कविता

बेटी का जन्म

एक तो प्रसव पीड़ा का दर्द
उसपर घरवालों का डर
कैसे रोक पाए वो माँ
अपने झरझराते आंसुओं को

खाए जा रहा था ये मर्म
कि इसबार फिर उसने
दिया है बेटी को जन्म

न कर पाई पूरी आरजू
ससुराल वालों की
जो देखना चाहते थे
वारिश के रूप में बेटे का मुँह

देने लगे है लोग ताने उसे
कि एक बेटा भी न जन्मी तू
अपने कोख से

माँ की ममता भेद न जाने
बेटा हो या बेटी नौ माह तक
अपने देह के भीतर पाले
ये बात कैसे उन्हें समझाएं

अशिक्षित परिवार के घटियां सोच
जिससे आहत होती है औरत
आखिर कहाँ तक जायज है

अनपढ़ों का ये इल्जाम लगाना
बेटा, बेटी का होना
सिर्फ माँ पर है निर्भर
क्या ये उचित है?

समझाओ कोई उन बेवकूफों को
औरत नहीं बल्कि आदमी होता है
इन सबका पूरा-पूरा जिम्मेदार।

*बबली सिन्हा

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