आबादी के एक प्रतिशत हिस्से को ही अंग्रेजी-भाषी बना सके हैं। मातृभाषा की जगह विदेशी भाषा को जबरदस्ती लादने का ही यह फल है। कितने दुःख व पीड़ा की बात है कि इसके बावजूद भी मूढ़ व विदेशियों के अंधे भक्त अंग्रेजी भाषा को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने की हिमायत कर रहे हैं।

जो दो वर्ग अंग्रेजी एवं भारतीयों के आजादी से पहले थे – वही दो वर्ग भारत में अब भी हैं, चाहे अंग्रेज भारत से चले गए हों। फूट, वर्ग-भेद एवं वैमनस्य के बीज वे हमारे देश में बो गए हैं। इसमें हम भी बराबर के दोषी हैं। पहले गौरी चमड़ी के अंग्रेज अपने को उच्च-वर्ग का एवं सभ्य मानते थे, अब अंग्रेजी पढे लोग स्वयं को अन्य भारतीयों से विशेष, सभ्य, सुसंस्कृत, उच्च एवं सुविधाभोगी मानते हैं। यह वर्ग स्वयं को प्रथम स्तर का व अन्यों को दूसरे स्तर का नागरिक मानता है। वर्ग-भेद उनकी प्रतिष्ठा, अहम् व अकड़ हेतु जरूरी है। इस अंग्रेजी पढ़े-लिखे वर्ग ने बड़े-बड़े पदों पर कब्जा कर रखा है। देश के नीति-निर्माता एवं भाग्य विधाता ये स्वयं को ही मानते हैं, और यह सच भी है। इस तथाकथित उच्च-वर्ग का एक षड्यंत्र है कि हिंदी-भाषी या अन्य मातृभाषी भारतीयों को उच्च पदों तक पहुंचने ही न दिया जाए। अंग्रेजी भाषा को उन्होंने अपना हथियार बनाया है ताकि वे अपने कुचक्र में सफलता प्राप्त कर सकें।

आधुनिक युग में यह बात भी सिद्ध हो चुकी है कि हिंदी की वर्गमाला अंग्रेजी से कहीं ज्यादा वैज्ञानिक, उपयुक्त व परिपक्व है। वैज्ञानिकों ने कई बार माना है कि कंप्यूटर हेतु संस्कृत भाषा सबसे अधिक उपयुक्त है। लेकिन अंग्रेजी की जातिवादी भावना तथा उनके अंधे भक्त कुछ भारतीयों की अंध अनुकरण-भक्ति इस तथ्य से बार-बार दूर भागती रही है। कुछ भारतीय धर्म व दर्शन के विद्वान इस गलतपफहमी में न रहें कि यूरोपीय विद्वानों ने संस्कृत का अध्ययन इसके गुणों व इसकी वैज्ञानिकता से प्रभावित होकर किया था। बल्कि वास्तविकता यह है कि उन्होंने संस्कृत का अध्ययन संस्कृत व इसमें निहित अथाह ज्ञान को नष्ट करने हेतु किया था। जिनको विश्वास न हो वे निष्पक्ष भाव से यूरोपीयन व अन्य विद्वानों द्वारा किए वेद, उपनिषद्, धर्म, दर्शन व व्याकरण के अनुवादों व मनघड़ंत कल्पनाओं को पढ़ सकते हैं। सारे वैदिक साहित्य को कूड़ा-कचरा एवं गँवारों के गीत बताने वाले यूरोपीय विद्वानों के अगाध ज्ञान की प्रशंसा जब कुछ भारतीय विद्वान भी करते हैं, तो रोना आता है।

और यह कहना भी निरी बुद्धिहीनता का लक्षण है कि विज्ञान, चिकित्सा व इंजिनियरिंग जैसे विषयों की पढ़ाई अंग्रेजी भाषा में ही हो सकती है। प्राचीन काल में भारत ने रसायन-विज्ञान, भौतिक-विज्ञान, चिकित्सा-विज्ञान, गणित, खगोल-विज्ञान, कृषि-विज्ञान आदि विषयों मंे चमत्कारिक उन्नति की थी – और इन सब विषयों की शिक्षा का माध्यम संस्कृत ही था। तो यह कहना कि संस्कृत आदि भाषाएँ धर्म व दर्शन तथा अध्याय की ही भाषाएँ हैं तथा अंग्रेजी विज्ञान की भाषा है – सरासर गलत है। इस बात को सभी जानते हैं कि गणित के आधार शून्य, पाई का मान, दशमलव व अनेक प्रमेयों के हल भारतीय वैदिक गणित में लाखों वर्ष पहले ही खोज लिए गए थे। चरक व सुश्रूत ने चिकित्सा के क्षेत्र में चमत्कारिक खोजें की थी। भौतिक-विज्ञान, रसायन-विज्ञान व खगोल-विज्ञान के अनेक तथ्यों की खोजें वैदिक वैज्ञानिकों ने बहुत पहले ही कर ली थी। हमारा धातु-विज्ञान एवं समुद्र-विज्ञान के सम्बन्ध में ज्ञान बहुत गहन था। वाणिज्य विषय में हमने चमत्कारिक तरक्की की थी। हमारी भवन-निर्माण विद्या सर्वोत्तम थी तो हम अपने उज्ज्वल, स्वर्णिम एवं सुहावने अतीत से बहुत कुछ प्रेरणा पाकर अपनी राष्ट्रभाषा, अपने देश एवं अपनी संस्कृति हेतु बहुत कुछ कर सकते हैं। बस जरूरत है, थोड़ा संवेदनशील एवं होशपूर्ण होने की।

भारत को तकनीकी क्षेत्र में तीसरी महाशक्ति माना जाता है। इस तथ्य की तरफ कोई ध्यान नहीं देता है कि हमने कुशल तकनीशियनों की बड़ी फौज खड़ी कर ली है – लेकिन वैज्ञानिक क्षेत्र की खोजों पर पिछली दो शताब्दियों से पश्चिम का प्रभुत्व रहा है। भारत का योगदान इसमें न के बराबर है। हम सारी तकनीक विदेशों से आयात करते हैं। हम क्यों नहीं नई खोजें स्वयं कर पा रहे हैं – इस संबंध में हमारा ध्यान ही नहीं है। कारण एक ही है विदेशी अंग्रेजी भाषा में सारी विज्ञान व चिकित्सा जैसे विषयों की शिक्षा होने के कारण हमारे देश का युवा वर्ग अपनी मौलिक अभिव्यक्ति कर ही नहीं पाता है। 90 प्रतिशत से ज्यादा लोग तो वैसे ही अंग्रेजी भाषा से दूर भाग जाते हैं। बाकी बचे लोग भी कुछ ज्यादा नहीं कर पाते हैं, क्योंकि जरूरी नहीं कि वे सब प्रतिभावान ही हों। अपनी आंतरिक क्षमताओं की सही अभिव्यक्ति कोई अपनी मातृभाषा में ही कर सकता है। जापान, जर्मनी, कोरिया, इजरायल, चीन, रूस आदि देशों ने अपनी राष्ट्रभाषा के माध्यम से ही हर क्षेत्र में तरक्की की है। भारत जब तक अपनी भाषा के माध्यम से शिक्षा का प्रबंध नहीं करेगा, तब तक हम इसी तरह पिछड़ते रहेंगे तथा देश, संस्कृति एवं धर्म की जो क्षति होगी, वह अलग है। विदेशी भाषा में शिक्षा देकर हम भारत की संप्रभूता व एकता को ज्यादा दिन स्थिर नहीं रख पाएंगे। इस संबंध में यह भी ध्यान रखें कि राष्ट्रवाद, देशभक्ति, स्वदेशी, राष्ट्रभाषा का नारा देश में उस महान प्रकांड वेदों के विद्वान एवं राष्ट्र-सुधारक महर्षि दयानंद ने दिया था और वे न तो अंगे्रजी जानते थे तथा न ही वे पाश्चात्य सभ्यता के संपर्क में कभी आए थे।

हमारी सुरक्षा सेनाओं में काम करने वाले सैनिक चाहे देश के किसी भी हिस्से में हों, वे आपसी संपर्क हिंदी के माध्यम से ही करते हैं। फिल्मों ने हिंदी के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। पूरे भारत में हिंदी फिल्में देखी जाती हैं। लेकिन हिंदी भाषा के माध्यम से करोड़ों रूपया कमाने वाले अभिनेता व अभिनेत्री जब अंग्रेजी में ही बातें करते मिलते हैं, तो उन पर तरस आता है। वे भी पलते तो हैं हिंदी के टुकड़ों पर और भाषा बोलते हैं अंग्रेजी। शायद वे किसी मनोवैज्ञानिक बिमारी का शिकार हो सकते हैं। यह खोज का विषय है।

देशभर में यदि विद्यालयों को छोड़ दें तथा विश्वविद्यालयों व महाविद्यालयों की ही गिनती करें तो देश में लगभग 600 विश्वविद्यालय व 31000 महाविद्यालय हैं। इनमें काम करने वाले लाखों शिक्षकों में हिंदी-विभागों की संख्या कापफी है। इनमें से कुछ ही हिंदी के संबंध में सोचते हैं। हिंदी व संस्कृत के शिक्षक भी हस्ताक्षर अंग्रेजी में करते हैं हाजिरी अंग्रेजी में बोलते हैं सारा का सारा कार्य वे अंग्रेजी में करना अपनी इज्जत समझते हैं। ऐसे शिक्षकों ने ही हिंदी को ज्यादा नुकसान पहुँचाया है। यदि हिंदी व संस्कृत पढ़ाने व पढ़ने वाले शिक्षक एवं छात्रा भी ध्यान दें, तो हिंदी का कई गुना अधिक कार्य हो सकता है लेकिन ज्यादातर शिक्षकों को अपनी आजीविका की ही चिंता होती है। भाषा व छात्रों का उनके लिए कोई विशेष महत्व नहीं है।

यहाँ भारत का काला अंग्रेज वर्ग व भाषा के माध्यम से अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने वाले राजनीतिज्ञ यह जान लें कि अंग्रेजी कभी भी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं बन सकती। भारत के अचेतन व सामुहिक अचेतन में संस्कार भारतीय भाषाओं के हैं। अंग्रेजी को मातृभाषा बनाने के चक्र में हम अपनी भाषा, देश, संस्कृति व धर्म को नष्ट कर देंगे। भारत तभी तक भारत है, जब तक उसके मौलिक स्रोतों का सम्मान किया जाता है। भारत अंग्रेजी भाषा के माध्यम से रचनात्मक, क्रांतिकारी एवं अभिनव को जन्म नहीं दे सकता। यदि हमें अपने राष्ट्र, संस्कृति, सभ्यता व अपने धर्म-अध्यात्म की रक्षा करनी है तो हमारी राष्ट्रभाषा ही इसमें हमारी मदद कर सकती है। भाषा की गुलामी राजनीतिक गुलामी से भी अधिक है।

— आचार्य शीलक राम

दर्शन विभाग

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