कविता

कविता — हदें

हदें निर्धारित हैं
नदी की, नहर की,
तालाब व समंदर की,
और स्त्री-पुरुष की भी।
मगर जब टूटती हैं हदें
बरसात में नदी-नहर
पोखर या समंदर की
आती है प्रलय और
कर जाती है सर्वस्व विनाश।
और बरसात के बाद
लौट जाते है वापस
अपनी हदों के बीच
नदी, नहर, पोखर  समंदर।
मगर टूटती हैं जब
स्त्री और पुरुष की हदें
ले जाती हैं सर्वनाश की और
समाज को व स्वयं को भी।
विडम्बना ! इसके बाद
कभी नहीं लौट पाती
हदों  के दरमियां
हमारी हदें
और झूठे दम्भ में
हम खो देते हैं
अपना अस्तित्व।
डॉ अ कीर्तिवर्धन