संस्मरण

मेरी कहानी 159

मंदीप की शादी देख कर हम वापस आ गए थे। पोते ऐरन की उम्र एक साल होने पर जसविंदर वापस काम पर चले गई थी क्योंकि बच्चे की परवरिश के लिए माँ को एक साल की छुटी मिल जाती थी। अब कुलवंत और मैं मिल कर पोते की परवरिश में मगन हो गए। छोटे बच्चे की देख भाल करना भी वक्त तो लेता ही है लेकिन इस में मज़ा भी बहुत आता है। बार बार कपड़े बदलना, बच्चे का बार बार दूध निकालना और कभी उस का रोना और इस से भी बड़ा काम बार बार उस को साफ़ करके नापी बदलना, इस में ही सारा दिन ब्यतीत हो जाता था। सारा दिन कपड़े मशीन में धुलते रहते और फिर इन कपड़ों को ड्रायर में डाल कर सुखाना और बाद में इन कपड़ों को प्रैस करने में सारा दिन बतीत हो जाता था लेकिन नए कपड़े पहन कर ऐरन खिलौना सा लगता जैसे खिलौनों की दूकान में प्लास्टिक की डौल होती हैं। मैं तो ब्रेकफास्ट ले कर लाएब्रेरी में कुछ घँटों के चले जाता था लेकिन कुलवंत की ड्यूटी तो फुल टाइम थी और सब से बड़ी बात कुलवंत इस को ऐंजौए करती थी। वैसे भी कुलवंत को बच्चों से बहुत पियार है। अब तो उस की सिहत में भी फर्क पढ़ गया है क्योंकि इस उम्र में तो यूं ही शरीर का ग्राफ नीचे की ओर आने लगता है लेकिन उस वक्त अभी उस के शरीर में ताकत थी। ऐरन को सुला कर कुलवंत वूल से नए नए डिज़ाइन के कार्डीगन बुनती रहती। कुलवंत को तो यूं ही बहुत शौक है इस तरह का और किसी भी रिश्तेदार के घर नया बेबी आता है तो उसी वक्त बुनना शुरू कर देती है, यह उस की लगन है। अब उस को जोड़ों का दर्द है लेकिन अभी भी इस उधेड़ बुन में लगी ही रहती है।
मुझे याद है जब पह्ले दिन ऐरन अपने पैरों पर खड़ा हो कर चलने और गिरने था लगा तो हम बहुत खुश थे। पहले बच्चे से यूं भी बहुत पियार होता है। नए नए खिलौने हम लाते ही रहते थे। ऐरन कुछ और बड़ा हुआ तो एक दूकान से हम ने उस के लिए बहुत ही छोटा सा ढोल ला दिया। ढोल से ऐरन बहुत खुश था और गले में डाल कर कमरे के इधर उधर घूमता ढोल वजाता रहता और उस को देख कर हम तालियां वजाते रहते। दिनबदिन ऐरन बड़ा हो रहा था और हम उस को बाहर पार्क में ले जाने लगे थे यहां बच्चों के खेलने के लिए तरह तरह की पींघें, सीसौ और घूमने वाले स्विंग थे। हम ऐरन को हर जगह बैठाते और वोह एन्जॉय करता। और भी बहुत बचे होते थे। स्लाइड पर जाने से वोह डरता रहता था, मैं उस को साथ ले कर ऊपर चढ़ जाता और फिर उस को स्लाइड से नीचे जाने को कहता। एक दफा उस ने किया और फिर उस का डर ख़तम हो गया। सीसौ पर एक तरफ मैं बैठ जाता और दुसरी तरफ कुलवंत ऐरन को बिठा देती और मैं उस को ऊपर नीचे झूटे देता और वोह बहुत हंसता और खुश होता। ज़्यादा ख़ुशी उस को तब होती थी जब हम आइसक्रीम लेने जाते।
क्योंकि अब हम दोनों मिआं बीवी काम से रुखसत हो गए थे, इस लिए हमारे लिए भी समय बिताने के लिये पोता सहाई हो रहा था। उस समय कुलवंत क्योंकि दो दिन अपने हमजोली ग्रुप में जाया करती थी, इस लिए जसविंदर सिर्फ तीन दिन ही काम करती थी। बुधवार और वीरवार को कुलवंत अपने सेंटर जाया करती थी, इस से उस को भी अपनी सखिओं के संग मज़े करने का वक्त मिल जाता था। जसविंदर ने हमेशा कुलवंत का साथ दिया और उस को भी ऐनजौये करने का वक्त मिल जाता था। एक दिन गियानों बहन का बेटा जसवंत हमारे घर आया और बोला,” मामा ! एक सस्ती हौलिडे मिल रही है क्योंकि चार लोगों के अपनी हौलिडे कैंसल करने की वजह से यह सस्ते में मिल रही है और एक हफ्ते की है, अगर आप का विचार है तो बुक करा लूँ, वरना यह हाथ से निकल सकती है “, कुछ देर बाद जसविंदर भी आ गई और सुन कर बोली कि वोह छुटीओं का इंतजाम कर लेगी और ऐरन को संभालने की हम को कोई चिंता नहीं है, हम को यह चांस मिस नहीं करना चाहिए। जसवंत को हम ने बोल दिया कि वोह बुक करा ले। जसवंत निउ क्रॉस हस्पताल में काम करता था और अब रिटायर हो कर भी काम कर रहा है। हस्पताल में जसवंत का काम जितनी भी मशीनें हैं, जैसे एक्सरे एमआरआई स्कैन और ऐसी ही अन्य मशीनों को नुक्स पड़ने पर ठीक करना है। इस लिए क्योंकिं हस्पताल में नई नई मशीने आती रहती हैं, उन को सीखने की ट्रेनिंग के लिये यूर्पीन देशों में जाना ही पड़ता रहता है और इसी तरह थर्ड वर्ल्ड कंट्रीज़ में हस्पतालों में मशीनों की ट्रेनिंग देने के लिए भी जाता ही रहता है। वोह तो दुनिआं ऐसे घूमता रहता है जैसे हम इंडिया में घुमते थे। उस की इस नॉलेज का हम को बहुत फायदा होता था क्योंकि वोह गाड़ी भी राइट हैंड साइड पर आसानी से ड्राइव कर लेता था। जिस वक्त की बात मैं लिख रहा हूँ, उस वक्त कंपयूटर का मुझे कोई गियान नहीं था और जसवंत तो हर वक्त हैलिडे की सस्ती डील देखता ही रहता था।
दो दिन बाद ही जसवंत ने घर आ कर हमें बता दिया कि हॉलिडे बुक हो गई थी और यह पुर्तगाल के हॉलिडे रीजॉल्ट ALGARVE में थी और मज़े की बात इस में यह थी कि हॉलिडे कंपनी वालों ने हमें कार भी फ्री में देनी थी। पुर्तगाल में कार सड़क के दाईं ओर चलती है और जसवंत के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं थी। जसवंत और उस की माँ गियानो दोनों ने जाना था क्योंकि जसवंत और उस की पत्नी के दरमियान कुछ अनबन चल रही थी और इधर हम दोनों ने जाना था । यह हॉलिडे सैल्फ केटरिंग भी थी यानी अगर हम चाहें तो अपना खाना जब जी चाहे खुद भी बना सकते थे और उन्होंने किचन भी हम को देनी थी जिस में खाना बनाने के सभी बर्तन गैस कुकर और फ्रिज मौजूद थे । वैसे तो यहां हम ने ठहरना था, यह काफी बड़ा होटल था और algarve तो सारा होटलों से ही भरा था लेकिन फिर भी हम ने कुछ मसाले शीशियों में भर लिए ताकि हम अपने खाने भी बना सकें, ख़ास कर आलू और पिआज के पराठे। सूटकेस तैयार हो गए थे और संदीप हमें रेलवे स्टेशन पर छोड़ आया। टिकट लिए और दस मिंट में ही ट्रेन आ गई। ट्रेन में बैठे ही थे कि आधे घण्टे में हम बर्मिंघम ट्रेन स्टेशन पर पहुँच गए, यहां से हम ने दुसरी ट्रेन ईस्ट मिडलैंड एअरपोर्ट के लिए लेनी थी। प्लेट फ़ार्म बदल कर हम दुसरी ट्रेन में बैठ गए जिस ने जल्दी ही हमें एअरपोर्ट पर पहुंच दिया। बता देना चाहता हूँ कि उस समय यह एअरपोर्ट हमारी बस कंपनी नैशनल ऐक्सप्रैस ने खरीद ली थी, अब का मुझे कोई पता नहीं कि इस का मालक कौन है।
चैक इन काउंटर पर हम तकरीबन दो घँटे पहले पहुँच गए थे। पासपोर्ट दिखाए, लेबल लगाए गए, बोर्डिंग कार्ड और सामान की रसीदें लीं और सामान चले गया, अब हम फ्री थे और एअरपोर्ट की दुकानों पर जाने लगे। यह एअरपोर्ट इतनी बड़ी नहीं थी, अब तो शायद बहुत बड़ी हो लेकिन उस समय कोई ख़ास बड़ी नहीं थी। लाउंज में घुमते घुमते एक कैफे में बैठ गए और चाय का कप्प कप्प लिया। अब अँधेरा होने लगा था और फ्लाइट नंबर की अनाऊंसमैंट होने पर हम अपनी फ्लाइट की ओर जाने लगे। आखिर में प्लेन के भीतर जाने लगे, यहाँ दो एअर होस्टैस मुस्करा कर वैलकम कर रही थीं। एक एअर होस्टैस बोर्डिंग कार्ड देख देख कर सीटों की ओर इशारा कर रही थी। अपनी अपनी सीट पर जल्दी ही हम विराजमान हो गए। सभी यात्री आ जाने पर ऐरोप्लेन का दरवाज़ा बन्द कर दिया गया और इंजिन ऑन हो गया। मैंने जहाज़ के दोनों तरफ नज़र घुमाई, देखा, इस प्लेन में हम ही इंडियन थे और शेष गोरे ही थे। हर कोई अपने अपने परिवार से बातें करने में मसरूफ था लेकिन बहुत शान्ति का वातावरण था। ऐरोप्लेन चलने लगा, रनवे पर लाइटों से दीप माला जैसी रौशनी थी जो देख कर सुन्दर नज़ारा लगता था। कोई एक मील रनवे पर चल कर ऐरोप्लेन खड़ा हो गया। कुछ देर के बाद इंजिन की स्पीड तेज और तेज होने लगी और फिर एक दम जहाज़ तेजी से दौड़ पड़ा और कुछ ही देर में ऊपर उठ गया और सही मानों में हमारे पैरों तल्ले ज़मींन खिसक गई और मिनटों में ही हम बहुत ऊपर उड़ते जा रहे थे। सब ने सीट बैल्टें खोल दी थीं और गोरे गोरीआं ड्रिंक ऑर्डर कर रहे थे। मैं और जसवंत ने भी ड्रिंक ऑर्डर किये और एअर होस्टेस हमारे आगे रख गईं। कुछ देर बाद रात का खाना भी आ गया जो सारा इंग्लिश मैन्यू के मुताबिक ही था और बहुत स्वादिष्ट था क्योंकि हम पहले से ही इस खाँने के आदी थे। कुलवंत और गियानों ने वेजिटेरिअन लिया था। मैं कभी कुलवंत की ट्रे से कुछ ले लेता और कभी कुलवंत मेरी ट्रे से मर्ज़ी के मुताबिक उठा लेती। मज़े से खाया और बाद में एक एक कप्प कॉफी का लिया। तीन घण्टे का यह सफर था और पता ही नहीं चला कब हम फैरो एअरपोर्ट पर लैंड होने वाले थे। “लेडिज़ ऐंड जैंटलमैन,कृपा अपनी पेटियां बाँध लें, हम फैरो एअरपोर्ट पर लैंड होने वाले हैं”, सुन कर हर तरफ कलिक्क कलिक्क की आवाज़ सुनाई दी। अब हम फैरो शहर के ऊपर उड़ रहे थे और नीचे लाखों रौशनियों से दीपमाला जैसा नज़ारा दिखाई दे रहा था जो बहुत मनमोहक था।
अब जहाज़ नीचे आता आता रनवे पर आ गया और धीरे धीरे चलता हुआ एअरपोर्ट की मेंन बिल्डिंग के पास आ कर खड़ा हो गया। कुछ देर बाद दरवाज़ा खुला हम अपने अपने हैण्ड बैग पकडे लाइन में खड़े हो कर धीरे धीरे चलने लगे। कुछ मिनटों में ही हम कस्टम हाल में पहुँच गए, ऐसा लगा जैसे दरवाज़ा खोल कर दूसरे बड़े कमरे में आ गए हों। कस्टम में कुछ नहीं देखा गया, सिर्फ पासपोर्ट देख कर हमें जाने दिया। हॉलिडे कंपनी की ओर से उन का रीप्रीज़ेन्टेटिव हमारे आगे आ गया और पहले उस ने सारे यात्रियों की लिस्ट देख कर, जब उस को यकीन हो गया कि उस की लिस्ट के मुताबिक़ सभी यात्री आ गए थे तो उस ने हमें अपने पीछे आने को कहा। कुछ ही मिनटों में हम एक खड़ी कोच के पास आ गए और हमें अपना सामान उस में रखने के लिए कहा गया जो हम ने रख दिया और कोच में बैठ कर होटल की तरफ जाने लगे। आधे घंटे में हम होटल के पास आ गए और अपना अपना सामान ले कर होटल के आँगन में आ कर सभी एक लाइन में खड़े हो गए और एक एक करके अंदर जाने लगे। हमारे आगे अब एक बड़ा सा काउंटर था और इस के पीछे कुछ लड़कियां खड़ी थीं जो पासपोर्ट देख देख कर होटल के कमरों की चाबियां हमें दे रही थीं, साथ ही वोह पासपोर्ट और टिकट ले कर लॉकर में रख रही थीं जिन के लिए हम को 25 यूरो देने थे। चाबियां देख कर सभी हंस रहे थे क्योंकि यह पीतल से बनी हुई थीं और छै सात इंच इंच लंबी बहुत भारी थीं। यहां इंडिया की तरह कोई कुली नहीं था, और अपना अपना सामान खुद उठा कर चल रहे थे। होटल की कई मंज़िलें थी और डायरैक्शन के मुताबिक देखते देखते हम अपने कमरों के पास पहुँच गए थे। हमारे दोनों के कमरे साथ साथ थे। ताला खोल कर हम कमरे के भीतर गए और कमरा देख कर रूह खुश हो गई। टैली,एक तरफ टॉयलेट और शावर रूम था और दुसरी ओर छोटी सी किचन थी, जिस में गैस कुकर और फ्रिज थे, साथ ही पानी के लिए किचन सिंक था। कुछ फ्राई पैन, चमचे, कप्प प्लेटें, एक बड़ा पैन सब्ज़ी बनाने के लिए, चाय बनाने के लिए केतली और शूगर चाय पत्ती, कुछ यूर्पीन मसाले और बहुत सी अन्य चीज़ें थीं। देख कर घर जैसा ही लगा। सामान रख कर जसवंत और गियानो बहन हमारे कमरे में ही आ गए। हम हंसने लगे कि हमारे घर मेहमान आ गए हैं, इस लिए चाय बनाते हैं। उसी वक्त हम ने चाय बनाई और पीते पीते बातें करने लगे। अँधेरा काफी हो चुक्का था और कुछ देर के लिए बाहर घूमने का हम ने मन बना लिया। कमरों को ताले लगा के हम होटल के बाहर आ गए और होटलों का नज़ारा देखने लगे। होटलों के बाहर खड़े उन के कर्मचारी हम को अंदर आने के लिए कह रहे थे लेकिन आज हम जहाज़ में ही खा कर आये थे। एक घंटा घूम फिर कर हम वापस होटल में आ कर सो गए।
सुबह उठ कर स्नान आदी से निपट कर पहले एक कमरे में ही हम ने चाय बनाई और बातें करने लगे। चाय के कप्प पकडे हुए हम गैलरी में आ कर बाहर का नज़ारा भी देखने लगे। दूर दूर तक होटल ही होटल दिखाई दे रहे थे और नीचे हमारे होटल के कम्पाउंड में दो शख्स स्विमिंग पूल की सफाई कर रहे थे और कुछ गोरे बैठे धुप का आनंद ले रहे थे। कुछ देर बाद हम कपडे बदल कर ब्रेकफास्ट के लिये होटल से चल पड़े। बाहर आये तो होटलों से खानों की महक आ रही थी। ज़्यादा होटल पुर्चगीज़ लोगों के ही थे और कोशिश कर रहे थे कि कोई इंग्लिश होटल मिल जाए। रास्ते में एक गोरे से पुछा तो उस ने बताया कि नज़दीक ही एक स्कॉटिश का होटल है। क्योंकि इंग्लिश और स्कॉटिश में कोई ख़ास फर्क नहीं है, जल्दी ही हम उस स्कॉटिश होटल में आ गए। हम हैरान हुए कि वहां सभी इंग्लिश लोग ही ब्रेकफास्ट खा रहे थे। उन की प्लेटों को देख कर इंगलैंड का ब्रेकफास्ट याद आ गया। काउंटर पर जा कर हम ने गोरी को वहीँ हम दोनों के लिए बिग ब्रेकफास्ट का आर्डर दे दिया और कुलवंत गियानों बहन के लिए वेजिटेरिअन ब्रेकफास्ट। उस वक्त टीवी पे इंगलैंड का किसी और देश के साथ फ़ुटबाल मैच चल रहा था और सभी मैच देखने में बिज़ी थे। मुझे याद नहीं किस टीम से यह मैच था लेकिन जब कोई गोल होता तो हम तालियां बजाते। बहुत मज़े से ब्रेकफास्ट ले कर हम बाहर आ गए और ट्रैवल एजेंट के दफ्तरों पर लगे एक्सकर्शन की डील के पोस्टर देखने लगे क्योंकि हम lisbon जाना चाहते थे जो पुर्तगाल की राजधानी है । algarve, हॉलिडे डेस्टिनेशन होने के कारण यहाँ ट्रैवल एजेंट बहुत थे। बहुत जगह हम ने देखा, आखिर एक जगह आ कर हम रुक गए। lisbon के डे ट्रिप की कीमत 90 यूरो थी लेकिन यह दो दिन बाद जानी थी। यहां आम दुकानों वाले इंग्लिश बोल लेते थे। हम भीतर गए और जसवंत ने ही गोरी से बात चीत की। उस ने बताया कि कोच सुबह पांच बजे चलेगी और ड्राइवर के साथ एक गाइड होगा जो हर हिस्टॉरिकल जगह का इतिहास जानता है। हम ने यह excursion बुक करा ली, पैसे दे कर हम आ गए गए। कुछ देर घूम घाम कर होटल में आ गए। कुछ ही देर हुई तो एक गोरी एक फ़ाइल पकडे कमरे में आ गई जो किसी कार हायर कंपनी से हमारे लिये कार ले कर आई थी। जसवंत उस के साथ होटल से नीचे आ गया और उस के साथ बैठ कर कॉन्ट्रैक्ट साइन किया और गोरी से चाबी ले कर पार्क में कार खड़ी कर दी। कुछ घंटे आराम करके हम गाड़ी ले कर किसी रैस्टोरैंट में खाने के लिए चल निकले। क्योंकि गोरे हॉलिडे करने यहां बहुत आते हैं, इस लिये हम उन से पूछ लेते कि किस रैस्टोरैंट की फ़ूड अछि थी। एक गोरे ने एक पुर्चगीज़ रैस्टोरैंट के बारे में बताया तो हम वहां पहुँच गए। मैन्यू देख कर हम ने आर्डर दिया जो गियानों बहन और कुलवंत के लिए इलग्ग था और हमारे लिए इलग्ग। इस में कोई शक्क नहीं था कि खाना बहुत स्वादिष्ट था। एक बात का बहुत मज़ा था और वोह था कि यहां कोई भीड़ भाड़ नहीं थी क्योंकि अब ऑफ सीज़न था। रैस्टोरैंट मालक ने बताया कि जब पीक सीज़न होता है तो सब होटल भरे होते हैं और अब क्योंकि छुटियाँ ख़तम हो गई थीं, इसी लिए अब ज़्यादा पेंशनर लोग और सैल्फ ऐम्पलॉएड लोग ही आते थे। कुछ भी हो हमारे लिए तो यह अच्छा ही था क्योंकि यहां भी खाते थे, मज़े से खाते थे और बैठे गप्पें हांकते रहते थे। खाना खा के हम वापस आ गए, कुछ देर विंडो शॉपिंग की और कुछ लिया भी जिस पर अलगाव की पिक्चर होती थी। और याद नहीं किया कीया लेकिन रात को होटल के हाल में बहुत बड़ीया प्रोग्राम था। गाना बजाना, कॉमेडी और बच्चों की ऐंटरटेनमेंट के लिए बहुत कुछ हो रहा था। देर रात तक हम बैठे रहे और शाम का खाना एक इंडियन रैस्टोरैंट में खाया जो बंगाली था। यहां तंदूरी रोटियां और साथ में शुद्ध भारती खाने, बस मज़ा ही आ गया। रात काफी हो चुकी थी और रैस्टोरैंट से सीधे होटल में आ कर दूसरे दिन का प्रोग्राम बना कर सो गए। चलता. . . . . . . . . .

9 thoughts on “मेरी कहानी 159

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिह जी। लेख अच्छा लगा. दूर दूर की यात्राओं से प्रसन्नता होती है और जानकारी में वृद्धि होती है। ज्ञान को सबसे बड़ा सुख कहा गया है। आपकी यात्रा सुखद व्यतीत हो रही है, वर्णन पढ़ कर अच्छा लगा। सादर।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      धन्यवाद ,मनमोहन भाई .

  • राजकुमार कांदु

    आदरणीय भाईजी ! आपका लेख पढ़कर लगता है हम भी आपके साथ ही घुमने निकल पड़े हैं । हर घटना का जिक्र आप बड़ी बारीकी और बेबाकी से करते हैं । घर बैठे मुफ्त में एक और सैर कराने के लिये आपका ह्रदय से धन्यवाद ।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      राजकुमार भाई , अब तो दो दो सैरें हो रही हैं . यह कड़ी भी पसंद करने के लिए धन्यवाद .

  • लीला तिवानी

    प्रिय गुरमैल भाई जी, मज़े लेने वाले हर जगह मज़े ही लेते हैं. आपके साथ-साथ हम भी मज़े ले रहे हैं. पोते की परवरिश ने हमें भी बहुत बातें याद दिला दीं. एक सटीक एवं सार्थक कड़ी के लिए शुक्रिया.

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      धन्यवाद लीला बहन , बच्चों की परवरिश के बारे में आप से ज़िआदा कौन जान सकता है . इस कड़ी को भी पसंद करने के लिए तहेदिल से धन्यवाद .

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत बढ़िया, भाईसाहब ! आपकी छुट्टियों का हल पढ़कर हमें भी मजा आ गया. पोते की देखभाल का काम भी मजेदार होता है.

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत बढ़िया, भाईसाहब ! आपकी छुट्टियों का हल पढ़कर हमें भी मजा आ गया. पोते की देखभाल का काम भी मजेदार होता है.

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      धन्यवाद विजय भाई ,बच्चों के साथ बिठाये पल तो दुर्लभ होते हैं . यह एपिसोड पसंद करने के लिए धन्यावाद .

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