हास्य व्यंग्य

पिंजड़े में मुर्गियाँ

बाकी मुर्गियां पिंजड़े में बंद कटने का इंतज़ार कर रहीं थीं। एक मुर्गी कट चुकी थी, पर पूरी तरह नहीं, अभी केवल गला कटा था । जीवन की अंतिम सांसे ले रही थी । थोड़ी देर फड़फड़ाने के बाद वो शांत पड़ गयी, बड़ी बेदर्दी से उसके पंख उजाड़ दिए गए, थोड़ी देर पहले हंस खेल रही जिंदगी तराजू में पहुँच गयी । खरीदने वाला करीब पाँच मिनट के इंतज़ार के बाद मुस्कुरा उठा, शायद तलने के बाद खाने में आने वाले मजे के बारे में सोचकर।

पिंजड़े में एकदम सन्नाटा छा गया, शायद अपने एक साथी के दुनिया छोड़ने के गम में । पर कितनी देर तक ? कुछ ही पल में इनमें से किसी की भी बारी आ सकती थी । सारी मुर्गियां लगभग हमउम्र थीं, अंतर बस वजन का था । किसकी बारी आएगी अब, ये भी वजन पर ही निर्भर था, अगर किसी को ज्यादा चिकन की जरूरत तो वजनी मुर्गी और कम की तो हल्की मुर्गी को कटना था ।

‘हमारी कौम कबतक यूँही कटती रहेगी ? हमारी जिंदगी का तो कोई वजूद ही नहीं रहा अब !’ दिखने में एक तंदुरुस्त मुर्गी ने कहा। बाकी सारी मुर्गियां शांत थीं, मानो कुछ सुन ही न रही हों । ‘आखिर हम भी जीव हैं, हमारी भी ज़िन्दगी है । ऐसा कैसे हो सकता है कि कोई भी आए और हमें कटवा के खा जाए ? इस हत्यारे को देखो पैसे के लिए कैसे हमें मिनटों में टुकड़ों में काट दे रहा है। मानो हम कोई चींटी-माटा हों ।’ तंदुरुस्त मुर्गी ने अपनी बात जारी रखी, पर बाकी मुर्गियां अब भी उसकी बातों पर ध्यान नहीं दे रही थीं।

वो बोलती रही- ‘एक समय था जब हमसे ही सुबह होती थी, हम सोते रहें तो आधे से ज्यादा लोगों को होश ही न रहे कि उठना भी है । हमारा भी परिवार होता था, कई बच्चे, पोते-पोती, नाती-नातिन….।’ बात पूरी भी नहीं हुई थी कि दिखने में सबसे स्मार्ट पर दुबली-पतली मुर्गी ने बीच में टोका । ‘लगता है बॉलीबुड की पुरानी फ़िल्में खूब पसन्द हैं तुम्हें। मैंने भी ऐसे डायलॉग सुने हैं । अपने फॉर्म की टीवी में दिनभर ऐसी ही मूवीज़ तो चलती रहती थी। बचपने से जवानी तक यही देख सुनकर तो बड़ी हुई हूँ मैं । नाशपीटा केयरटेकर, जो अभी पिछले हफ्ते आया, नया-नया । किसी सन्नी नाम की अश्लील औरत का फैन था । अजीबोगरीब फ़िल्में देखने का शौकीन था । ना कोई कहानी ना ही रोमांस शुरू से अंत तक बस शरीर के एक -एक अंग का आकार-प्रकार ही दिखता रहता टीवी पे । मैंने तो टीवी स्क्रीन की ओर देखना ही बंद कर दिया । गानों की तो पूछो ही मत ! जिस रंग की फिल्म उसी रंग का गाना- कोई ‘ब्लू है पानी-पानी’ करके। ‘मानो या न मानो वो सन्नी हॉट तो है ही ।’ एक मुर्गा बीच में बोल पड़ा। ‘तुम सारे मुर्गे एक जैसे होते हो, अब उसी सन्नी हॉटी को देखना ।’ पतली स्मार्ट मुर्गीे कमर और मुंह मटकाते हुए बोली। देशी

तंदुरुस्त मुर्गी की बात अभी खत्म नहीं हुई थी, वह फिर बोलने लगी- ‘हमारी संस्कृति नष्ट होती जा रही है। हमारे पूरे कौम पर संकट आ गया है । हम कबतक यूँही शांत रहेंगे ? हमने कभी अपनी अगली पीढ़ी के बारे में सोचा है ? हमारी जिंदगी तो किसी तरह कट गयी और कटी भी ऐसी कि हम कटने के कगार पर हैं। पर मैं ऐसे नहीं कटूंगी । अब जंग होगी, कटने के खिलाफ जंग, अपनी संस्कृति को बचाने के लिए जंग…..।’ ये आगे कुछ बोलती कि बीच में ही पतली स्मार्ट मुर्गी ने मुँह ऐंठकर कहा- ‘लगता है तुम रेशम बाग़, नागपुर के पास वाली नर्सरी में पैदा हुई हो। देखने से ही लगता है कि एकदम देशी हो, तो सोच कहाँ से मॉडर्न होगी । क्या संस्कृति-संस्कृति का रट लगा रखा है इतनी देर से । हमारी संस्कृति लेबोरेटरी में दफ़न है । हमें काटकर खाने के लिए ही इन इंसानों ने बनाया है। हम पोल्ट्री फॉर्म की मुर्गियां हैं । देशी वाली रोडछाप मुर्गी नहीं । कुन्तलों दाना पानी तुम्हारी संस्कृति के संरक्षण के लिए लाता था मालिक। यू आर जस्ट स्टुपिड। हम सब बाजारीकरण के परिणाम हैं सरकार भी हर चीज को मार्केट के हिसाब से देखती है। कारपोरेट गवर्नमेंट है और तुम पुरातन राग अलाप रही हो। सब पैसे का खेल है जो भी पैसा देगा हमें कटवायेगा, बनाके चाव से खायेगा।”

वार्तालाप अभी चल ही रहा था कि एक नये ग्राहक ने अपनी जरूरत दुकानदार को बता दी । बीवी की सहमति भी ग्राहक ले चुका था । शायद परिवार में तीन ही लोग भी थे – एक बच्चा और पति-पत्नी । तीनों लोग स्कूटी के पास खड़े रात के खाने के ज़ायके के बारे में सोच रहे थे । पतली स्मार्ट मुर्गी का गला कट चूका था , पंख उखाड़े जा रहे थे । वो फड़फड़ा रही थी, बाकी मुर्गियां ये मंजर एकदम करीब से देख रहीं थीं ।

©O P Pandey ‘Soham’

ओमप्रकाश पाण्डेय सोहम

Writer/Blogger बहराइच, उत्तर प्रदेश