सामाजिक

लेख– स्वास्थ्य और स्वच्छ भारत के लिए मीलों चलना बाक़ी

बीते दिनों उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने फैमिली प्लानिंग के मुद्दे को वोट की राजनीति से जोड़ते हुए कहा है कि कुछ राजनेता फैमिली प्लानिंग को प्रोत्साहित करने में संकोच महसूस करते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि जनसंख्या नियंत्रण से उनका वोट बैंक नियंत्रित हो सकता है। अगर देश की राजनीति का यह हाले-स्थिति है, तो यह देश का दुर्भाग्य ही है। जिस वक़्त देश में संसाधनों की कमी बढ़ती जा रही है उस स्थिति में यह देश की भयावह स्थिति का परिचायक लगती है।
उपराष्ट्रपति ने जोर दिया कि बेहतर स्वास्थ्य के लिए जीवन शैली में बदलाव करने की जरूरत है। उनके अनुसार लोगों को परिवार नियोजन के फायदे के बारे में बताए जाने की आवश्यकता है। लेकिन यह देश की राजनीतिक क्षमता की कमी या फ़िर सामाजिकता का अभाव ही रहा, कि परिवार नियोजन के तमाम उपाय होने के बाद भी जनसंख्या पर नियंत्रण आजतक पाया नहीं जा सका है। इन सभी बातों के इतर अगर स्वास्थ्य भारत की हकीकत जांची जाए, तो स्थितियां काफ़ी दयनीय दिखती हैं। जब विकास की हवा भरने की बात होती है, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विश्व का संचालन करने की बात होती है, तो सवाल यही क्या बीमार देश पर भविष्य के भारत की नींव ख़डी होगी? आज देश में स्वच्छ भारत मिशन भले चल रहा है, लेकिन न स्वच्छता लोगों के जीवन का हिस्सा बन पा रही है, न देश बीमारियों से निजात पा रहा है। देश के लोगों की मूलभूत आवश्यकताओं में से एक स्वच्छ पानी भी लोगों को नसीब हो पा नहीं रहा। फ़िर स्थितियां विकट लगने लगती हैं।

आज हमारा समाज अराजकतावाद के जिस साँचे की तरफ़ बढ़ रहा है, उसमें बाहरी चमकदार सितारा तो दिखता है, लेकिन अंदर से रोगाणुओं की फ़ौज ने हमला कर दिया है। आज की स्थिति यह हो होगी है, कि सच्चाई नहीं कल्पनाशीलता में आंकड़ों की बाजीगरी का खेल खेला जा रहा है। जिसमें सत्ता के हुक्मरान भी आंकड़ों का खेल दिखाकर आवाम से आंख मिचौली का खेल खेल रहें हैं। इसी आंख मिचौली के खेल में शिक्षा का हाल बेहाल है, चिकित्सा तन्त्र की नाकामी कब जान पर भारी पड़ जाती है, आर्थिक असमानता की खाई कब नदी-नालो का रूप ले लेती है, उससे जनता वाकिफ़ न हो, उसके लिए विदेशी आंकड़ेबाजी की धूल झोंकी जाती रही है। महानगरों की धुंध अब छोटे शहरों की सांस भी रोक देने पर उतावली दिखती है। उसके साथ समय-समय पर स्वास्थ्य रिपोर्ट यह बताती हैं, कि बीमार तन्त्र में स्वस्थ भविष्य का निर्माण कैसे होगा, लेकिन उसकी शिद्दत के साथ फ़िक्र करने वाला शायद मततंत्र के रखवालों में कोई नहीं। अगर देश की यह स्थिति है, फ़िर विकास के सारे दावे हवा-हवाई लगते हैं। जब संविधान में वर्णित जीवन जीने का आधार स्वच्छ पानी और भोजन के अभाव में टूटने लगे, तो इस स्थिति को क्या कहा जाए, यह समझ में आता नहीं, और शायद राजनीति को इस दिशा में कुछ दिखता नहीं।

कुछ दिनों पूर्व उपराष्ट्रपति द्वारा स्वास्थ्य को लेकर जारी की गई रिपोर्ट, हमारे सियासी तंत्र के ऊपर विकास और बढ़ती अर्थव्यवस्था रूपी लैंस को हटाने का आईना दिखाती है। यह रिपोर्ट भारतीय अनुसंधान परिषद ने कई एजेंसी के साथ मिलकर दो वर्ष के अध्ययन के बाद जारी की है। इस रिपोर्ट में दो बातें बहुत अहम हैं, जिमसें अब संक्रमक बीमारियों की जगह रहन-सहन और जीवनशैली की बदलती प्रवृत्ति ने ले लिया है। उसके साथ आज दूषित हवा, भरपेट खाने की कमी और शुद्ध जल का अभाव मौत का सबसे बड़ा कारण बन गई है। 15 फ़ीसद मौत का कारण गैर संक्रमक बीमारियां है। सफ़ाई के अभाव में 1.4 करोड़ बच्चे प्रतिवर्ष मौत के मुँह में समा जाते हैं। फ़िर स्वच्छता अभियान कब मात्र दिखावे का अभियान लगने लगता है, या फ़िर संसदीय लोकतंत्र में व्यक्ति विशेष का कद बड़ा करने का प्रचार अभियान, यह बताना मुश्किल नहीं, क्योंकि जितना धन आजतक स्वच्छता मिशन पर ख़र्च नही हुआ, उससे ज़्यादा विज्ञापनों की मद पर ख़र्च कर दिया गया। रिपोर्ट बताती है, कि 7 करोड़ लोग देश में स्वच्छ पानी के लिए भटकते हैं। इसके इतर 2015 में स्वच्छ पानी न मिलने से 5 लाख लोगों की मौत हो गई। तो क्या समझा जाए, लोकतांत्रिक प्रणाली से चुनी सरकारे स्वच्छ पानी का बंदोबस्त करने में भी नाक़ाम है, जो ख़ुद सीलबंद बोतलों पर निर्भर हैं। उसके इतर कुपोषण, शिशु और मातृ मृत्यु दर से सब वाकिफ़ हैं।

यह आज की राजनीति का सबसे बड़ा द्वंद्व है, कि जनता के टैक्स पर राजनीति एशोआराम करती है, लेकिन उसके एजेंडे से वहीं आवाम गायब दिखती है। संग़ठन की रिपोर्ट ने यह भी कहा कि स्वच्छ भारत अभियान अच्छी योजना है, लेकिन यह सतत चलने वाली प्रक्रिया है। जिसके परिणाम आने में समय लगेगा। आज देश में जब 44 फ़ीसद बच्चे भरपेट भोजन न मिलने के कारण अविकसित रह जाते हैं। वहीं देश में 72 फ़ीसद बच्चे और 52 फ़ीसद महिलाएं खून की कमी से पीड़ित हैं, जो खून शरीर में बहना आवश्यक है, उस पर देश की व्यवस्था ने जीएसटी का बोझ लाद दिया है। तो क्या माने राजनीति को जनता से लगाव मात्र चुनावी बयार के समय लगता है। अगर यहीं स्थिति रही तो विकास का दावा कितना भी हो, लेकिन मानव विकास के पायदान में हम अन्य देशों से काफ़ी पीछे ही रहने वाले हैं। इन आंकड़ों के मुताबिक हम चीन की दहलीज पर पहुँचने से 12 क़दम दूर हैं। आज दुनिया के 25 फ़ीसद भूखी जनसंख्या हमारे देश में रहती है। चिकित्सा अनुसंधान की रिपोर्ट कहती है, 2016 में हुई 11 फ़ीसद मौत का कारण अगर ज़हरीली हवा रही। इसके साथ हाल ही में लेसेन्ट पत्रिका की रिपोर्ट के मुताबिक 2015 में अगर देश के 25 लाख लोग विषैली गैस और दूषित पानी की चपेट में आकर अपनी जान से हाथ धो बैठे। फ़िर अब राजनीति के सिपाहियों को जनता की फ़िक्र करनी होगी, क्योंकि लोकतंत्र की पहली सीढ़ी जनता ही है, जिसकी अवहेलना लोकतंत्र की अवहेलना करने से कम नहीं।

अगर विश्व में 2.1 अरब लोगों को स्वच्छ पानी नसीब नहीं होता। वहीं 4.5 अरब लोग गन्दगी में रहने को मजबूर हैं। तो विश्व स्वास्थ्य संगठन और संयुक्त राष्ट्र बाल कोष यूनिसेफ की यह रिपोर्ट हमारे देश के रहनुमाओं को भी चकित करने वाली होनी चाहिए। इस रिपोर्ट के मुताबिक स्वास्थ्य केंद्रों, सामुदायिक केंद्रों पर हाथ धुलने के लिए साबुन भी उपलब्ध नहीं होते। जिसके कारण 3,61,000 बच्चों की जान दस्त के कारण चली जाती है। फ़िर हमारे देश की स्वास्थ्य के क्षेत्र में क्या स्थिति है, यह किसी से छिपी नहीं है। स्वच्छता की दयनीय स्थिति हैजा, हेपेटाइटिस, पेचिश जैसे संक्रमक रोगों की वाहक बनती हैं। तो इन बीमारियों का शरणगाह हमारा देश भी है। जिससे निजात पाने की दिशा में अभी देश काफ़ी पीछे दिख रहा है। यूनिसेफ के कार्यकारी निदेशक के तहत सुरक्षित जल, प्रभावकारी स्वास्थ्य और स्वच्छता बच्चों और समाज को सशक्त बनाने के लिए जरुरी है।

इस रिपोर्ट में एक तथ्य पर बेबाकी से बात सामने आई, कि स्वास्थ्य, स्वच्छता और पेयजल जैसी मूलभूत आवश्यकताओं पर मात्र अमिरियत का मालिकाना हक नहीं हो जाना चाहिए। लेकिन जिस देश का लगभग 58 फ़ीसद धन मात्र कुछ हाथों तक सीमित हो, उस देश की स्थिति क्या होगी, उसका सहज आंकलन किया जा सकता है। अशुद्ध पानी पर निर्भर 2.1 करोड़ जनसंख्या में से 84.4 करोड़ लोग पानी को मोहताज हैं। 15.9 करोड़ को नदी, झरने या झील का अशोधित पानी पीकर जीवन निर्वहन करना पड़ रहा है। वही 4.5 अरब में से 2.3 अरब के पास मूलभूत स्वच्छता नही है। 60 करोड़ लोग दूसरे घर के लोगों से शौचालय साझा करने पर मजबूर हैं। 89.2 करोड़ लोग खुले में शौच करते हैं। इसके अलावा भारत में स्वच्छ भारत मिशन के तहत हुई प्रगति के बावजूद 73.2 करोड से ज्यादा लोग खुले में शौच करते हैं या फिर असुरक्षित या अस्वच्छ शौचालयों का इस्तेमाल करते हैं। उसके साथ करीब 35.5 करोड महिलाओं और लडकियों को अब भी शौचालय का इंतजार है। वहीं स्वाइन फ्लू बुनियादी ढांचे और प्रति व्यक्ति आमदनी के मामले में पिछड़े माने जानेवाले राज्यों को ही नहीं, महाराष्ट्र, गुजरात और तमिलनाडु जैसे अपेक्षाकृत धनी और बेहतर स्वास्थ्य ढांचेवाले राज्यों को भी छका रहा है। फ़िर स्वास्थ्य की दिशा में कितना क़दम चलना अभी बाकी है, इसकी गणना देश के रहनुमाई व्यवस्था को करनी होगी। तभी स्वस्थ भारत और स्वच्छ भारत की तस्वीर साफ़ हो पाएगी।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896