कहानी

कहानी : कुछ कही कुछ अनकही

मेरे गाँव से दूसरे गाँव जाने के लिए सिर्फ एक पगडण्डी ही थी | छत या चौबारे में खड़ी अमिता सोचती कभी तो में भी इस। छोर से उस छोर जा सकुंगी | लोग छोटे छोटे थैले कंधो पर डालकर – उसमे छोटी छोटी जरूरते भर कर बहार निकलते थे | और सब दिन ढले उनके पूरा होने का इन्तजार |
रोज सूरज उगते ही काम में जुट जाना और शाम ढले छत के कोने से पगडण्डी निहारना | इन्तजार किसका ? नहीं पता | एक अनजानी सी चाहत और दूसरी और जाने की चाहत हावी होने लगी थी | आखिर वो लम्हा मिल ही गया जब शाम ढले बापू ने कहा बिटिया का रिश्ता कर आया हूँ दूसरे गाँव | माँ बाप गांव में और छोरा शहर में काम करे है |सुन ऐसा लगा जैसे पंख मिल गए है | इस राह से कोई राह जुड़ गयी है | मन मयूर नाँच उठा |

बेताब तमन्नाओं की कसक रहने दो
मंज़िल को पाने की कसक रहने दो

अमिता काम में जुट गयी | तन तो यही था पर मन कहि और जुड़ गया था | उसकी आँखों में बसें सपने रंगो से भर गए थे | उस छोर की उड़ती मिट्टी उसे अपनी लगने लगी थी | हर पल हर लम्हा ख़ुशी से बीत रहा था|

” बात कहनी है अपने दिल की हमें
हँस के कह दो – चलो कहो – तो कहू |”

सब बाते तय हो गयी थी कल दिन में उन्हें घर आना था , सभी परिवार को | घर की सफाई में सुबह लगी तो शाम हो आई | चादर , कुशन , परदे सब बदल दिया | घर को ऐसे सजाया जैसे खुद सज रही थी | खाना खा सब सोने गए की सुबह जल्दी उठना है | पर मेरा क्या रात थी की बीतती ही नहीं थी | आँखे बन्द होने को तैयार नहीं |

” दीया जले सारी रात
रात की बढ़ती वीरानियों से
दिल में हूक सी उठने लगी
किसी के इन्तजार में व्याकुल सी आँखे
अब नींद से झपकने लगी …
हर आहट पर लगता तुम हो
पर मात्र भरम था
तुम ना आये
रात गुजरती गयी …
आखिर आँखों से बरस ही पड़ी
दिल की बात
दीया जले सारी रात ||

अमिता की सोचते सोचते कब आँख लग गयी पता ही नहीं चला | सुबह माँ झिंझोड़ रही थी की उठ देर हो जायेगी |
अमिता की आँख खुली तो सूरज की लालिमा बिखरने लगी थी | जल्दी काम निबटाने के चक्कर में ऊपर छत की तरफ कपडे सुखाने चढ़ी की ना जाने कैसे पैर उलझे की सीढ़ियों से गिर पड़ी | और पैर में हल्का सा फ़ैक्चर ? उफ्फ्फ्फ्फ़ — अब क्या | फफक पड़ी सब सोच ? अभी तक चेहरा शरमाया और लाल हुआ था अब उसकी आँख लाल हो रही थी |

रुला के गया सपना मेरा , बैठी हूँ कब हो सवेरा

माँ बाप की परेशानी भी बढ़ आई थी | पता किया तो वो लोग वहा से चल चुके थे | समझ नहीं आ रहा था क्या करे क्या नहीं | अब जो होगा देखा जायेगा , उनका इन्तजार शुरू हो गया | अमिता का तो हाल ही बुरा था ये सोच की पल में सारी खुशिया और सपने खत्म होने जा रहे थे |

ऐ मेरे दिल परेशान ना हो तन्हा होकर
जब वो साथ चले ही नहीं तो बिछुड़ना कैसा |

राज अपनी माँ और पिताजी के साथ अमिता के घर पहुँच गया | थोड़ी देर बाद बातो में अमिता के बारे में पता चला तो दुःख हुआ कह माँ पिताजी ने वापस जाने के लिए कहा तो राज ने अमिता से मिलने की मांग रख दी समझाने पर भी राज  ना माना तो उन्हें रुकना पड़ा | अंदर बिस्तर पर लेटी अमिता ने सुना तो परेशान हो गयी | राज कमरे में आया तो देखा अमिता सर झुकाये बैठी थी और आँशु उसके गाल भिगो रहे थे | एक झलक देख बिना बोले बाहर आकर – माँ से बोला मुझे अमिता पसंद है | ओह्ह्ह् ये शब्द सुन अमिता बावरी हो गयी | इस हाल में देखकर भी —-

कभी कभी दुआऐं ऐसे पूरी हो जाती है
जैसे पलको का आँखों से मिलना ||

बिस्तर पर बैठे बैठे ही सर पर चुनरी उढ़ा रस्मे कर दी गयी | सामने बैठे राज को देखने के लिए जैसे ही उसने पलके ऊपर की तो उसकी नजर टकरा गयी | राज भी अमिता को ही देख रहा था |

आँखों ने बहुत कुछ कह दिया
बिन लफ्जो के भी सब कह दिया
आँखों के कजरे ने बह
गालो पर काला टीका लगा दिया |

विदा हो राज जाने लगा तो अमिता से बोला जल्दी ठीक हो जाइये कुछ दिन बाद में आपको यहाँ से ले जाऊँगा | अमिता शर्मा गयी सुबह सूरज की लाली अब उसके गालो पर थी |राज के जाते ही उसकी बात और दवाई का असर यूँ हुआ की बहुत जल्दी ठीक हो गयी थी अमिता | सपनो के संसार खुली आँखों से देख रही थी | शादी को कुछ ही दिन रह गए थे | मेहँदी की रस्म हुई | राज का नाम हाथो पे सज गया | कल राज को बारात लेकर उसके घर आना था

डोली अरमानो की सज गयी थी
हाथो में महेंदी रच गयी थी
आँखे दरवाजे पे लगी थी |

वक्त बीत रहा था , इन्तजार था की खत्म ही नहीं हो रहा था | बाउजी की आवाज सुन अमिता बाहर चली आई | कुछ कहते कहते बाउजी जमी पर गिर पड़े | सुनने की कोशिश की तो सुन नहीं पायी | मौसी ताई बोली सब ठीक है लाडो तू चल अंदर | कुछ समझ नहीं आ रहा था | ख़ैर बारात आ गयी | और फिर कुछ याद नहीं रहा | मन उलझ गया फिर से सपनो में | विदा हो राज के साथ चली आई और मन गुनगुनाने लगा |

मेरे दिल की हर बात तुम ही हो
खुशियो की सौगात तुम ही हो
में तो बस एक पल की तरहा हूँ
मेरा हर दिन हर रात तुम ही हो |

पग फेरने घर गयी अमिता बहुत खुश थी | पगडण्डी के दूसरी तरफ भी उसके गाव जैसा ही गाँव था |अपने थे | घर में माँ बाउजी ने खूब लाड किया पर ना जाने कुछ अटक सा रहा था | ख़ैर वापस आने लगी तो बाउजी ने राज को कुछ पेपर दिए | रास्ते में राज से पूछा तो मुकर गए की कुछ नहीं है | वक्त बीत रहा था | एकदिन माँ और बाउजी की याद आई तो उनसे मिलने की ज़िद करने लगी |राज टाल गए | जब कहा तब मना | जब ज्यादा परेशान हुई तो गुस्से में राज बोले —– तुमहारे माँ बाउजी अब वहा नहीं रहते | मकान बेच कर उन्होंने पैसे दिए थे शहर में तुमहारे लिए घर लेने के लिए |
आह्ह्ह्ह — ये क्या !
गुम हो गयी अमिता | ना दिमाग काम कर रहा था ना दिल | अश्रु भी नहीं | उसके सपनो को पूरा। करने के लिए माँ बाउजी खुद घर से बेघर | उफ्फ्फ्फ़ माथे पर लड़की होने का कलंक लग ही गया |

वक्त रूबरू करवाता है
कभी खुद से कभी सबसे

मेरा सपना तो सपना ही रह गया | इस छोर से उस छोर तक जाने का | उन पगडंडियों का मोह , कीमत ऐसे चुकाई मेरे अपनों ने | कुछ।कह कर माँ  से में अनकही हो गयी
राज के लिए बस यही —

तेरी खता है मेरे जिया , उनपे भरोसा तूने क्यों किया |

कुछ कही हमेशा के लिए अनकही रह गयी |

डॉली अग्रवाल

पता - गुड़गांव ईमेल - dollyaggarwal76@gmail. com

2 thoughts on “कहानी : कुछ कही कुछ अनकही

  • विजय कुमार सिंघल

    मार्मिक कहानी !

  • विजय कुमार सिंघल

    मार्मिक कहानी !

Comments are closed.