कविता

कविता : उमड़ते घुमड़ते एहसास

उमड़ते घुमड़ते
रहे एहसास
उन लहरों की तरह
आकाश से सागर तक
फ़ासले तय करते गये
हर हवा के झोंके
ने पत्तों की उड़ाया कभी
टकराये पेड़ से
चट्टानों से
बहे झरने की तरह कभी
तिनके की तरह तैरते रहे
पानी में अपने अस्तित्व
के लिए लड़ते रहे
उन लहरों से ।

कभी हवा से उड़ने लगे
एक पतंग बन
खुले नभ में
अपने ख्वाबों को
उंचाईयों पर पहुँचाने के लिए
हंसते हुए लहराते हुए ।

बरस पड़े आँसू बन कभी
अपनी यादों के सहारे
घुटते रहे
कभी टूटते रहे
बिखरते रहे
सिमट ते रहे ।

सोचा कि मर जातें हैं
यह एहसास भी
पर बादल में
अपने आकार बदलते रहे ।

कल्पना भट्ट, भोपाल

कल्पना भट्ट

कल्पना भट्ट श्री द्वारकाधीश मन्दिर चौक बाज़ार भोपाल 462001 मो न. 9424473377