संस्मरण

मेरी कहानी 149

बहादर की शादी के बाद मैं और कुलवंत दोनों दिल्ली की सैर को निकल गए। यूं तो कुलवंत को सभी धर्म स्थानों, मंदिर या गुरुदुारे से लगन है लेकिन दिल्ली के गुरुद्वारा बंगला साहब से बहुत लगाव है और बंगला साहब उस को कभी भी भूलेगा नहीं। इस का कारण भी अजीब ही है। संदीप और जसविंदर की शादी हुए पांच साल हो गए थे लेकिन बच्चे की आशा पूरी नहीं हुई थी। पांच साल कोई ज्यादा तो नहीं होते लेकिन हमारे समाज में औरतें इस को ज्यादा कर देती हैं। कुछ औरतें कभी कुलवंत से पूछती, कभी जसविंदर से पूछती कि अभी बेबी नहीं लेना ? , जसविंदर इन बातों से अपसेट हो जाती। बच्चे की चाहत तो हर औरत को होती है और यह चाहत अब जसविंदर में भी जोर पकड़ रही थी। एक दिन एक शादी समारोह में एक रिश्तेदार औरत ने जसविंदर से पूछ लिया,” बेबी कब लेना है ?”, जब घर आये तो जसविंदर कुलवंत के गले लग कर रोने लगी। कुलवंत ने जसविंदर को हौसला देते हुए कहा, ” तेरी उम्र ही अभी क्या है, उदास तो तू तब हो, जब मैं तुझे कुछ कहूं, जो बोलता है, उस की परवाह मत कर “, इन बातों से जसविंदर को हौसला हो गया। यह सब बातें कुलवंत ने मुझे तब बताईं, जब जसविंदर गर्भ अवस्था में थी।

दिल्ली घुमते घुमते हम पहले बांग्ला साहब गुरूद्वारे में ही गए। तकरीबन एक घंटा हम वहां रहे। यह गुरुद्वारा है भी बहुत सुन्दर। जोड़ा घर में हम ने अपने जूते जमा कराये और पानी में अपने पैर धो कर ऊपर सीढ़ियाँ चढ़ने लगे क्योंकि गुरुद्वारा कुछ ऊंचाई पर है। गुरुद्वारा इतना सुन्दर है कि किसी नास्तिक का भी सर झुक जाए। हर तरफ संगमरमर ही लगा हुआ था। देख देख रूह प्रसन्न हो रही थी। यह गुरुद्वारा कनाट प्लेस के नज़दीक है और आठवें गुरु हरकृष्ण जी कुछ समय यहां रहे थे। गुरु हरकृष्ण बाल गुरु थे क्योंकि उन की उम्र उस वक्त 9 साल से भी कम थी। उस समय दिली में चेचक की बीमारी फैली हुई थी और गुरु जी ने लोगों की बहुत मदद की थी और खुद भी इस बीमारी के शिकार हो कर स्वर्गवास हो गए थे । 1783 में बाबा बघेल सिंह ने इस जगह छोटा सा गुरुद्वारा बनाया था,जो अब एक विशाल गुरुद्वारा बन गया है।

एक तरफ एक कोने में कुछ सेवक श्रद्धालुओं को पानी पिला रहे थे, हम भी पानी पी कर गुरूद्वारे में चले गए। माथा टेक कर कुछ देर कीर्तन का आनंद लिया और प्रसाद ले कर बाहर आ गए। दाईं ओर एक तरफ सीढ़ियां उतर कर सरोवर बना हुआ है। सरोवर काफी बड़ा और सुन्दर है। यहां कुछ विदेशी फोटो ले रहे थे। सरोवर से वापस आ कर कुलवंत, निशान साहब की परकर्मा करने लगी जो एक गोल प्लैट फ़ार्म के सैंटर में शुषोबत था और काफी ऊंचा था। प्रकर्मा करके कुलवंत माथा टेकने लगी और बहुत देर तक भगवान् से कुछ मांगती रही और जब उस ने सर ऊंचा उठाया तो उस का चेहरा खिला हुआ था और बोली,” आज मुझे कुछ मिलने वाला है पता नहीं क्या “, इस बात पर मैंने कोई ख़ास धियान नहीं दिया। कुछ देर बाद लंगर के लिए लंगर हाल में चले गए। लोगों के साथ बैठ कर खाना हर एक को अच्छा लगता है और एक बात मैंने नोट की है कि इंडिया आ कर भूख बहुत लगती है और खाना भी बहुत स्वादिष्ट लगता है, यह मैं नहीं कहता, सभी लोग जब इंडिया आते हैं तो महसूस करते हैं कि भूख बहुत लगती है और यह शायद इंडिया के मौसम की वजह से है। यहां हम वक्त के हिसाब से खाते हैं, चाहे भूख ना भी लगी हो। यहाँ इंग्लैंड में ज़्यादा लोग सिर्फ एक दफा शाम को ही रोटी खाते हैं और ब्रेक फास्ट, लंच बगैरा के लिए अन्य पदार्थ होते हैं। लंगर हाल से निकल कर हम ने कुछ शॉपिंग की और घर आ गए।

दूसरे दिन हम ने पांजाब के लिए ट्रेन पकड़ी और फगवाड़े आ गए। निर्मल आया हुआ था और सामान गाड़ी में रख कर अपने गाँव राणी पुर पहुँच गए। इस दफा हमें कोई ख़ास काम नहीं था सिवाए कुलवंत की शॉपिंग के क्योंकि सब के लिए कुछ न कुछ लेना था और ज़्यादा शॉपिंग फगवाड़े ही होती थी। फगवाड़ा तो हमें दूसरे घर जैसा ही था। घर से बस या टैम्पू लेते और फगवाड़े पहुंच जाते। सारा दिन घूम घाम के जब बस अड्डे से बस लेते तो बहुत देर तक बस में बैठे रहते क्योंकि कई दफा बस वाले पंद्रह बीस मिंट बस खड़ी करके अन्य ड्राइवरों और कनडक्ट्रों के साथ बातें करते रहते थे, शायद वह टाइम टेबल के हिसाब से चलते थे । कुछ लड़के जो खड़ी बस में सवारिओं को कुछ ना कुछ बेचते थे, उन की आवाज़ें अभी तक मेरे कानों में गूँज रही हैं। एक लड़का एक थाली में ताज़े नारियल के टुकड़े बेचता था और मुंह से बार बार कहता था ” टिकड़ी ई ई ओ, टिकड़ी ई ई ओ “, यह लफ़ज़ मैंने पहले कभी नहीं सुना था, ना जाने यह किस भाषा में होगा। अब यू पी बिहार से बहुत लोग पंजाब में आये हुए हैं, शायद उन की भाषा में यह टिकड़ी शब्द होगा।

एक लड़का पटैटो पीलर बेच रहा था और बोल रहा था, ” ए लो जी यह है झटा झट ते काम करता फटा फट, बटाले का बना हुआ, आलू हो गाजर हो बैंगन हो फटा फट छीलेगा क्योंकि इस का नाम है झटा झट, शादी हो, पार्टी हो, धार्मिक समागम हो, झटा झट, काम करेगा फटा फट। ऐसा बहुत कुछ बोलता रहता था, पहले दिन तो मुझे उस पर हंसी आ गई थी, कुछ दिन बाद सधारण बात हो गई थी। एक लंगड़ा लड़का ऊंची ऊंची बोलता था, बामोटीन ! बामोटींन ! बीस बिमारिओं की एक दवाई, सर में दर्द, खुजली हो, जुकाम हो, पीठ में दर्द हो इस को मलिए, तुरुन्त दुःख से छुटकारा पाइए। ऐसे बहुत से बोल बोलता था, इन सब को मैं धियान से देखता सुनता रहता था और यह भी सोचता था कि यह लड़के कितनी मिहनत कर रहे थे। इन की ओर देख कर मुझे मेरे दोस्त गियान के उन के उन दिनों की याद आ जाती, जब वह चारपाई अपने सर पर रख कर राणी पुर के स्कूल के सामने रख देता था और उस के पिता जी हरिया राम उस चारपाई पर कापिआं, सिआही, सलेटीआं और कुछ खंड की गोलीआं और दाल फुलीआं बेचा करता था। यहां राणी पुर के लिए बस खड़ी होती थी, वहां एक लड़का एक मशीन से गन्ने का रस निकाल कर बेचता था, इर्द गिर्द मक्खियाँ ही मक्खियाँ होती थी, सोचता था, कुछ मक्खियाँ तो जरूर इस बेलन से पिस जाती होगी, इसी लिए हम ने कभी भी गन्ने का रस नहीं पिया था। ऐसे बहुत से लोग रोज़ी रोटी के लिए कुछ ना कुछ बेचते थे।

फगवाड़े में जब भी हम घुमते “दशमेश क्लाथ हाऊस” को जरूर जाते। इस का मालक मेरे छोटे भाई निर्मल का दोस्त है और निर्मल की पत्नी ने उस को भाई बनाया हुआ है, मुझे उस का नाम याद नहीं आ रहा, शायद कुलदीप सिंह है। बहुत हंसमुख और अच्छे सुभाव का है। एक दफा कुछ साल हुए दीवाली के दिन हमारे घर राणी पुर आये थे और बहुत खर्च करके आये थे। बहुत से काम कुलदीप ने हमारे लिए किय़े थे। हमें भारत में कीमतों की इतनी जानकारी नहीं होती थी और कुलदीप हमारी मदद कर देता और हम हैरान होते थे कि कुलदीप हमारी मदद ऩा करता तो कीमत का कितना फरक पढ़ जाता। फगवाड़े में घुमते घुमते कभी अचानक जालंधर जाने का प्रोग्राम बना लेते। एक दिन इसी तरह जालंधर रैणक बाजार जाने का सोच लिया। इस रैणक बाजार में इतनी दुकानें हैं कि लोगों की भीड़ में चलना भी किसी मुहिम से कम नहीं है। यह बाजार ऐसा है कि हर चीज़ यहां मिल जाती है। एक दूकान पर हम ने लैदर कोट देखे और मन कर आया कि एक मैं भी ले लूँ। दूकानदार देख कर फट पेहचान जाते हैं कि यह शख्स बिदेश से आया हुआ है और अपनी नरम बातों से उस से अच्छी कमाई कर लेते हैं।

उस दिन मैंने कमीज़ पाजामा पहना हुआ था। एक लैदर की बड़ी दूकान में हम गए और जैकट दिखाने को कहा। एक जैकट हमें पसंद आ गई। कीमत पूछी तो उस ने दो हज़ार रूपए बताई। मैंने कहा एक हज़ार दूंगा। “क्या बात करते हो जी, इतने की तो हम को मिलती भी नहीं ” ,बहुत बातें उस ने कीं और मेरा कुछ मूड ऐसा हो गया कि मैंने कह दिया, ” फिर किसी दिन आएंगे “, वह हमारे पीछे ही पड़ गया और जब हम जाने के लिए उठने लगे तो वह बोला,” चलो जी हज़ार ही दे दो “, हज़ार रूपए दे कर हम ने जैकट ले ली और मन ही मन मैं सोच रहा था कि इतनी हेरा फेरी, यह तो सरा सर झूठ था। कुलवंत ने कुछ चूड़ियां, बिंदीआं और कुछ अन्य चीज़ें खरीदीं और इस के बाद हम एक बड़े ग्रॉसरी स्टोर में चले गए, जिस में बहुत सी विदेश में मिलने वाली फ़ूड मिलती थी। यहां हम ने हाइन्ज़ बेक्ड बीनज के कुछ डिब्बे और कॉर्न फ्लेक्स लिए। इस दूकान की एक खासियत हम को दिखाई दी कि यहां कोई मोल भाव नहीं होता था।

अब तो मुझे इंडिया की कीमतों का पता नहीं लेकिन उस दिन हमें बेक्ड बीनज का कैन 32 रूपए का मिला था। मैंने दुकानदार को पैसे कम करने के लिए बोला तो उस ने मुझे बता दिया कि उन्होंने दूकान के बाहर ही लिख दिया हुआ है कि वहां फिक्स प्राइस ही थी, चाहे कोई ले या ना ले। मुझे उस की बात से तसल्ली हो गई क्योंकि यही बेक्ड बीनज का टीन फगवाङे से मुझे 45 रूपए का मिला था। इस दिन के बाद जब भी हमें किसी चीज़ की जरुरत होती हम जालंधर रैणक बाजार आ जाते। बीनज तो आम मिल जाते थे। एक दिन फगवाङे में घुमते घुमते एक दुकानदार को बीनज का कैन देने को बोला तो उस ने बोला,” 75 रूपए ” ,मैं कैन छोड़ कर उसी वक्त दूकान से चल पड़ा, दुकानदार आवाज़ देने लगा, ” सरदार जी, साठ रूपए दे दो, चलो जी पचास ही दे दो “, वह नीचे आ रहा था और मैंने गुस्से में बोला,” दस रूपए दूंगा ” और दुकानदार भी दाल गलती ना देख चुप्प कर गया।

इस दफा हम ने जल्दी वापस आ जाना था क्योंकि हम तो सिर्फ शादी की वजह से ही आये थे। कुलवंत की बहन का घर तो फगवाङे के नज़दीक ही है। एक दिन हम दीपो को मिलने चले गए और इस के बाद हम ने आना नहीं था। आज जब मैं दीपो के बारे में लिख रहा हूँ तो मुझे एक विचार आ रहा है कि हमारी पुरानी सभ्यता और आज की सभ्यता में कितना फरक है। आज छोटी सी बात पर पति पत्नी का झगड़ा हो जाता है और बात तलाक पर आ जाती है। दीपो का पति हरी सिंह घर में ही काम करता था। घर के एक ओर लकड़ियां चीरने की मशीन लगी हुई थी, यह एक छोटी सी सा मिल थी। काम काफी आ जाता था और खुद वह लकड़ी से बहुत कुछ बनाते थे, जैसे किसानों के लिए छकड़े, हल और अन्य गाँव में इस्तेमाल होने वाली चीज़ें। यह गांव शहर के नज़दीक होने के कारण शहर जैसा ही था। हरी सिंह के दो और भाई भी साथ ही काम करते थे और एक भाई की कलाई मशीन से कट गई थी। हरी सिंह के पिता जी को मैंने एक दफा ही देखा था क्योंकि वह बाद में स्वर्गवास हो गए थे। दीपो कभी भी माँ नहीं बन पाई, बहुत बातें सुनने को मिली थीं लेकिन सच क्या था हमें नहीं मालूम। हरी सिंह के पिता जी ने अमृत छका हुआ था और हरी सिंह और उन के भाईओं ने भी अमृत छका हुआ था लेकिन यह सब घर के लोग बहुत पुराने विचारों के थे। ज़्यादा ना लिखता हुआ यह ही लिखूंगा कि दीपो की ज़िंदगी एक नारकीय जीवन ही था। एक दफा कुलवंत के पिता जी ने दीपो को कहा भी था कि वह उस की दुसरी शादी कर देगा लेकिन दीपो ने साफ़ इंकार कर दिया था कि लोग क्या कहेंगे, जो उस की किस्मत में लिखा है, वह भोग लेगी। हरी सिंह इस दुनियां से जाने से पहले दीपो से बहुत अच्छा विवहार करने लगा था। दस साल पहले हरी सिंह को स्ट्रोक हो गया था। फगवाङे हसपताल में इलाज हुआ था लेकिन बचाव हो नहीं सका था। दीपो बताती थी कि जाने से पहले हरी सिंह बड़ी मुश्किल से उस का हाथ पकड़ने की कोशिश कर रहा था, उस की आँखों में आंसू थे जैसे कह रहा हो, मुझे मुआफ कर दो।

लेकिन एक बात की हम दीपो को दाद देते हैं। वह अपने दिन बहुत बहादुरी से अच्छी तरह बिता रही है। घर के साथ ही कुछ उन की जगह है। उस में सब्ज़ियाँ बीज लेती है जो वह दूसरे लोगों को भी दे देती हैं। उन के नाम कुछ ज़मींन है, जिस से काफी गेंहूं और अन्य अनाज आ जाता है, जो साल भर के लिए उस के लिए काफी होता है और कुछ बेच भी लेती है। पहले वह घर में एक भैंस भी रखती थी लेकिन अब दीपो बूढ़ी हो चुकी है और भैंस को सम्भालना अब उस के लिए मुश्किल है। कुलवंत उस को कुछ ना कुछ भेजती रहती है। गुर्दे में पथरीआं थीं और कुलवंत ने पैसे भेज कर उस का ऑपरेशन करवा दिया था और अब वह बिलकुल तंदरुस्त है। हफ्ते में एक दफा हम उस को टेलीफोन कर लेते हैं। हमारे बच्चे भी इसी मासी को ज़्यादा पसंद करते हैं। दीपो की मदद करने के लिए देर द्राणीआं भी हैं और कुलवन्तं के मामा जी का लड़का भी जब जरुरत हो, आ जाता है, दिल्ली से बहादर और जसविंदर भी आ जाते हैं और दीपो को कोई तकलीफ नहीं होने देते

दीपो के पास हम कोई दो घंटे रहे, चाय पानी पिया और बहुत गप्पें लगाईं। जब हम राणी पुर जाने को तैयार हुए तो दीपो हमें छोड़ने एक मील रेलवे फाटक तक छोड़ने आई। दोनों के गले लगी और हँसते हँसते हमें विदा किया। घर आ के हम ने दिल्ली जाने की तैयारी कर ली थी क्योंकि हम ने दिल्ली एअरपोर्ट से उड़ान भरनी थी।

चलता. . . . . . .

4 thoughts on “मेरी कहानी 149

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। कथा रोचक लगी और दीपो बहिन जी का प्रसंग पढ़कर मन भावुक हो गया। पति और संतान के न होने पर भी उनका जीवन सामान्य रूप से व्यतीत हो रहा है, यह उनके सद्कर्म और ईश्वर की कृपा लगती है। आज की रोचक एवं ज्ञान व जानकारियों से भरपूर इस आत्मकथा के लिए हार्दिक धन्यवाद्। सादर।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      धन्यवाद , मनमोहन भाई .

  • लीला तिवानी

    प्रिय गुरमैल भाई जी, आपके दिल्ली घूमने के वर्णन से हमें दिल्ली की ऐतिहासिक इमारतों की ऐतिहासिक महत्त्व की जानकारी मिल जाती है. मोलभाव तो भारत की खासियत है. पूरा एपीसोड गतिशीलता और रोचकता से सराबोर है. एक और अद्भुत एपीसोड के लिए आभार.

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      लीला बहन , एपिसोड लिखते लिखते आप की दिली की सैर हो जाती हैं . मोलभाव तो सबी को पता ही होता है लेकिन देर बाद भारत आने पर कुछ देर से समझ आती है .एपिसोड पसंद करने के लिए धन्यवाद .

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