मुक्तक/दोहा

मुक्तक

मुहब्बत की लकीरें जितनी भी खींचो , गहरी हो जाती हैं
रात गहराते – गहराते , तन्हाइयाँ बढ़ जाती हैं
हम कितनी भी नज़्में लिख ले , तेरे बिछोड़े को ले – लेकर
दिल की धड़कनें बेक़रार , लेकिन सुकूं नहीं पाती हैं l

किसी के कहने से , मुहब्बत हो नहीं जाती
किसी के कहने से जान चली नहीं जाती
मौसम – ए – मिज़ाज़ को समझा करो ज़रा ,
किंतु रितु लंबे समय तक , रह नहीं पाती

किसी की चाहत ने , हमें दीवाना कर दिया
उसी की चाहत का हमने , पैमाना भर पिया
यह कैसा जुनून , यह कैसा सुरूर है छाया
जबसे उसकी चाहत का , पैमाना भर – पिया

रंग – रंग के फूल हैं , पर उपवन एक है
भारतीय हैं हम सभी , निश्चय तो नेक है
गर मिलाकर हम क़दम , निकलें एक दिशा में ,
बन गई मोतियों की , माल समझो एक है

इनसानियत इनसान की , सब जगह काम आती है
नेकनीयती इनसान की , हर किसी को भाती है
पर हो जाता वह जब भी पथभ्रष्ट , बिसार कर लक्ष्य ,
उस पर सभी की हिक़ारत भरी , नज़र उठ जाती है l

— रवि रश्मि ‘ अनुभूति ‘, मुंबई