संस्मरण

मेरी कहानी 153

पोते ऐरन की परवरिश होने लगी। दिनबदिन उसका शरीर भरने लगा था और उठाने को मन बहुत करता था। कोई ना कोई मेहमान घर में आया ही रहता था और रौनक लगी रहती थी। देखते ही देखते ऐरन एक साल का हो गया और अब जसविंदर ने काम पर वापस जाना था और ऐरन की देख भाल करना हम दोनों के ज़िमे था। क्योंकि कुलवंत हफ्ते में दो दफा अपना हमजोली ग्रुप अटैंड करती थी, इसलिए जसविंदर हफ्ते में तीन दिन ही काम करती थी और कुलवंत को भी अपना सैंटर चलाने में दो दिन का पूरा समय मिल जाता था। जसविंदर ने कुलवंत का पूरा खियाल रखा और उस को सेंटर में अपनी सखिओं के साथ मज़े करने का पूरा वक्त मिल जाता था। ऐसे रल मिल के ऐरन की परवरिश होने लगी। इस बीच मैं दो वक्त लाएब्रेरी में जाकर अखबार बगैरा पढ़ लेता था और दोस्तों के साथ भी गप्प छप हो जाती। लाएब्रेरी में हम दोस्तों का टेबल एक कोने में इल्लग ही होता था। इस में भी मज़े वाली बात यह है कि कई दफा बातें करते करते कुछ दोस्त ऊंची ऊंची बोलने लगते थे और लाइब्रेरीअन एलसी बोल पढ़ती,” कुआएट प्लीज़ ! “, हम सभी चुप कर जाते लेकिन हम पंजाबियों की आदत भी जाती नहीं, कुछ देर बाद फिर बोलने लगते। एलसी तंग आ जाती और हमारे टेबल पर आ जाती और कहती,” प्लीज़! लाएब्रेरी में बैठे लोग डिस्टर्ब हो रहे हैं, आप बातें करना बन्द कर दीजिये.”

हमारे बीच एक होता था सोहन सिंह तूर, वोह कुछ कॉमिडीयन टाइप का था और अपनी बातों से एलसी को हंसा देता था और वोह हंसती हंसती अपने काउंटर पर चले जाती। कभी कभी एक गोरी जिस का चेहरा ही ऐसा होता था कि उसको देख कर ही मूड ऑफ हो जाता था, वोह कुछ गुस्से में बोलती. तो हम उठ कर चले जाते लेकिन ज़्यादा तर एलसी ही होती थी। उस वक्त मेरी सिहत अभी अछि थी और जिस दिन एलसी ने रिटायर होना था, हम ने पैसे इकठे कर के उस को एक सुन्दर बुक्के दिया था। उस दिन एलसी ने भी हम सब को चॉकलेट दिए, वोह बहुत खुश थी, जब हम लाएब्रेरी से बाहर जाने लगे तो एलसी ने सब के साथ हग्ग किया, इस के बाद एलसी से हमारी मुलाकात कभी नहीं हुई। सोहन सिंह कभी कभी मुझे मिलने आ जाता है और बताता रहता है कि अब लाएब्रेरी में वोह पहले वाली रौनक नहीं होती क्योंकि इंटरनेट की वजह से इतने लोग आते नहीं, कुछ ज़िआदा बूढ़े हो गए हैं और कुछ भगवान् को पियारे हो गए हैं, और जो हमारा ग्रुप होता था, उस में भी एक दोस्त ही आता है।

एक होता था स्वरना राम, जिस ने इंडिया में एक बर्फ का छोटा सा कारखाना लगाया हुआ था और कभी कभी पैंशन लेने के लिए, इंडिया का काम किसी रिश्तेदार को संभाल कर तीन चार महीने यहां रह जाता था। उसके तीन लड़के ही थे जो कोई इंडिया जाने के लिए तैयार नहीं था। मैं तो उसे कुछ नहीं कहता था लेकिन सोहन सिंह उस को बोलता रहता था कि, ” स्वरनियां ! तेरा दिमाग सही है ? जिसके लिए तू ने बर्फ का कारखाना लगाया हुआ है, वोह इंडिया जाने को तैयार नहीं और वोह जा भी नहीं सकते क्योंकि उन के बच्चे यहां पढ़ते हैं, उनको छोड़ कर वोह कैसे जा सकते हैं ?”, स्वर्ण राम को एल्ज़ाईमर रोग हो गया था, धीरे धीरे उस को सब कुछ भूलने लगा था और आखिर में उस की मृतु यहां ही हो गई थी, इंडिया के कारखाने का क्या हुआ, किसी को पता नहीं लेकिन यह स्वरना राम कभी कामरेड हुआ करता था और पार्टी के कामों में बहुत हिस्सा लिया करता था। उस के साथ पलाही गाँव के लड़के हुआ करते थे। एक दफा बहादर के भाई लढ्ढे का बारले मौय पब में झगड़ा होते होते बचा था, तब यह स्वरना भी उस वक्त वहीँ था।

भारत से आये हर परदेसी का यही दुखांत है कि हमारा दिल भारत में और शरीर परदेस में होता है। काम करते करते हमारी ज़िन्दगी बिदेश में गुज़र जाती है लेकिन भारत में जाकर रह नहीं सकते और हम अपने बच्चों को वहां जाने का मशवरा देते हैं, जब कि हम को पता भी है कि वोह स्कूलों में पढ़ते अपने बच्चों को छोड़कर कैसे जा सकते हैं, इस को मृग तृष्णा ही कह सकते हैं। बहुत लोगों ने ज़मींन जायदाद इंडिया में खरीद कर रखी हुई है लेकिन रिश्तेदार कब्ज़ा करके बैठे हैं और उनके साथ मुक़दमे चल रहे हैं। ऐसी उलझनें बुढापे में परदेसियों को दुःख देती हैं और इन्हीं उलझनों के साथ जूझता स्वरना भी दुनिआं से रुखसत हो गया।

एक दिन गियानो बहन का बढ़ा बेटा जसवंत हमारे घर आया और बोला,” मामा ! चलो हम पैरिस की सैर कर आएं ! “, मैंने भी कह दिया कि ” चल हॉलिडे बुक करा ले और मैं तुझे पैसे दे दूंगा “, कुलवंत भी खुश हो गई। तीन दिन की शॉर्ट हॉलिडे जसवंत ने बुक करा ली और संदीप जसविंदर ने भी छुटियों का इंतज़ाम कर लिया। जसवंत उसकी बीवी, मैं और कुलवंत तैयार हो गए। हमने कोच में ही जाना था और डोवर से फैरी में कोच जानी थी। कोच ड्राइवर एक गोरा और उसकी सहायक एक गोरी थी । एक दिन सुबह पांच बजे गोरा कोच ले के हमारे घर आ गया और हम सभी उस में सवार हो गए। ड्राइवर ने जितने पैसेंजर थे उनको उन के घरों से पिक अप्प कर लिया और हम डोवर की तरफ चल पड़े। तकरीबन नौ बजे के करीब हम डोवर जा पहुंचे। डोवर से फ्रांस कोई 25 मील का समुंद्री रास्ता है। फैरी पर सवार होने के लिए कारों और कोचों की लाइन लगी हुई थी। फैरी एक शिप जैसी होती है, जिस में कई मंजलें हैं, जिन में रैस्टोरैंट और दुकाने बनी हुई हैं। शॉपिंग के लिए ड्यूटी फ्री बहुत चीज़ें मिलती हैं।

जब हमारी कोच फैरी में पार्क हो गई तो सभी कोच से उतर कर इस फैरी के बीच जाने लगे। जब डोवर से हम चढ़े थे तो एक गोरी जो एक सीपोर्ट अधिकारी थी, उस ने आते ही कहा था,” your passport please !”, सभी ने अपने पासपोर्ट हाथों में ले कर हाथ खड़े कर दिए और गोरी ने थैंक यू कह दिया था, किसी का पासपोर्ट चैक नहीं किया था और मैं हैरान हो गया था कि कितना फर्क था इंडिया का और इंगलैंड का। जब फैरी में हम दाखल हो गए थे तो हम को भूख लगी हुई थी और पहले हम ने बिग ब्रेकफास्ट लिया और चाय पी कर फैरी के भीतर घूमने लगे। शॉपिंग का हम ने सोच लिया था कि पैरिस से आते वक्त शॉपिंग करेंगे क्योंकि अब खामखाह बोझ उठाने की कोई जरुरत नहीं थी। जो फ्रैंच लोग इंगलैंड की सैर करके आये थे, वोह ख़रीदोफरोख़त कर रहे थे।

हम ने फ़्रांस की कैले बन्दरगाह पर लैंड होना था और यह डोवर से कैले तक इग्लैंड और फ्रांस में सब से छोटा समुंद्री रास्ता है और बहुत बिज़ी रास्ता है। यहां पी ऐंड ओ, हूवर क्राफ्ट और अन्य कंपनियां ऐसी फेरीज़ चलाती हैं, जो कोचों कारों और मोटर साइकलों से भरी हुई होती हैं। वैसे भी कैले यूरप का गेट वे है, इसी लिए यूरप के अन्य देशों में जाने वाले यात्रियों से यह सीपोर्ट बहुत बिज़ी रहती है। डेढ़ घंटे से भी पहले हम कैले पहुँच गए। कोच ड्राइवर ने हम सबको कहा कि हम उसके पीछे पीछे आएं ताकि हम भूल ना जाएँ। जल्दी ही हम अपनी कोच में बैठ गए। हमारे आगे बहुत कोचें थीं। एक दूसरे के पीछे सभी वैहिकल चलने लगे और कुछ मिनटों में एक सड़क पर आ गए। फ्रांस में ट्रैफिक सड़क के दाईं और चलती है और हमारे लिए कुछ अजीब लगती है। कैले से पैरिस, कोच में तकरीबन तीन घंटे का रास्ता है। पैरिस जब पहुंचे तो शाम हो चुक्की थी। ड्राइवर हमें हॉलिडे इन् होटल में ले गया यहां हमारी बुकिंग थी।

जसवंत और हमारा कमरा पास पास था। हमें इलैक्ट्रोनिक चाबियां दे दी गईं जो अपना नंबर डायल करके एक कार्ड को स्वाइप करके कमरा खुलना था जो कुछ स्ट्रगल करके हमने खोल लिए। भीतर गए तो कमरा देखकर रूह खुश हो गई। सबसे पहले हम ने स्नान किया, कपडे बदले और तैयार हो गए क्योंकि हमारा डिनर एक और होटल में बुक था। 9 बजे कोच ड्राइवर और उसकी सहायक आ गए और हमें चलने के लिए बोल दिया। कोच होटल के बाहर खड़ी थी। हम सब उसमें सवार हो गए और होटल की तरफ जाने लगे। कोच ड्राइवर ने डिनर की कीमत हमको पहले ही बता दी थी और यहां मैं यह भी बता दूँ कि पैरिस में महंगाई बहुत है। हो सकता है फ्रांस में रहने वालों के लिए यह साधाहरण बात हो लेकिन जब हम ने पाउंड को यूरो में तब्दील किया तो हमें यह प्राइस कुछ ज़्यादा लगी। डिनर की कीमत 60 यूरो पर हैड थी जो उस वक्त 40 पाउंड बनते थे लेकिन हमने कौन सा महीनों रहना था। यह कीमत आज से तकरीबन चौदह पंद्रह साल पहले थी और आज किया होगी मुझे मालूम नहीं।

आधे घंटे में हम होटल के बाहर खड़े थे। कोच से उत्तर कर हम होटल में दाखल हो गए। एक गाइड ने हम सब को अपने अपने टेबलों पर विराजमान करा दिया। मैन्यू टेबलों पर पढ़े थे और हम ने अपने पसंदीदा ड्रिंक आर्डर कर दिए। ड्रिंक आ गए और हम पीने और बातें करने लगे। एक गोरा वायलिन बजाता हुआ हर टेबल पर आ रहा था और उस की सहायक एक गोरी गुलाब के फूल मर्दों को दे रही थी जो सब ने अपनी अपनी पत्नियों को ऑफर करने थे। जसवंत ने अपनी पत्नी बलविंदर को गुलाब का फूल दिया और कैमरा मैंन ने फोटो खींची और इसी तरह मैंने भी कुलवंत को गुलाब का फूल कुछ नज़ाकत के साथ दिया और हम हंसने लगे। वाइओलिन वाला बहुत अछि धुन वजा रहा था लेकिन हम को उस की समझ ना आते हुए भी महसूस हो रहा था कि यह धुन पति पत्नी में रूमांस के बारे में ही होगी। इस में एक बात पर हम बहुत हंसे, जब हमारी पत्नियां टॉयलेट गईं तो आ कर उन्होंने हमें बताया कि यूं ही वोह टॉयलेट सीट पर बैठीं टॉयलेट धीरे धीरे गोल चक्कर में घूमने लगी और यह बहुत अच्छा लग रहा था। जैंट्स टॉयलेट में ऐसा नहीं था। बहुत देर तक हम हंसते रहे। डिनर का मज़ा आ गया। खा कर बाहर निकले तो कोच वाला कोच के साथ खड़ा था, जिस में सवार हो कर हम वापस हॉलिडे इन में आ गए और आते ही सो गए।

सुबह उठ कर स्नान आदी किया और नीचे डाइनिंग हाल में आ गए। सभी कौंटिनैंटल ब्रेकफास्ट का मज़ा लेने लगे जो नाना प्रकार के सीरियल, बनज, फ्रैंच ब्रैड बटर और कई तरह के जूइस से भरपूर था। जी भर कर खाया और बाहर खड़ी कोच में बैठ गए। सब से पहले कोच वाला हमें आइफल टावर ले गया। आज तक हम इसे फोटो में ही देखते आये थे और अब हम इस के सामने खड़े थे। ऊपर की तरफ देखा तो चक्कर सा आने लगा क्योंकि यह बहुत ऊंचा था। टिकट लेने के लिए हम लाइन में खड़े हो गए और ऐसी बहुत सी लाइनें लगी हुई थीं। 6 यूरो टिकट था और टिकट ले कर हमने टिकट दिखाया और सीडीओं से ऊपर चढ़कर पहली मंज़िल पर आ गए और इर्द गिर्द घूम कर नज़ारा देखने लगे। दो मन्ज़िल चढ़कर हम लिफ्ट में बैठ गए और यह लिफ्ट हर मन्ज़िल पर खड़ी होती, कुछ चढ़ते और कुछ उतर जाते। हम बहुत ऊंचे चढ़ गए थे और कुलवंत और बलविंदर ने और ऊपर जाने से मना कर दिया कि उनको डर लगता है। मैं और जसवंत आख़री मंज़िल तक गए। यहां से सारा पैरिस दिखाई देता था। लोग फोटो खींच रहे थे, ज़्यादा लोग विदेशों से ही आये हुए थे। जो नज़ारा हमने इस आइफल टावर का देखा, उसका शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। इसी लिए तो इसका स्थान दुनीआं के सात अजूबों में से है।

फिर भी कुछ कुछ लिखूंगा। यह टावर फ्रैंच रेवोल्यूशन के बाद बनाया गया था और इस का निर्माण world fair मनाने के लिए एक लोहे के गेट की शक्ल में बनाया गया जो बाद में कुछ सालों बाद ढा दिया जाना था। इस को डिज़ाइन करने वाले दो इंजनीयर थे और इंजनीयर गुस्ताव आइफल के नाम पर इस का नाम आइफल टावर रखा गया था। यह सारा लोहे का बना हुआ है और इस को बनाने में दो साल और दो महीने लगे थे। 1887 में बनना शुरू हुआ और 1889 में कम्प्लीट हुआ था । इस की ऊंचाई 324 मीटर है। इस टावर को इतना पसंद किया गया कि इसे देखने के लिए दुनिआं भर से लोग आने लगे और यह सिलसिला आज तक जारी है। ताज महल के बाद इस टावर को देखने करोड़ों लोग आ चुक्के हैं। सारा दिन देखने वालों की लाइनें ख़तम नहीं होती और शाम को तो बहुत रौनक होती है क्योंकि शाम को सारा टावर हज़ारों रंग बरंगे बिजली के बल्वों से रौशन होता है। टावर देखने के बाद ड्राइवर हमें नोटरडैम चर्च दिखाने ले गया। इस चर्च का आर्ट भी देखने लायक है। हमें बताया गया था कि यह चर्च 800 साल पुराना है और इस को बनाने में सौ साल से भी ज़्यादा वक्त लगा था और इस में हर पेरिसवासी ने योगदान दिया था, किसी ने पैसे से और किसी ने काम करके। यह चर्च देखने के बाद ड्राइवर ने बाहर से ही एक बिल्डिंग दिखाई जिस में कभी मैडम तुसाद रहा करती थी। उस की माँ एक सविज़ डाक्टर के पास काम किया करती थी जो मोम के बुत्त बनाया करता था, उसी से ही मैडम तुसाद ने बुत्त बनाना सीखा था और पैरिस में कुछ देर अपना काम करने के बाद लंदन आ कर काम शुरू किया था। वोह खुद तो कोई ख़ास पैसा नहीं बना सकी लेकिन आज दुनिआं भर से लोग मोम के बुत्त देखने लंडन आते हैं। यहां यह मोम के पुतले रखे जाते हैं, उसके नाम पर ही इस का नाम मैडम तुसाड रखा गया है।

इस के बाद ड्राइवर हमें एक और चर्च दिखाने ले गया, जिस का नाम मुझे याद नहीं लेकिन यह चर्च बहुत ऊंचाई पर था और केबल कार के जरिये हम ऊपर गए और हमें इसके पैसे देने पढ़े। । इस चर्च में लोग मोम बतिआं जला रहे थे और मोम बतिओं से काफी जगह भरी हुई थी। यह चर्च भी आर्ट का एक नमूना ही था। चर्च देख कर हम वहां एक लान में आ कर बैठ गए। वहां हमारी एक फ्रैंच आदमी के साथ मुलाकात हुई जो पंजाबी बहुत अछि तरह बोलता था। कुछ शॉपिंग हमने यहां की और मैकडोनल्ड में पेट पूजा भी की। दिन बहुत अच्छा था और धुप खिली हुई थी। इस जगह काफी समय हमने बताया और आगे के प्रोग्राम के लिए हम ड्राइवर का इंतज़ार करने लगे।

चलता। . . . . . . . . . .

7 thoughts on “मेरी कहानी 153

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। लेख अच्छा और जानकारियों से भरपूर लगा। धन्यवाद्।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      धन्यवाद लीला बहन , तुसीं ते रंग ला दित्ते !

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत खूब, भाई साहब ! पेरिस का हाल पढ़कर मजा आ गया. मैंने कभी यूरोप नहीं देखा. देखने का बहुत मन है. पता नहीं कब मौका मिलेगा.

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      विजय भाई ,मन तो मेरा भी बहुत करता है, बहुत कुछ देखने को लेकिन क्या करें शरीर ने जवाब दे दिया . वोह समय बहुत अच्छा था लेकिन आज कोई भरोसा नहीं, कहाँ कुछ हो जाए . ईराक में टोनी ब्लेअर और बुश ने जो बर्बादी की, उस का नतीजा ही यह सब हो रहा है . वैसे देखने लायेक तो बहुत है .

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    धन्यवाद लीला बहन .

  • लीला तिवानी

    प्रिय गुरमैल भाई जी, हर कड़ी से नई-नई बातों की जानकारी मिलती हैं, कई राज़ों से पर्दा हटता है. कहानी की एक और रोचक कड़ी के लिए आभार.

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