सामाजिक

लेख– किसानों और युवाओं की बात भी हो जाएं, कभी?

वर्तमान समय में सामाजिक व्यवस्था में किसी का हाल बेहाल है, तो वह युवा और किसान है। शायद देश में सियासतदां भी इन्हीं दोनों के नाम पर सबसे अधिक सियासी रोटियां भी सेंकते हैं। युवाओं को रोजगार के नाम पर, किसानों को बेहतर जीवन उपलब्ध कराने के नाम पर राजनीति ठगती आ रहीं है, लेकिन यह समय का फ़ेर है, न युवाओं को रोजगार व्यवस्था उपलब्ध करा पा रही है, और न ही मौत के मुंह मे समाते किसानों को लोकतांत्रिक व्यवस्था आज़ाद करा पा रही है। वर्तमान समय में देश महंगाई की चपेट में है, तो कहीं प्याज़ लोगों को महंगाई के मारे रुला रहीं है, तो वहीं उत्तर प्रदेश के आलू किसानों का हाल उचित दाम न मिलने से बेहाल है। माटी के भाव में आलू को सड़कों पर फेंका जा रहा है। ऐसे में प्याज़ औऱ आलू के बीच फ़र्क़ को ही समझा जाए, तो बहुतेरे प्रश्न खड़े होते हैं। आख़िर क्या कारण है, कि जो समान कृषक के पास होता है, तो वह माटी भाव हो जाता है, उसके उपरांत बाज़ार में पहुँचते ही उसके दाम आसमाँ छूने को बेताब हो जाते हैं? ऐसे में सरकारी तंत्र की काहिली नजऱ आती है, जो स्टॉक को बाज़ार में रोककर कमी दिखाकर बेचने वाले से सख़्ती से पेश आ नहीं पाती। दूसरी समस्या का कारण तो साफ़ है, सरकार की इच्छाशक्ति में कमी की वजह से किसानों को उचित मूल्य उनके समान का मिल पाता नहीं। देश में आलू को सब्जियों का राजा कहा जाता है, लेकिन राजा को उगाने वाले किसान दयनीय हालत में पहुंच गए हैं। ऐसे में सवाल यहीं ऐसे में हुक्मरानी व्यवस्था का इरादा किसानों की आय दुगनी करने का केवल मूर्ख बनाना तो नहीं। वैसे जिस आलू की कीमत देश में वर्तमान समय में माटी के बराबर है, उसने भी इतिहास में बहुत उलटफेर का सामना किया है। मीडिया की खबरों पर नज़र गड़ाएगे तो पता चलता है, कि विश्व इतिहास में आयरलैंड ऐसा देश है, जहां 172 वर्ष पहले आलू के अकाल के कारण लगभग 10 लाख लोगों की मौत हो गई थी।

किसानों की समस्या एक नहीं है, उन्हें कई स्तर पर दुःस्वरियाँ झेलनी पड़ती है। जिसका उदाहरण राजस्थान के झालावाड़ के एक गांव में खेत की सिंचाई कर रहें किसान की ठंड की वजह से शरीर अकड़ गई, और उसकी मौत हो गई। इस तरीके से किसान की मौत होने का यह कोई शुरुआत नहीं, यह एक अंतहीन कहानी में तब्दील होती जा रहीं है। कड़ाके की ठंड में सिंचाई करते बीमार होना साधारण बात है। किसान पर भी मौसम अधिक का असर होता है, शायद यह समझना व्यवस्था औऱ बिजली कम्पनियों ने छोड़ दिया है। अगर उन्हें किसानों की फ़िक्र होती तो दिन में भी बिजली सप्लाई कर सकती हैं, लेकिन किसानों की फ़िक्र व्यवस्था को शायद है कहाँ। जिसका उदाहरण इसके पहले भी सरकारी तंत्र का ज़ाहिलपन समय-समय पर अन्नदाताओं के ऊपर सितम ढहाने वाला साबित हुआ है। फ़िर चाहे वह महाराष्ट्र को ही उदाहरण के रूप में लेकर समझने की कोशिश की जाए। महाराष्ट्र में कपास की खेती करने वाले किसानों की मौत बीते कुछ महीनों पहले होती है, लेकिन व्यवस्था के कान पर शुरुआती दौर में जूं तक नहीं रेंगती। जुलाई में यवतमाल और विदर्भ जिले में कीटनाशक की वजह से किसानों की मौत की खबरें अखबारों की सुर्खियां बनती रही, लेकिन जब तक मानवाधिकार ने हस्तक्षेप नहीं किया। स्थानीय क्या राज्य प्रशासन के कानों तक इन मौतों की आवाज़ न जाना जहां लोकतंत्र की भावना को ठेस पहुँचाती है, वहीं सरकारी व्यवस्था की बुजदिली को व्यक्त करती है। सैकड़ों किसान अस्पताल तक पहुंच जाते हैं, कुछ के आंखों की रोशनी गायब हो जाती है, तो यह एक भयावह त्रासदी से कम मामूल नहीं पड़ती। उसके अलावा किसान आत्महत्या देश के समक्ष बड़ी विकराल समस्या बनती जा रहीं है। जिससे निजात पाने का कोई सरकारी इंतजाम राजनीति के पास दिखता नहीं।

देश मे सबसे ज़्यादा किसान आत्महत्या भी महाराष्ट्र में ही होती है। अगर महाराष्ट्र में उगाई जा रहीं, फ़सल च्रक को समझने की कोशिश करें, तो पता चलता है, कि वहां पर नक़दी फ़सल जैसे केला, संतरा, कपास, प्याज़ आदि को महत्व दिया जाता है। जिसके कारण कर्ज़ का बोझ बढ़ता चला जाता है। जिससे निपटने के लिए किसान कीटनाशक का छिड़काव करते हैं, कि फ़सल को हानिकारक कीट से बचाया जा सकें, लेकिन उससे प्रभावित वे ख़ुद होते हैं। जिसके कारण कभी-कभार इन किसानों को अपने जान की बाजी भी लगानी पड़ती है। ऐसे में अगर कीटनाशक प्रबंधन विधेयक 2008 से संसद में लटका है, और बिना मास्क और दास्ताने की वजह से किसान कीटनाशक की चपेट में जान पर खेल कर फ़सल उगाना चाहते हैं। यह देश का दुर्भाग्य ही है, कि जिस अन्नदाता की हिस्सेदारी देश की जीडीपी में योगदान 17 फ़ीसद है, वहीं व्यवस्था का मारा मारा फ़िरा घूम रहा है। तो मात्र किसान कर्ज माफ़ी का लॉलीपॉप सूंघा कर राजनीति चमकाने पर जक विश्वास किया जाने लगा है, वह उचित नहीं। फ़िर वह बात चाहे जिस प्रदेश की हो। किसानों की समृद्धि और उनके जीवन स्तर में सुधार का फॉर्मूला तो लोकतांत्रिक राजनीति की किताब से कोसों दूर होता दिख रहा है। फ़िर ऐसे में अगर राजनीति चाहती है, कि युवा पीढ़ी भी किसानी रूपी ओखली में सिर देकर रोजगार के लिए उन्मादी न हो, तो यह कैसे संभव हो सकता है। हज़ारों ख़र्च करके कोई युवा किसानी में हाथ क्यों आजमाएगा। जहां पर उन्नतशील यंत्रों और सस्ती खाद-बीज उपलब्ध न होगी, तो कहानी तो वहीं हुई, सिर मुड़वाते ही ओले पड़ना। आज किसानों की दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण कृषि से फ़ायदा न होना, और साथ मे शारीरिक नुकसान होना भी है।

तो सिर्फ़ राजस्थान की बात की जाए, तो बिजली दिन में भी दी जा सकती है, जिससे किसान ठंड के शिकार न हो, लेकिन राजनीति तो बने-बनाए ढ़र्रे पर चलने की आदि हो चुकी है। वह सिर्फ़ हर चुनावों में जनहितार्थ की बातें करती है, उसके बाद चुनावी बात हवाहवाई हो जाती है। यह देश का दुर्भाग्य ही है, कि जिस स्वामीनाथन समिति की सिफारिश लागू करने का ज़िक्र करके भाजपा सत्ता में आई थी, वह अभी तक क्रियान्वित नहीं हो सकी है। कृषि, किसान की हालत तो पतली है ही, युवाओं को भी रोजगार मिल नही रहा। युवा खेती करने को तैयार नहीं। किसान कर्ज़ के फ़ेर में जान दे रहा है । व्यवस्था अन्नदाता कहकर ही अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेनी चाहती है। फ़िर ऐसे में उचित समर्थन मूल्य और समय पर बिजली दिलवा कौन सकता है, वैसा भगीरथी कोई दिखता नहीं। दो करोड़ लोगों को रोजगार मुहैया कराने का वादा करके सरकार सत्ता में आती है, उसके बाद राज्य चुनावों में अगर पाकिस्तान और हिंदू-मुस्लिम की राजनीति का राग अलापने लगती है। फ़िर यह युवाओं के भविष्य के साथ न्याय होता दिखता नहीं। घटते रोजगार और जिस रिपोर्ट से सरकार की नाकामियों का चिट्ठा खुलता है, उसे अगर दरकिनार करती है, तो यह जनता के हित से मज़ाक ही है। वर्तमान सरकार मूडीज के मूड पर इतरा रहीं है, लेकिन रोजगार सृजन के लिए कोई सकारात्मक कदम नहीं उठा रही, तो यह सरकार की नीति और नियत दोनों पर सवाल खड़ा करती है, क्या केंद्र सरकार के एजेंडे से युवाओं को रोजगार के अवसर मुहैया करवाना हट गया है। बेरोजगारी देश के सामने बड़ा संकट है। फ़िर सरकार को अन्य बेफिजूल के मुद्दों को दरकिनार कर युवाओं और देश हित के विषय पर बात करनी चाहिए। आज बढ़ती बेरोजगारी के कुछ सीमित कारणों में शिक्षा व्यवस्था का गिरता स्तर, कृषि क्षेत्र में युवाओं का रुझान न होने के साथ प्राइवेट नौकरी में सुरक्षित भविष्य न होना है। ऐसे में सरकार का पहला कदम शिक्षा व्यवस्था के क्षेत्र में प्रयोग पर बल देने के साथ शिक्षा पद्धति में नवीनता पर जोर देना होगा। शिक्षा का पाठ्यक्रम ऐसा हो, जो स्वरोज़गार को बढ़ावा दे सकें। इसके साथ कृषि क्षेत्र से सरकार को युवाओं को जोड़ना होगा। साथ ही साथ स्वरोज़गार के साधन भी उपलब्ध कराने होंगे। तभी बेरोजगारी की खान और कृषि समस्या से कुछ आज़ादी मिल सकती है।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896