कविता

लम्हे

मेरे ख़्यालों की नरम चादर
में उलझे लम्हे तरस रहे हैं
जो तेरी ख़ुश्बू से तर थे पहले
क्यों आज ख़ाली गुज़र रहे हैं
यही वो दिन थे यही वो रातें
यही थे मंज़र यही वो बातें
यही थी गलियाँ यही ठिकाने
जो सब थे पहले अब भी वही हैं
ग़र ये वही हैं तो आजकल फिर
क्यों दिन हैं तन्हा क्यों रात बोझल
क्यों स्याह मंज़र क्यों लब सवाली
ये सब वही हैं पर कुछ नज़र में बदल गया है
मुझे देखने का तेरा ज़ाविया कुछ अलग हुआ है
मेरे ख्यालों की चादरों में वो लम्हे अब भी तरस रहे हैं
जो तेरी ख़ुश्बू से तर थे पहले वो अब भी ख़ाली गुज़र रहे हैं
(ज़ाविया – दृष्टिकोण , एंगल )

अंकित शर्मा 'अज़ीज़'

ankitansh.sharma84@gmail.com