गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल : बस तुकबंदी टूटी-फूटी है

 

लगता आज ग़ज़ल मेरी कुछ मुझसे रूठी है.
शायद कोई कड़ी रिश्ते की फिर से टूटी है.

हार निगलते खूँटी को मैंने देखा था पर,
क्या कोई मानेगा हार निगलती खूँटी है.

कुछ चेहरों की मुस्कानों से ऐसा क्यों लगता,
उनकी ये मुस्कान न सच्ची, बिलकुल झूठी है.

उसके कुट्टी करने पर जब मैं नाराज़ हुआ,
वो बोला-ये कुट्टी तो बस झूठी-मूठी है.

वो बोला-सपनों से अपना रिश्ता है ऐसा,
जब भी कोई सपना आया निंदिया टूटी है.

उससे मिलने की चाहत थी वर्षों से लेकिन,
जैसे ही स्टेशन पहुँचा, गाड़ी छूटी है.

वो विकलाँग भले है फिर भी मंज़िल पा लेगा,
टूटा नहीं हौसला, बस बैसाखी टूटी है.

यों तो सब मुझको कवि कहते पर मेरी कविता,
कविता क्या है, बस तुकबंदी टूटी-फूटी है.

— डॉ. कमलेश द्विवेदी