गीत/नवगीत

गीत : परिवार का समाजवाद

(समाजवाद के नाम पर एक परिवार में जारी सियासी कलह पर स्व राम मनोहर लोहिया की आत्मा के स्वर को आवाज़ देती मेरी नयी जोखिम पूर्ण कविता)

स्वर्ग में उस लोहिया की आत्मा रोती दिखी
मिट गए सिद्धांत, सारी अस्मिता खोती दिखी

जो चला था कारवां इंसानियत के वास्ते
इंकलाबी गाँव की चौपाल थी, सब रास्ते

जो लड़े थे हक गरीबों का दिलाने के लिए
जो अड़े थे, प्यासे को पानी पिलाने के लिए

जो चले थे खेत की हरियालियोँ के वास्ते
जो चले थे देश की खुशहालियों के वास्ते

जो चले थे सादगी लेकर सियासत के लिए
जो चले थे सब समाजों की हिफाज़त के लिए

आज वो चेहरे सियासत के मदारी हो गए
लोहिया के शिष्य कुर्सी के पुजारी हो गए

लोहिया के चित्र पर माला पड़ी अपराध की
सोशलिस्टों पर है छायी गर्द कुनबे-वाद की

शांति की लहरों को उन्मादी किनारा खा गया
लोहिया का स्वप्न इक परिवार सारा खा गया

थी भला सरकार या परिवार की वंशावली
मंत्रिमंडल था कि थी गुटबाजियों की धांधली

मन्त्र “गायत्री” पढ़े, वरदान पर झगड़ा हुआ
लोक निर्माणी कमीशन पर बहुत लफड़ा हुआ

मुख्यमंत्री पुत्र को हड़की दिखाते ही रहे,
पिता जी बेटे को तरकीबें सिखाते ही रहे

जितने भी थे पद बड़े, बस एक ही परिवार से
जो भी संसद पर चढ़े, बस एक ही परिवार से

रूह से लेकर बदन तक, एक ही परिवार से
ब्लॉक से लेकर सदन तक एक ही परिवार से

कोपरेटिव बैंक तक, बस एक ही परिवार से
नल से लेकर टैंक तक, बस एक ही परिवार से

सम समाजी भाव, बाज़ारी बना कर रख दिया
प्रान्त का परिवेश परिवारी बना कर रख दिया

नीति थी परिवार वादी, सब अमंगल हो गया
भिड़ गए चाचा भतीजे, दल भी दंगल हो गया

बाप बेटे को निकाले, भाई भाई लड़ गये
देख कर नौटंकियां, चक्कर में सारे पड़ गए

रात में बाहर किया, फिर भोर अंदर या गए
जो किये थे चोर बाहर, चोर अंदर आ गए

खेल अंदर और बाहर का सभी के सामने
भर चुकी है झूठ की गागर सभी के सामने

आज लखनऊ धर पटक की राजधानी हो गयी
ये सियासत अब सिमट कर खानदानी हो गयी

लड़ रहा परिवार जनता तरफदारी क्या करे
कोई उम्मीदों की साईकिल पर सवारी क्या करे

इस तरह न सत्य को बदनाम नेता जी करो
वक्त मिल जाए तो इतना काम नेता जी करो

छीना झपटी से मिला क्या, बात जाकर पूछ लो
लोहिया के दिल के भी हालात जाकर पूछ लो

— कवि गौरव चौहान