सभी तैयार हैं अपने मेरे खंज़र चलाने को
सभी तैयार हैं अपने मेरे खंज़र चलाने को
मेरा नामो-निशां दुनिया के पन्नों से मिटाने को
मुझे मेरी गरीबी ने ही रोका सदा बढ़कर गया
जब-जब भी ख्वाहिश की पतंगें मैं उड़ाने को
ज़माने की अदावत है कि मैं ग़मगीन रहता हूँ
मचलता हूँ वगरना मैं भी खुलकर मुस्कुराने को
लगाकर दाँव पर जीते हैं सब रिश्ते मुहब्बत के
कोई आगे नहीं आता उन्हें बेहतर बनाने को
हमेशा वो नज़र आये हैं गैरों के मुखौटे में
गया हूँ मैं मेरे अपनों को जब भी आजमाने को
तमाशा देखने जुट जाती है इक भीड़ यूँ ‘माही’
कोई आता नहीं लेकिन किसी को भी बचाने को
महेश कुमार कुलदीप ‘माही’
जयपुर, राजस्थान