उपन्यास अंश

नई चेतना भाग-४

शेठ इमरतिलाल लाला धनीराम से मिलने आये थे । दोपहर का वक्त था । लाला धनीराम शायद किसी काम से बाहर गए हुए थे । अमर भी अपनी फैक्ट्री में ही था। हॉल में सोफे पर बैठे शेठ इमरतिलाल सामने लगी स्क्रीन पर समाचार देख रहे थे । सुशीलादेवी ने उनकी आवभगत में कोई कमी नहीं छोड़ी थी। हालाँकि शेठ इमरतिलाल धनीराम के पूर्व परिचित नहीं थे लेकिन पड़ोस के ही शहर में उनकी कई बड़े बड़े शोरूम थे और एक पेपर मिल भी था । इसके अलावा वो समाजसेवा से भी जुड़े थे सो समाज में भी काफी मान सम्मान था । दौलत और शोहरत की कोई कमी नहीं थी ।

दोपहर को अमर भोजन के लिए घर पहुंचा तो शेठ इमरतिलाल की बड़ी सी विदेशी गाड़ी को देखकर ठिठका । यह कौन है ? अमर ने हॉल में प्रवेश किया और शेठ इमरतिलाल का अभिवादन किया और माँ के पास जाकर बैठ गया । सुशीला देवी ने शेठ इमरतिलाल का परिचय अमर से करवाया ।

थोड़ी देर के बाद सुशीलादेवी शेठ इमरतिलाल से मुखातिब हुयीं “भाईसाहब ! अमर के बाबूजी पता नहीं और कितनी देर में आयेंगे। भोजन का समय हो गया है। आप भोजन कर लेते तो आपकी कृपा होती।” शेठजी बोले ” अरे नहीं नहीं बहनजी ! हम लड़कीवाले हैं । हमारे सामाजिक मान्यता के हिसाब से हम अपनी लड़की के होनेवाले घर से कुछ नहीं ले सकते भोजन भी नहीं । सो आप परेशान न होइये ।”

सुशीला देवी बोलीं “बड़े ऊँचे विचार हैं आपके भाईसाहब लेकिन कहाँ इन पुराने रीतिरिवाजों में अटके पड़े हो। अब जमाना बदल गया है । अब हम यह मानकर चलते हैं कि न हम लडके वाले न आप लड़की वाले । आज जब महिला और पुरुष में कहीं कोई भेदभाव नहीं तो फिर शादी ब्याह जैसी पूरानी परम्पराओं में भी महिलाओं को बराबर की हिस्सेदारी क्यों नहीं ? और फिर आप तो समाजसेवक हैं और आप ही इन पुराने ख्यालों में अटके रहेंगे तो समाज को सही राह कौन दिखायेगा ? ”

शेठजी भी कहाँ माननेवाले थे ” नहीं नहीं बहनजी। अपनी पुरानी परम्पराएँ और मान्यताएं तोड़ने का गुनाह मैं नहीं कर सकता। आधुनिक सोच रखना अच्छी बात है । स्त्री पुरुष को बराबरी का अधिकार मिले यह भी अच्छा है । बेटी और बेटे में भेद नहीं किया जाए यह अति उत्तम विचार है । लेकिन आधुनिकता के नाम पर हम अपने समृद्धशाली गौरवशाली संस्कृति और परम्पराओं का गला नहीं घोंट सकते । मुझे माफ़ कीजियेगा बहनजी ! मैं इस समय आपकी इच्छा पूरी नहीं कर सकता । ”

सुशिलादेवी ने हथियार डालनेवाले अंदाज में कहा ” ठीक है भाईसाहब ! जैसी आपकी मर्जी ! हमें तो आपकी खातिरदारी करके ख़ुशी ही मिलती लेकिन आपके भावनाओं की मैं कदर करती हूँ । ”

अमर इनकी बहस से बेखबर अपनी ही दुनिया में खोया हुआ था । सोच रहा था ‘ आखिर कब तक मैं खामोश रहूँगा ? कभी न कभी तो मुंह खोलना ही पड़ेगा। इधर सुशीलादेवी अमर की तरफ मुड़ीं ” चल बेटा तू ही भोजन कर ले । तुझे वापस फैक्ट्री भी जाना होगा ।”

” हाँ माँ ! चलो ! ” कहकर अमर रसोई घर की तरफ बढ़ गया और पीछे पीछे सुशीलादेवी भी ।

थोड़ी ही देर में अमर भोजन करके दुबारा फैक्ट्री पहुँच चूका था । सभी मजदुर अपना अपना काम कर रहे थे । आज शायद अमर को कुछ देर हो गयी थी और अमर के सहायक कृष्णा ने समय पर काम शुरू करवा दिया था।

देर शाम अमर घर वापस पहुंचा तो शेठ इमरतिलाल की गाड़ी वहां नहीं थी शायद वो वापस जा चुके थे । लाला धनीराम कुछ बेचैन से बाहर बरामदे में ही टहल रहे थे । अमर को देखते ही उसकी तरफ बढे “ये मैं क्या सुन रहा हूँ बेटा ! क्या तुम्हारी माँ जो कह रही हैं वह सच है ? ”

अमर को यह उम्मीद नहीं थी । जीस पल का सामना करने की योजनायें वह सोते जागते बनाया करता था अचानक वही सवाल वही पल उसके अस्तित्व को झिंझोड़ गया था । उससे ज्यादा कुछ नहीं कहा जा रहा था । पहले नजरें झुकीं और फिर सर झुका कर धीरे से बुदबुदाया ” जी ! ”

इतना सुनना ही था कि लाला धनीराम दहाड़ उठे “तेरी इतनी हिम्मत ! क्या तू अब इतना बड़ा हो गया है कि हमें अपना फैसला बताएगा। हमारे खानदान में ऐसी परंपरा नहीं है कि बेटा बाप को अपनी पसंद नापसंद बताएगा। कान खोलकर सुन ले ! तेरी शादी वहीँ होगी जहाँ मैं चाहूँगा।”

अमर चाहकर भी अपनी जुबान नहीं खोल सका । अपना प्रतिरोध दर्ज नहीं करा सका । सर झुकाए धीमे कदमों से अपने कमरे की तरफ बढ़ गया । अपने कमरे में पहुंचकर बिस्तर पर गिरकर तकिये में मुंह छिपाकर फफक पड़ा । वह अपनी बुजदिली पर हैरान था । क्या क्या नहीं सोचा था और क्या हुआ ? सारा सोचा समझा धरा का धरा रह गया ।

पता नहीं कितनी देर तक वह यूँ ही पड़ा रहा । सुशीलादेवी ने उसके कमरे में प्रवेश किया और माँ को देखते ही अमर के सब्र का बाँध टूट गया था। नजदीक आते ही अमर अपनी माँ की गोद में मुंह छिपा कर फफक पड़ा । सुशीलादेवी भी अपने बेटे की यह अवस्था देखकर द्रवित हो उठीं थी। उसके बालों में हाथ फिराते हुए बोलीं “बेटा ! क्यों जिद कर रहा है ? तू जानता है न अपने बाबूजी को ! उनके फैसले को कोई नहीं बदल सकता । भूल जा धनिया को। और बाबूजी की बात मान ले। इसी में सबकी भलाई है। ”

” नहीं माँ ! धनिया मेरी जिंदगी है और आप कह रही हैं कि मैं अपनी जिंदगी छोड़ दूं ! जीना छोड़ दूं ! ” कहते कहते अमर की आँखों में आंसू छलक पड़े थे ।

अमर की बातें सुनकर तड़प उठीं सुशीलादेवी ।फिर भी खुद को संभालती हुयी बोलीं ” नहीं नहीं बेटा ! ऐसा मत कह बेटा ! तेरी ख़ुशी के लिए हमने क्या क्या नहीं किया है ? बचपन में एक बार बीमार पड़ा था तब मेरे साथ तेरे बाबूजी रातभर तेरे जागते रहे थे । बुखार उतरता न देखकर हमने माता वैष्णो देवीजी से तेरी सलामती के लिए मन्नत मांगी थी और फिर माँ के दरबार हो के भी आये थे । अब बता क्या हम तेरी ख़ुशी नहीं चाहते ? तूने जब जो भी माँगा हमने तुझे किसी चीज के लिए नहीं मना किया । अब क्या तू हमारी ख़ुशी के लिए अपना जिद नहीं छोड़ सकता ? ”

उतनी ही तड़प के साथ अमर बिलख उठा ” नहीं माँ ! मेरी बस यही बात मान लो । बाबूजी को मना लो माँ ! फिर मैं जिंदगी भर तुमसे कुछ नहीं मांगूंगा । तुमसे वादा करता हूँ माँ । बस मुझे मेरी जिन्दगी सौंप दो माँ । और मुझे कुछ भी नहीं चाहिए । ”

अब तो सुशीलादेवी भी टूट गयी थीं ” तू चुप हो जा बेटे ! मैं तुझे बिलखता हुआ नहीं देख सकती । मैं तेरे बाबूजी से बात करुँगी । मैं मनाउंगी उनको । मैं पूरी कोशिश करुँगी बेटा ! बस अब तू चुप हो जा ।”

सुशीलादेवी के सांत्वना दिलाने वाले बोल सुनकर अमर को कुछ राहत महसूस हुयी । धीरे धीरे उसकी सिसकियाँ कम होती गयीं । तरह तरह के विचार दिमाग में उमड़ घुमड़ रह थे । इन्हीं सब विचारों के बीच कब उसकी आँख लग गयी वह खुद भी नहीं जान सका था ।

देर रात उसकी नींद खुली । दिवार पर लगी घडी में रात के एक से कुछ अधिक का वक्त दिखा रहा था । अमर ने बिस्तर पर लेटे लेटे ही कमरे में नजर दौडाई । कमरे में ही एक कोने में रखी टेबल पर थाली में खाना शायद ढँक कर रखा गया था । अमर को नींद से जगाना मुनासिब न समझ सुशिलाजी ने भोजन शायद वहीँ टेबल पर ही रख दिया था कि जब भी अमर की नींद खुलेगी उठकर भोजन कर लेगा ।

अमर की भूख तो वैसे ही ख़तम हो गयी थी लेकिन माँ का मन रखने के लिए सोचा थोडा कुछ खा ही लूं ।भोजन करने बैठा लेकिन अपनी मानसिक अवस्था के चलते उससे कुछ भी खाया न गया । दो निवाले जैसे तैसे निगल कर पानी पीकर फिर से बिस्तर पर निढाल हो गया । आगे आनेवाले माहौल के लिए वह खुद को मानसिक रूप से मजबूत बना लेना चाहता था । अपनी पहली ही परीक्षा में बुरी तरह असफल रहने पर उसका आत्मविश्वास डगमगा गया था । लेकिन उसे पता था कि अपनी लड़ाई उसे खुद ही लड़नी पड़ेगी । उसे मजबूत बनना पड़ेगा मानसिक रूप से ।इसी तरह सोचविचार करते और बीच बीच में धनिया के मासूम चहरे का मन की आंखों से दीदार करते उसका काफी समय बीत गया और रात के तीसरे पहर तक उसकी आँखे लाल सुर्ख हो चुकी थीं । सर में हल्का दर्द भी महसूस करने लगा था सो आँखें बंद कर पड़ा रहा और शनै शनै निंदिया रानी ने उसे अपनी आगोश में ले लिया ।

(क्रमशः)

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।