लघुकथा

ईमानदारी

सोहनलाल अपनी दुकान पर एक ग्राहक को कुछ सामान दे रहे थे । उसे सामान देकर वह रमेश की तरफ पलटे और उससे पुछ कर सामान देने लगे कि तभी उनकी नजर सामने काउंटर पर पड़े एक पर्स पर पड़ी । हाथ का सामान नीचे रखकर उन्होंने पर्स उठाया । रमेश भी पर्स से अनजान था । सोहनलाल ने पर्स खोलकर देखा । पर्स के अन्दर वाले खाने में पांच सौ के कुछ नोट और ऊपर कई बैंकों के क्रेडिट कार्ड और कुछ अन्य कागजात रखे हुए थे । पैन कार्ड पर छपे फोटो से ज्ञात हुआ कि यह तो उसी ग्राहक का था जो अभी अभी सामान लेकर यहाँ से गया था ।
एक क्षण का भी विलम्ब किये बिना सोहनलाल उस पर्स को हाथ में लिए अपनी स्कूटर की तरफ बढ़ गए । स्कूटर शुरू करते हुए रमेश से बोले ” बस दो मिनट में आया । अभी वह आदमी ज्यादा दूर नहीं गया होगा । पैदल ही जा रहा होगा । नजदीक ही मिल जायेगा । पर्स उसे देकर आता हूँ । ” और रमेश के जवाब की प्रतीक्षा किये बिना स्कूटर पर बैठ कर उस आदमी की दिशा में स्कूटर दौड़ा दिया ।
लगभग पांच मिनट भी नहीं बीते होंगे कि सोहनलाल वापस आ गए । इस बार उनके चेहरे पर संतोष झलक रहा था और वह और चुस्ती से रमेश को सामान देने लगे । रमेश से रहा नहीं गया । उसने सोहनलाल से पुछ ही लिया ” शेठ जी ! आपने इतनी मेहनत करके पर्स उसे पहुँचाया । इसकी क्या जरुरत थी ? वह खुद ही आता ढूंढता हुआ । ”
सोहनलाल जी के अधरों पर मुस्कान तैर गयी । बोले ” बेटा ! मैं अपने स्वार्थवश उसके पीछे उसका पर्स उसे वापस देने गया था । पर्स तो तलाश करता हुआ वह कल भी आकर मेरे पास से ले जाता । लेकिन तब तक उसे कितनी परेशानी होती इसका अंदाजा तुम्हें है ? और इतनी परेशानी के बाद जब वह कल मेरे यहाँ आकर पर्स पा जाता तब उसके मन में मेरे लिए क्या छवि बनती ? किसी की परेशानियों से बेमतलब एक लापरवाह दुकानदार की और मैं यही नहीं चाहता था । समय पर उसे पर्स वापस देकर मैंने उसपर कोई अहसान नहीं किया है । मैंने अपनी छवि को दागदार होने से बचाने के लिए यह किया है क्योंकि व्यवसाय में हम दुकानदारों की जमा पूंजी ही होती है  ‘ग्राहकों का विश्वास ‘ और मुझे ख़ुशी है कि मैंने अपनी जमा पूंजी बचा ली है । “

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।