लघुकथा

प्रिंस

हुनरमंद था वो, पर बिना किसी हुनर का कोर्स किये | प्रोफेशनल भी था, पर न तो एमबीए की डिग्री थी उसके पास और न ही कोई और डिग्री | उसने पूंजी भी नहीं लगायी थी पर अच्छी कमाई थी, महीने की कोई पन्द्रह हजार, उसने मुझे बात-चीत के दौरान बताई थी | मुझे देखते ही वह मुस्कुराया था, ऐसी मुस्कान थी कि मैं उससे मुखातिब होने से खुद को नहीं रोक पाया |
वो अकेला नहीं था, उसके आस-पास और कई थे जो दिखने में लगभग एक जैसे ही थे | उन सबका व्यवसाय भी एक जैसा, डिग्री भी लगभग एक जैसी और कमाई भी | मैंने उससे मिलते ही पूछा कब से इस काम में हो ? ‘बाबूजी बहुत दिन हो गये |’ उसने फौरन जवाब दिया | तुम्हारा घर कहाँ है ? ‘यहीं स्टेशन के पीछे रहते हैं हम लोग |’ मैंने अगला प्रश्न किया , कितने लोग ? ‘सात |’ वह बोला | मैं इसके आगे कुछ बोलता कि उसने कहा- ‘धंधे का टेम चल रहा है बाबूजी ये होलीबुड डिरेक्टर बाद में बन लेना |’
मैं अवाक् था, उसके शब्दों को सुनके, ‘हालीवुड’, ‘डायरेक्टर’ ….| किसी के धंधे में टांग अड़ाना मुझे भी अनुचित लगा मैं वहाँ से हट गया लेकिन अपने दिमाग को वहाँ से नहीं हटा पाया | मैं कुछ दूर जाकर खड़ा हो गया, जहाँ से वह मुझे साफ-साफ दिखाई दे रहा था, हाँ मैं उसकी बात नहीं समझ सकता था क्योंकि भीड़ बहुत ज्यादा थी | करीब आधे घंटे के अन्दर उसने पचास से सौ रूपये के बीच की कमाई की | मैंने सोचा इस हिसाब से अगर ये काम करता है तो दिन में यदि आठ घंटे का भी काम करे और घंटे भर में सौ रूपये तो दिनभर का आठ सौ यानि कि महीने का चौबीस हजार ! ये तो किसी नये-नये इंजीनियर की तनख्वाह से कम नहीं था |
मैं पुनः उसके पास जाने से खुद को रोक नहीं पाया उद्देश्य वही पुराना था उससे कुछ और प्रश्न करने का | मैंने अपनी पर्श से एक दस कि नोट निकालकर उसे दिया, कह सकते हैं फीस के रूप में, कोई पाँच मिनट बात करने के लिये | वह वास्तव में प्रोफेशनल था अब वह मेरे साथ रूचि लेकर बात कर रहा था | मैंने जो भी पूछा उसने सब बताया | उसके अलावा चार और भाई-बहन थे उसके दो उससे छोटे और दो बड़े, साथ में एक अदद माँ और एक बाप | उसने थोड़ी दूर पर बैठे अपने दो भाई और एक बहन की ओर ऊँगली दिखाकर यही धंधा करते हुए दिखाया | उसका बाप केवल एक काम के लिये पैदा हुआ था वो था दुनिया के हरएक नशे को चखना और उसमें डूबे रहना और हरसाल कम से कम एक बच्चा पैदा करना | माँ दूसरे के घरों का झाड़ू-पोछा करती थी और वह अपना काम |

उसने मुझे अपना नाम प्रिंस बताया, उम्र रही होगी कोई ग्यारह-बारह साल | कनाट पलेस पहुँचाने वाली मेट्रो की सीढ़ियों पर मिला था वो | अब वो प्रिंस था या भिखारी ?
©O P PANDEY SOHAM

ओमप्रकाश पाण्डेय सोहम

Writer/Blogger बहराइच, उत्तर प्रदेश

One thought on “प्रिंस

  • विजय कुमार सिंघल

    लघुकथा अच्छी है. पर इस बात का कोई संकेत नहीं है कि वह काम क्या करता था.

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